कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

30 April 2018

मेरे विह्वल परिताप लिये

मेरे विह्वल परिताप लिये
✒️
सतरंगी परिधान लपेटे,
वनदेवी तुम बन जाती हो;
गिरती बिजली मेरे मन, औ',
मंद-मंद तुम मुस्काती हो।

मुख प्रसन्न, पर शील झलकता
शीतलता, जैसे परिपाटी,
विचरण करती हो, देवि तुमहिं,
रहती बन, निशि-दिन मदमाती।

हवा बसंती, फागुन की तुम
रंगें, मेरे वीरानों की;
कोटि-कोटि जीवन वारूँ, कर
दर्शन तेरे मुस्कानों की।

प्यासे मन का अहसास, कली,
तुम मेरे मन की ज्वाला हो;
नित सेंक रहा हूँ मन को मैं,
जीवनसाथी तुम हाला हो।

अंबर में छा जातीं निशि में,
पूनम बन नवल चाँदनी सी;
अनुभूति प्रिये होती निशि में,
रानी तुम धवल दामिनी सी;

तन की हर आहट तुमी सुमुखि,
चेतन की तुम्हीं दुशाला हो;
जब होती ना अंबर में तुम,
जीवन प्रचंड विष प्याला हो।

भ्रमित खड़ा नभ, चाँद दृगों से
ताक रहा है भूधर का सर;
आखिर यह कैसा चमत्कार
आभामंडित सारा भूधर;

जगन्निगाहें भाँप रहीं हैं,
निश्चल प्रतिमान, अमी मंडल;
रुख़ करो जिधर, हे देवि, परम,
बन जाता है सुंदर कुंडल;

विद्युत मेरे मन में उठती,
महसूस करूँ मैं प्राणों की;
है नाम गूँजता यह मेरा,
भीने तेरे अहसानों की;

भौहें टेढ़ी, तिरछी निगाह,
नित मुस्कानों की साख लिये;
कह दो प्रिय तुम विचरण करती,
मेरे विह्वल परिताप लिये।
...“निश्छल”

प्रेयसि पर मर मिट जाना है

प्रेयसि पर मर मिट जाना है
✒️
मैं नालायक, लोफर भी हूँ
तुम देख मुझे मुस्काती हो;
पलकों को मीचे, वृहत नैन
मुझ पर अपनत्व जनाती हो।

जो नैन मिले चुपके से तो
कलिका गुलाब हो जाती हो,
सुनकर मेरे गीत प्रियतमा
बरबस सकुचाती जाती हो।

जो गीत लिखूँ उर लाली से
नगमें तेरे बन जाते हैं,
गूँजें मधुरिम गज़लें बनकर
जब श्रवण रंध्र तक आते हैं;

अंतस में बरखा बन बादल
नित बूँद-बूँद बरसाते हैं,
सुमुखि याद में तप्त हृदय को
शीतल करते वे जाते हैं।

ख़्यालों में हो, निशि-दिन बसती
तुम मेरे रौब बढ़ाती हो;
प्रियतम, साँसों में घुल मेरी
तुम कर्पूरी कहलाती हो।

कविता तुम मेरी सदा सुमुखि
कवि हूँ मैं चंद्र कपोलों का,
हूँ बाँच रहा निःशब्द गीत
तेरे इन धवल कपोलों का;

सुर्ख़ लबों को छूकर प्रेयसि
ये गीत अमर हो जाते हैं,
चुभते रहते मेरे मन में
ये रैन-दिवस तड़पाते हैं;

नीरवता में, बात कहूँ मैं
तेरी घनघटा काकुलों की,
विस्मित होता हूँ देख रहा
लीला फहराते बालों की।

हैं सदा यही दर्पण मेरे
ये नैन द्रवित जो तेरे हैं,
नित देख रहा हूँ जीवन में
स्वप्नों से भरे सवेरे हैं;

प्रिय आँखों में बस जाना है
जीवन बाकी अफसाना है,
ये गीत पुकारे हैं मेरे
प्रेयसि पर मर मिट जाना है।
...“निश्छल”

बाल श्रमिक (मनोदशा)

