कितनी वांछित है?
✒️
युवा वर्ग जो हीर सर्ग है, मर्म निहित करता संसृति का
अकुलाया है अलसाया है, मोह भरा है दुर्व्यसनों का
पिता-पौत्र में भेद नहीं है, नैतिकता ना ही कुदरत का;
ऐसी बीहड़ कलि लीला में, आग्नेय मैं बाण चलाऊँ
कहो मुरारे ब्रह्म बाण की, महिमा तब कितनी वांछित है?
जो भविष्य को पाने चल दे, वर्तमान का भान नहीं हो
भूतकाल में दैव प्रेरणा, क्षुधा कभी आराम नहीं हो,
अतुलित चाहत की बारातें, जिसके जीवन में सिर-माथे
सुखी रहे बस नाम मात्र का, उसको ध्यावें, यम आघातें,
नये दौर ने नये सृजन में, सृजित रीति ही कर डाला तो;
कहो मुरारे सृष्टि रीति की, मर्यादा कितनी वांछित है?
जनता चोंचें खोल-खोलकर, भ्रमित दृगों से तोल-तोलकर
कुर्सी के भूखे भिखमंगों, को लालचवश बोल-बोलकर
उनके ही फैलाये जालों, में मदिरा में डूब-डूबकर;
शाम सवेरे जब भी देखो, कुकडूँ-कूँ के राग सुनाये
कहो मुरारे गीता की वह, राजनीति कितनी वांछित है?
प्रजा, पुत्र के तुल्य है होती, माने जो राजा महान है
अपने खून-पसीने पाले, संज्ञा ही वह सर्वनाम है
कुंठित हो स्वेच्छाचारी जो, हाथों अपने, प्रजा प्रताड़े;
राजनीति के अधम चरण में, मानव जब, मानव को मारे
सत्ता के गलियारों में यह, मारपीट कितनी वांछित है?
कलि की मंदर महिमा में जब, कवि शब्दों का मान नहीं हो
कहो मुरारे ब्रह्मज्ञान की, गरिमा तब कितनी वांछित है?
...“निश्छल”
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युवा वर्ग जो हीर सर्ग है, मर्म निहित करता संसृति का
अकुलाया है अलसाया है, मोह भरा है दुर्व्यसनों का
पिता-पौत्र में भेद नहीं है, नैतिकता ना ही कुदरत का;
ऐसी बीहड़ कलि लीला में, आग्नेय मैं बाण चलाऊँ
कहो मुरारे ब्रह्म बाण की, महिमा तब कितनी वांछित है?
जो भविष्य को पाने चल दे, वर्तमान का भान नहीं हो
भूतकाल में दैव प्रेरणा, क्षुधा कभी आराम नहीं हो,
अतुलित चाहत की बारातें, जिसके जीवन में सिर-माथे
सुखी रहे बस नाम मात्र का, उसको ध्यावें, यम आघातें,
नये दौर ने नये सृजन में, सृजित रीति ही कर डाला तो;
कहो मुरारे सृष्टि रीति की, मर्यादा कितनी वांछित है?
जनता चोंचें खोल-खोलकर, भ्रमित दृगों से तोल-तोलकर
कुर्सी के भूखे भिखमंगों, को लालचवश बोल-बोलकर
उनके ही फैलाये जालों, में मदिरा में डूब-डूबकर;
शाम सवेरे जब भी देखो, कुकडूँ-कूँ के राग सुनाये
कहो मुरारे गीता की वह, राजनीति कितनी वांछित है?
प्रजा, पुत्र के तुल्य है होती, माने जो राजा महान है
अपने खून-पसीने पाले, संज्ञा ही वह सर्वनाम है
कुंठित हो स्वेच्छाचारी जो, हाथों अपने, प्रजा प्रताड़े;
राजनीति के अधम चरण में, मानव जब, मानव को मारे
सत्ता के गलियारों में यह, मारपीट कितनी वांछित है?
कलि की मंदर महिमा में जब, कवि शब्दों का मान नहीं हो
कहो मुरारे ब्रह्मज्ञान की, गरिमा तब कितनी वांछित है?
...“निश्छल”
जनता चोंचें खोल-खोलकर, भ्रमित दृगों से तोल-तोलकर
ReplyDeleteकुर्सी के भूखे भिखमंगों, को लालचवश बोल-बोलकर
उनके ही फैलाये जालों, में मदिरा में डूब-डूबकर;
शाम सवेरे जब भी देखो, कुकडूँ-कूँ के राग सुनाये
कहो मुरारे गीता की वह, राजनीति कितनी वांछित है?
