कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

26 June 2018

पावस का चातक पूस में

पावस का चातक पूस में
✒️
अँधियारों में, पावस के जब,
शीत लगा कुलांचे-ऐंठे।
चीख उठा तब, अमराई में,
चातक घुटनों के बल बैठे।।

ओले पड़ें, वृष्टि अति, उल्का,
आँखें सदा निडर थीं उसकी।
शिशिरारि, अल्पसह दे मुझको,
हिमहीन करूँ, काया जग की।।
पूस विजय-उद्घाटित स्वर ये,
कितने जीवन लीलेगा?
अर्द्ध पौष उद्वस सा है,
माघ-शीत फिर खेलेगा।।

वायु हृदय पर चलती है ज्यों,
पैनी-शीतल, शीत कटारी।
क्षुभित विपन्न स्वयं भी है,
दृश्य देख यह परम दुखारी।।
ऐसे में, समर्थ चातक जो,
अतिशय प्रसुप्त सा रहता है।
निशि-दिन शीश लगा घुटनों में,
शनैः-शनैः आहें भरता है।।
...“निश्छल”

25 June 2018

अमर जवान

अमर जवान
✒️
शिलालेख अपना भी हो तो, उसपर नाम शहीद लिखाऊँ;
पदवी ऊँची ना हो मालिक, सैनिक भर से काम चलाऊँ।
यह काया दी मातृ-भूमि ने, उनपर यह सर्वस्व लुटाऊँ;
सेवा करने ख़ातिर उनकी, जग से सारे मैं टकराऊँ।
नारे नहीं जरूरी मुझको, गोली-खंजर बस साथी हों;
अर्पण शीश करूँ चरणों में, अहल-वतन गर संघाती हों।
तत्पर साँसें हैं सेवा में, जन्मभूमि, हे माता मेरी;
साँसें भी रुक जायँ अगर तो, काया खड़ी रहेगी मेरी।
जो काया दी मातृभूमि हे, मैं छोड़ उसे बस जाऊँगा;
दूजी काया को धारण कर, फिर इन चरणों में आऊँगा।
दुश्मन नाम मिटा मिट्टी से, राष्ट्र ध्वज उस पर फहराऊँ;
पदवी ऊँची ना हो मालिक, सैनिक भर से काम चलाऊँ।
शिलालेख अपना भी हो तो, उसपर नाम शहीद लिखाऊँ;
जननी जन्मभूमि तुझपर मैं, अपने हर अरमान लुटाऊँ।

अराति सैन्य श्रेणी को नित, काट रहूँ मैं सबसे आगे;
सहस सिरों को काट अघी के, बढ़ूँ अनवरत निर्भय मागे।
है वीर भुजा में लहू नहीं, हमने अंगारे पाले हैं;
निश्चिंत रहो तुम चमन-वतन, ये शोले शूरों वाले हैं।
नाम छोटा, काम भी छोटा, सेवक बन दिन रात भुलाऊँ;
दुश्मन भी गर माफी माँगे, उठकर उसको गले लगाऊँ।
शिलालेख अपना भी हो तो, उसपर नाम शहीद लिखाऊँ;
पदवी ऊँची ना हो मालिक, सैनिक भर से काम चलाऊँ।
क्षमा योग्य नहीं है लेकिन, कभी भी, कपट सृष्टि-रीति में;
दंड मात्र परिभाषित उसको, जो भी विघ्न करें सप्रीति में।
पर मालिक कुर्सी के सुन लो, जो निंदा रस टपकाते हो;
काटे सिर सैनिक के जाते, निंदा को कड़ी बताते हो।
भेंट भेजते उन शीशों को,विवरों में छिपते जाते हो;
निंदा-निंदा करते करते, घर आलीशान बनाते हो।

