पावस का चातक पूस में
✒️
अँधियारों में, पावस के जब,
शीत लगा कुलांचे-ऐंठे।
चीख उठा तब, अमराई में,
चातक घुटनों के बल बैठे।।
ओले पड़ें, वृष्टि अति, उल्का,
आँखें सदा निडर थीं उसकी।
शिशिरारि, अल्पसह दे मुझको,
हिमहीन करूँ, काया जग की।।
पूस विजय-उद्घाटित स्वर ये,
कितने जीवन लीलेगा?
अर्द्ध पौष उद्वस सा है,
माघ-शीत फिर खेलेगा।।
वायु हृदय पर चलती है ज्यों,
पैनी-शीतल, शीत कटारी।
क्षुभित विपन्न स्वयं भी है,
दृश्य देख यह परम दुखारी।।
ऐसे में, समर्थ चातक जो,
अतिशय प्रसुप्त सा रहता है।
निशि-दिन शीश लगा घुटनों में,
शनैः-शनैः आहें भरता है।।
...“निश्छल”
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अँधियारों में, पावस के जब,
शीत लगा कुलांचे-ऐंठे।
चीख उठा तब, अमराई में,
चातक घुटनों के बल बैठे।।
ओले पड़ें, वृष्टि अति, उल्का,
आँखें सदा निडर थीं उसकी।
शिशिरारि, अल्पसह दे मुझको,
हिमहीन करूँ, काया जग की।।
पूस विजय-उद्घाटित स्वर ये,
कितने जीवन लीलेगा?
अर्द्ध पौष उद्वस सा है,
माघ-शीत फिर खेलेगा।।
वायु हृदय पर चलती है ज्यों,
पैनी-शीतल, शीत कटारी।
क्षुभित विपन्न स्वयं भी है,
दृश्य देख यह परम दुखारी।।
ऐसे में, समर्थ चातक जो,
अतिशय प्रसुप्त सा रहता है।
निशि-दिन शीश लगा घुटनों में,
शनैः-शनैः आहें भरता है।।
...“निश्छल”