बहुत सुंदर रचना 👌👌
शुक्रिया आदरणीया🙏😊🙏
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २१ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आदरणीया श्वेता जी सादर नमन, बहुत दिनों के बाद ही सही, लेकिन"पाँच लिंकों के आनंद" पर कल अवश्य आऊँगा। सादर आभार एवं धन्यवाद🙏🙏🙏
Deleteइस जग में वांछित क्या है.जो हो रहा है वह या जो नही ना हो रहा है वह.
ReplyDeleteहर वक्त के मानुष को अपने वक्त से शिकायत रही है.
विचारणीय पोस्ट
आत्मसात
सत्य वचध आदरणीय, साभार नमन🙏🙏🙏
ReplyDeleteसादर अभिनंदन सर🙏🙏🙏
ReplyDeleteनये दौर ने नये सृजन में, सृजित रीति ही कर डाला तो;
ReplyDeleteकहो मुरारे सृष्टि रीति की, मर्यादा कितनी वांछित है?
लाजवाब कृति....
वाह!!!
सादर नमन मैम🙏😊🙏
Deleteप्रिय अमित -- भगवान कृष्ण को मार्मिक उद्बोधन और सार्थक प्रश्न अपने आप में आपकी रचना को अतिविशिष्ट बनाते हैं | अलसाई और भौतिकवाद की आवश्यक - अनावश्यक लालसाओं में आकंठ डूबी युवा पीढ़ी भारतवर्ष में भविष्य के प्रति नैराश्यपूर्ण सोच पैदा करती है | ललचाई प्रजा कभी विवेक से राजा नहीं चुन पाती और राजा राजनीति के कुटिल पंक में डूबा प्रजा के पोषित करने की बजाय अपनी कुर्सी बचाने के अधिक तत्पर है | एक आहत कवि का नैतिक कर्तव्य बनता है कि इस अव्यवस्थाओं पर गहन चिन्तन करे जो आपने किया , भले कविशब्दों का मान हो- ना हो | आक्रांत चिन्तन से उपजी इस रचना के लिए आपको बधाई देती हूँ | सस्नेह --
ReplyDeleteसादर नमन एवं हार्दिक अभिनंदन दीदी🙏🙏🙏
Deleteउम्दा भाव लिए हुए सटीक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुन्दर भाषा शैली
सार्थक प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार मैम🙏🙏🙏
Deleteबहुत खूब ...
ReplyDeleteगहरे प्रश्न खड़े किये हैं इस रचना के माध्यम से ... पर समाज से ही इसके उत्तर भी आने वाले हैं ... मंथर होगी गति पर जरूर आयेंगे जवाब ... काल के गर्भ को कोई नहीं जान सका है ...
जी सर, कलियुग की इस मंदर पर्वत के समान महिमा (अच्छी और बुरी) में सारे उत्तर व्याप्त है। बहुमूल्य प्रतिक्रिया के लिए सादर नमन आदरणीय🙏🙏🙏
Deleteब्रह्म बाण, सृष्टि रीति, सत्ता , गीता ज्ञान आदि की ज्ञान के बाद भी राह से भटके हैं लोग। क्या यह वांछित है? सुन्दर प्रश्न उठाया है आपने। रचना का विस्तार विन्यास देखते ही बनता है। अनेकों शुभकामनाएं आदरणीय अमित निश्छल जी।
ReplyDeleteजी सर, जीवन को सुचारु रूप से, शांतिपूर्वक यापन करने के लिए सब कुछ तो है इंसान के पास। फिर भी भटके हुए को बोध नहीं। रचना का मान बढ़ाने के लिए शत-शत नमन आदरणीय🙏😊🙏
Deleteअद्भुत लेखन क्षमता है आपमें भाई अमितजी सिलसिलेवार समसामयिक सभी विसंगतियों को दृश्य मान कर उन पर श्री हरी को संबोधित कर विचलित मन की क्षुब्धा को बहुत ही सटीक और सुदृढता से पेश किया आपने ।
ReplyDeleteअप्रतिम सार्थक रचना ।
बहुत बहुत धन्यवाद दीदी। आपके आशीर्वचनों के प्रति कृतज्ञता🙏🙏🙏
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