निंदा नहीं उपाय पाप का, नित कड़ी करो तो कायर हो;
मत न्यायालय में जाने दो, न ही एक मुकदमा दायर हो।
आतंकी, मनुज न हो सकता, सम्मान न उसके मानव के;
अधिकार न जीने का उसको, ना जीने लायक गुण उसके।
उपाय एक दूजा भी है अब, नहीं लेख बनवाने होंगे;
आदेश एक मात्र कुर्सी से, चीख-चीख चिल्लाने होंगे।
गोली मारो-गोली मारो, सरेआम शूली पर डालो;
चौराहों पर बाज़ारों में, आतंकी, फाँसी पर डालो।
पर,
गीदड़ कहाँ साहसी होता, रचता रहे सियासी सपने;
दुख की बात यही है बस इक, छद्म भेड़िये भी हैं अपने।
मक्कार भेड़ियों के सुधार, अब कुछ तो करो नौजवानों;
प्रजातंत्र की शक्ति बनो अब, नहीं जाति के झंडे तानो।
गिरगिटों के पूर्वज सारे, ना कष्ट समझते धरनी के;
करते फँसकर लोलुपता में, चीरहरण अपनी जननी के।
...“निश्छल”

23 June 2018

कुछ इधर-उधर की-३

कुछ इधर-उधर की-३
✒️
“हम, खा लेंगे शीतल समीर को औ' पी लेंगे लू,
हरी-भरी सदैव रखेंगे सारे वन की भू।
शाकाहार ही धर्म हमारा जँचते मुझको फूल,
भरता नहीं पेट जब, फिर फाँक राह के धूल...”
ऐसे ही मनगढ़ंत बातें खुद से बतियाते,
एक भेड़िया, जंगल के बीच चला जा रहा था...
कहा रोककर कालू भालू, “कहाँ जा रहे हो मिमियाते
पूरा जंगल निगल लिए, क्या फिर भी लाज रही है आते?”
दक्ष, कला में निपुण खिलाड़ी, चाल सोचकर चलता है
लेकिन भींगी बिल्ली जैसे राहों में क्यों मचलता है?
आश्चर्य की बात हुई ये, भालू थोड़ा चकराया
‘लगा काट खाने उँगली को’, गीदड़ चाल ने असर दिखाया,
ये कैसी अनहोनी हो गयी, या आनी है वन में विपद बड़ी
खीझ उठा झुँझलाया पर, युक्ति कहीं से एक न सूझी,
चला जा रहा उलझन में जब, देखा चित्र बड़ा भेड़िये का
और अकुलाया पढ़कर, जो नीचे, मोटे अक्षर में लिखा था,
‘भेड़िया आपकी जात-बिरादर अपना वोट इसी को दें,
भारी बहुमत से अपने भेड़िये भाई को विजयी बनावें’।
बात गले से उतरी तब, यह समझ भालू को आया
भेड़िया इतना हठधर्मी, क्यों परहित में था रमा समाया...
...“निश्छल”

22 June 2018

वस्तुतः

वस्तुतः
✒️
चंद साँसें ही अभी,
बाकी रहीं इस जिंदगी में…
क्या तुझे इतनी ख़बर भी
ना रही ऐ भ्रमित राही।
गिनती बढ़ी बहुत लेकिन्
शेष कम ही हो रहा है।
और तू यूँ ही खड़ा, मद में भरा,
बढ़ते गुरुर का सिलसिला,
वस्तुतः,
धनी केवल आँकड़ों का हो रहा है।
जुड़ा एक और सावन उमर में, तो ये
ग़ुमां किस लिये भला?
जला दीपक लौ,
और ये दह्म
कम ही हो रहा है।
या कहे,
इस अंतहीन क्रीड़ागगन में रम गया, तो
पारी प्रवर्तन से क्यों विचलित हो रहा है?
या तुझे कुछ और पाने…
की सनक ना गयी अब भी,
या कहीं मोह के,
विषबेल में उलझा हुआ है।
परित्याग कर उलझन…
इन सारी अड़चनों का,
परदा गिरा नज़रों से अब
अपने सँभलकर,
स्वीकार कर ले ओ मुसाफिर
ये अमर्त्य सच,
परिवर्तन प्रकृति का नियम है…।
...“निश्छल”

21 June 2018

बादल-९ (गौरैया की चेष्टा)

बादल-९ (गौरैया की चेष्टा)
✒️
धूल उड़ाती ज्येष्ठ पवन खेल रही है यहाँ-वहाँ
ढोते हुए धूलि कणों को बिखेर रही है जहाँ-तहाँ,
लू से दोस्ती करके धूल धू-धू करके गरज रही है
आतंकित से जीव-जंतु सब उष्ण गरल वमन रही है,
सूखे पत्ते निर्भय होकर नील गगन को छूने को
बिन पंख उड़ चले रहा न उनको कुछ भी डरने को,
श्वास स्वयं की हो गयी है दुश्मन अपने जान की
कोई वर्णन कर न सके लू-लहूलुहान की,

पत्ते पेड़ से लगे हुये, यों पत्थर को पत्ती आयी
रत्ती भर भी हिलते नहीं, यों उन पर छायी तरुणाई
उमस भरा ज़लज़ला कुदरत का, कैसे ये जँच सकता है
व्याकुल सारा जगत, कहो कौन क्लेश यह हर सकता है
चक्कर खाते घूम रही है धरती अपनी मस्ती में
कितनों की नैया डूबी है कितने लटके कश्ती में,
चारों खाने चित्त पड़ा है झोंका हवा का गर्दिश में
वन-उपवन में समाँ अलग है मरघट बना है बस्ती में,
ऐसे उलझे अस्त समय में मधुरिम बीन बजाता हूँ
बीन-बीन कर गीतों को बादल के राग सुनाता हूँ।

खुले मैदान में छाया कोई, चलकर कहीं से आती है
मद्धिम होते देख धूप को, गौरैया हर्षाती है
कभी चोंच-नाखूनों से, ख़ुश्क धूल बिखराती है
उलट-पुलट कर देह अपने, डैनों को फैलाती है
थोड़े रज कण पूँछों में, मस्तक पर थोड़े लगाती है
बैठ धूल में चहक-चहक कर, ऐसे सुख दर्शाती है
तन उत्साहित गौरैया का मन में परम उछाह भरा,
खोद रही कण-कण गड्ढे को पल-पल भरे उमाह नया।
गड्ढे में उन्मादित से, उरग देखते बादल को
आओ मेरे अंकन आओ
बरसों से जमी प्यास बुझाओ,
पानी से भर गड्ढों को, जलद परम संताप मिटाओ।

स्नेह चिड़ा का छाया के प्रति अचरज को उकसाता है,
सीस नवाकर धूलिका में धूर-खेली वो बन जाता है।
योजन भर दूर खड़े बादल को,
देख कहीं तरुगात पर,
पथिक खड़ा विस्मय सा गौरैया को देख रहा है।
वार्तालाप छिड़े हैं खग में, या उनपर ये तरुणाई है,
या मेघ बन काली घटा, फिर आज बरसने आई है।
अपने गड्ढों में बैठे बोल रहे हैं पाहन को,
थोड़े बादल इधर भी भेजो चैन बढ़ायें आनन को,
बरस गये दो-चार बूँद, श्रम वृथा न अपने फिर होंगे,
बोलो भूधर, बादल को, उपकार जरा करने होंगे।
...“निश्छल”

17 June 2018

इक बार मिलें

इक बार मिलें
✒️
चल, उनसे फिर इक बार मिलें; दिल क्यूँ पछताता फिरता है?
चाँदनी तले आगाज़ करें; तू, उनके नाम सँवरता है।

दिन में रौशन-रौशन वादी; भीनी तेरे अहसासों की,
जब याद दिलाती हैं मुझको; सावन घनघोर फुहारों की;
जब आ जातीं यादें तेरी; मेरी पलकों पर बैठ कभी,
सब भूल चलूँ सुधि खो कर मैं; तेरी यादों में ऐंठ कहीं;
तेरी नज़रों की आँच सजा; जब जलन उठे उर में मेरे,
खाता हूँ कस्में-वादे मैं; जीता हूँ यादों में तेरे।

मेरी राहों में बैठ कभी; तुम अपनी मधुर फुहारों से,
ऐ सावन अपनी शीतलता; बिखरा देना कुछ राहों में;
मधुमास कभी छल कर सकता; इसलिये दूर ही जाता हूँ,
जप रहा नाम सावन तेरी; मैं उसको नहीं बुलाता हूँ;
क्या जाने रंगों को देखें; वो रंगीले मधुमासी के,
फिर उभर पड़ें उर ज़ख़्म् मेरे; बहते जल में बरसाती से;
समझा दे ऐ सावन उनको; अब तड़ित तर्पणों के नगमें,
बारहमासी कोप वृष्टि से; दिल मेरे अब भी है सहमें।

जीवन के इस झंझट से उठ; पर उनसे दिल इक बार मिलें,
अंगार विचरना गुर अपना; चल, उनसे फिर इक बार मिलें।
...“निश्छल”

15 June 2018

मन-अंगार

मन-अंगार
✒️
मुँह फेर लिया फिर आज चाँद
फिर भी मैं तुझे बुलाता हूँ,
कातर नयनों से उबल रहे
मनभावों को ठहराता हूँ;
चाहो, तो लो अग्निपरीक्षा
ठंडे होंगे अंगारे भी,
है तप्त हृदय चिंगार भरा
दहके हैं मन विष ज्वालें ही।
मुझ तरफ नज़र मत फेर चाँद
मुझको अंगारे प्यारे हैं,
बुझ ना जायें शीतलता से
मुश्किल से मैंने बाले हैं;
मैं नहीं कहूँगा, मिल आकर
हृदयागार एक अंगार के,
पर, मत कर शीतल तुम चंदा
यह तप्त हृदय अब प्यार से।
...“निश्छल”

13 June 2018

यथार्थ

यथार्थ
✒️
निज, निजता के अहसान तले
घुट जातीं रिश्तों की साँसें,
फाँसें बनकर हैं झूल रहीं
जग की आलीशान उसाँसें।
है रीति दिखावा बहुत मगर
झूठे विषबेल लुभावों के,
समरथ अब भी परिपाक खड़ा
उद्दंड सोच कुटिलाओं के।
कृतकृत्य वासना ही अब है
मनुजों के अहसासों की लौ,
करते रहते झूठे वादे
खाते हैं बड़े-बड़े विधि सौं।
आँखों में वसुधा के विष है
जग की आँखें धुँधलाती हैं,
मनुज जाति की तुच्छ निगाहें
अपनों को ही तड़पाती हैं।
कर में वंदन की थालें हैं
आँखों में कुटिल वासनायें,
ये मनुज पड़ा बदनाम स्वयं
ममता पर भी कुटिल कुराहें।
जोगी की गति कलुषित हरपल
अब राह दिखाता बागी है,
सुख भोग काटता अघी बड़ा
लांछित परमार्थवादी है।
ऐसे में तृषता तृषित हुई
कुंठित मनभाव जुझारों के,
समरथ को ही अब दोष लगे
गूँजें जयकार गँवारों के।
...“निश्छल”

12 June 2018

हैप्पी व्यर्थ-डे

हैप्पी व्यर्थ-डे
✒️
व्यर्थ दिवस...,
व्यर्थ?...
हाँ, व्यर्थ ही कहूँगा।
भई जन्मदिवस, पुण्यतिथि, वार्षिकोत्सव तो महान विभूतियों को याद करने के लिए बनाया था हमने। उनके सद्गुणों, उनकी प्रतिष्ठा, त्याग और महानता को स्मरण करने हेतु यह सारे उपक्रम विकसित किये थे।
पर अब, ह्ह्ह्ह् ... व्यऽर्थ-डे..।
इसे व्यर्थ-डे नहीं कहूँ तो और क्या कहूँ?
वैसे, एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि, मुझे आंग्ल भाषा से कोई परहेज नहीं है और न ही किसी और भाषा या सभ्यता से। यकीनन, भाषा और सभ्यता एक दूसरे से जुड़ी रहें, तभी तो नियमित गतिशीलता बनी रहेगी धरातल पर...?
लेकिन यह बताइए कि, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना कहाँ की समझदारी है?
या यूँ कहें कि, अपनी व्यर्थ की ज़िंदगी से व्यर्थ के कार्यों द्वारा एक और व्यर्थ दिन को व्यर्थ करने के व्यर्थ उत्सव को मनाना, हमें सद्भावों और सुविचारों से कहीं ज्यादा उचित लगता है।
...“निश्छल”

11 June 2018

निरीह कलमें

निरीह कलमें
✒️
कुर्सी के सामने दो कलमें खड़ी थीं,
सिर झुकाए... आँखों में पानी भरे,
दीनता मंडित चेहरे...
जन्मों से, अघी हों जैसे।
पर, ऐसा कैसे हो सकता है...?
कलमें?...
हाँ कलमें...,
कलमें तो समाज को रास्ता दिखाती हैं।
सुकोमल, नवीन भावों का संचार करती हैं।
फिर...?
कुछ असमंजस में था मैं...
एक सवाल किया कुर्सी से, “आख़िर कसूर क्या है?”
...फिर क्या?
अब दो की जगह तीन कलमें खड़ी थीं।
पछतावा कदापि न था, कि प्रश्न क्यों किया?
मगर, घिन आ रही थी उस प्रणाली से...,
जो कुर्सी को सर्वसम्पन्न बनाता है, और कलम को निरीह...।
...“निश्छल”

10 June 2018

चाँद का फूल

चाँद का फूल
✒️

चाँद का फूल खिला मेरे अँगना,
देख के उसको गुल शरमाये रे...
देख के उसको गुल शरमाये रे,
छुपाए पंखुड़ियाँँ चाँद से अपना;
चाँद का फूल खिला मेरे अँगना...
चाँद का फूल खिला मेरे अँगना।

जागूँ मैं रातभर, गाऊँ नगमें...
जागूँ मैं रातभर, गाऊँ नगमें,
आँख़ों में रख, सो जाऊँ अँगन में;
जागूँ मैं रातभर, गाऊँ नगमें,
बिठा, पलकों पर, रात-रानी बना
चाँद का फूल खिला मेरे अँगना।

देखता है मुझे मुस्कान भरकर,
विदा करता घना-घन साज़ सजकर;
नवाती हूँ नयन, दृग ताक उस पर,
समझे वो बातें, मुस्कान भरकर;
गीत उसको मैं सुनाऊँ गुनगुना,
चाँद का फूल खिला मेरे अँगना।

महक उठी सोंधी सी बगिया हरी,
जानकर दूर ही देखे जौहरी;
रचाती है डोर, चाँदनी वैसे
हो वसंत में वो दामिनी जैसे;
बसा तू, मन में, रहूँ मैं अनमना,
चाँद का फूल खिला मेरे अँगना।

फूल से मुखड़े, तारों सी आँख़ें...
फूल से मुखड़े, तारों सी आँख़ें;
दीप सी चमकती, टिकुलियाँ वारें
लाखों जनम, नलिनी नज़र उतारे;
सँवारूँ जाग के मैं, अँगन अपना
चाँद का फूल खिला मेरे अँगना।

वो गुलाबी सी कली खिली-निखरी,
जुबाँ पे आह जब जहाँ के बिखरी;
निकलकर बादलों की छाँव बैठी,
मृणालिनी की वो याद में ऐंठी;
बना लूँ आज उसको निलय अपना,
चाँद का फूल खिला मेरे अँगना।
...“निश्छल”