बाल श्रमिक (मनोदशा)
✒️
प्रश्न अड़ा यह अब भी आखिर, झूठ कहूँ या साँच,
तू चाहे मेरे मालिक ग़र, मुझे न आये आँच।
कहता नहीं किसी से, दुर्बल मन  की बात,
मालिक मेरे तुम ही माता, तुम ही मेरे तात।
किंचित विपद परिस्थिति का, मैं बना हुआ हूँ दास,
जग के रिश्ते नातों में, अब तनिक नहीं विश्वास।
प्रस्तुत कैसे कर दूँ, दुखियारे इन जज्बातों को,
अपढ़ अनुग्रह करता हूँ, जिन बाबू, साहबजादों को।
अनायास कर देते हैं, अक्सर मुझे निराश,
सुन विकर्ण बस हो जाते हैं, मेरे सकल प्रयास।
सीस चूम लिया माता ने, सन्मुख हुआ जब आने को,
दिया वचन, ममता के सारे, दुःख और दर्द मिटाने को।
दौर याद आता मुझको जब, उद्भव अश्रु प्रपात,
उग्र सूर्य हो जल विहीनवश, सेवा करते तात।
अधीनस्थ अधिष्ठाता के, वंशज का सम्मान,
दिखी पादुका कभी नहीं, धूसरित सदा परिधान।
वर्तुल कतरा एक पिसान का, अपने हाथों पाने को,
लालायित थे नयनद्वार, सदियों की क्षुधा मिटाने को।
भ्रातृ प्रेम हो सफल सदा, इसलिये ठहर सा जाता हूँ,
कातर दृग, बेजान बालपन, सोच सहम सा जाता हूँ।
आगामी समयान्तराल में, नित भोज उन्हें मिलने होंगे,
किंचित अपने साल स्वामि के, पद में समेटने होंगे।
साहस की चिंगारी यद्यपि, ज्वलित हुई अंतर्मन में,
निश्चय ही यह शंखनाद है, सुख़द समय का जीवन में।
एकादश वर्षों में मैंने, यह मुकाम जो पाया है,
आरंभ हुई सेवा कब - कैसे, सदा यही विसराया है।
लोचन - सरोरुह बड़े यत्न से, अंब - अंबु छलकाते हैं,
मरणासन्न हुई कृश काया, स्व - जन याद आ जाते हैं।
तुच्छ निरीह प्राणी का भी तो, थोड़ा विपद निदान करो,
मेरी जीवन नैया को भी, माधव! अभय प्रदान करो।

स्मृति झरोख़ों से कोई, अहसास उतरता आता है।
बाल अवस्था विवश बहुत, यह बाल-श्रमिक कहलाता है।।
...“निश्छल”

28 April 2018

साँझ, झाँक रही है

साँझ, झाँक रही है
✒️
साँझ, झाँक रही है,
तरु पत्तियों से...
छुपकर, अंधेरी घूँघट से
नीड़ के झुरमुटों से;
स्नेह से हाथ फेर
गौरेया के नव आगंतुकों पर,
बिहँस रही है...
खिलखिला रही है,
पर को जरा फैला कर
नन्हे चूज़े,
तंद्रा को दूर करते हैं
और साँझ...,
ठिठक कर खड़ी है।
कुछ, गुर सीख रही है शायद;
या जाने, उसका मन रूपी जाल
नन्हे चूजों की निष्कपट किलकारियों में,
कहीं उलझ गया है...।
सूरज टोकता है...,
“अरी सुनो, अब चलो भी”,
हड़बड़ाकर, चौंकती है
जैसे, नींद से जागी हो।

उधर चाँद भी, अपनी निशा के साथ आ धमकता है
निशा से क्या रोक-टोक, वो तो बहन है उसकी;
पर, चाँद पर नजर पड़ते ही
शरमाकर नजरें झुका लेती है;
धरा पर हर तरफ पसरी
हरियाली को निहारने लगती है;
पलभर में ही कहीं खो सी जाती है।
जाने, हरियाली के प्रखर देवदूतों ने
विदा कर दिया हो,
या टप-टप टपकते उसके अनुराग को
धरा ने अवशोषित कर लिया हो।
सुदूर क्षितिज पर,
सूरज के साथ अश्वारोही साँझ,
एक बार फिर मुड़कर झाँकती है
पर धूमिल सी प्रतीत होती है;
आख़िर, घराने में अब निशा का राज है
और जहाँ निशा, वहाँ साँझ का क्या काम...?
...“निश्छल”

25 April 2018

नम आँख़ें कहीं नहीं हैं

नम आँख़ें कहीं नहीं हैं
✒️
चिता, जल रही थी,
असु, सैलाब उमड़ रहे थे;
भस्म करके मुझको
घर अपने जा रहे थे।
मुड़कर चले थे, अपने
कि नज़रें नहीं फिरीं थीं,
चेहरों पे सुर्ख़ उनके
अब दूरी ही बस लिखी थी;
न अपनेपन की वाणी
न आँख़ों में ग़म के पानी,
खुश हो कर चले अँगन को
चिता, ऐसी मेरी जली थी।

कहते हैं, जग में कुछ हैं
बदकिस्मत भी मेरे जैसे,
जो खुलकर न हँस सके हैं
न मर भी सके जतन से;
पर खुश हूँ,...
पर, खुश हूँ देख अपनी
अब ख़ाक सी मैं काया,
क्या फ़र्क अब पड़े है
अपना है या पराया;
मुस्कान एक मेरे
अधरों पे तिर रही है,
कि दूर हो के मुझसे
नम आँख़ें कहीं नहीं हैं।
...“निश्छल”

चाँद की आभा

चाँद की आभा
✒️
शीघ्रता से सूरज भागा ज्यों, निकलकर नीड़ से
खोला किवाड़ और आभा लिए दौड़ा झट से
टूटकर दो लड़ियाँ, किरणों की
गिर गईं जमीन पर छन्न से।
अकुलाहट में सूर्य-नयन देख न सके
भागा जा रहा पथ पर अपने
लिए कर्तव्यपरायण वह सपने
भागे जा रहा, भागे जा रहा, भागे जा रहा था
लेकिन,
अरे!... यह क्या?
किरणें,
मेरी दो किरणें,
हाय! कहाँ गिर गईं?
...लगा सोचने।
विवश हो, धाराहीन हो गया।
कभी उकताता, कभी मद्धिम, कभी रंगीन हो गया।
उग्र भी, रुष्ट भी, कमनीय कांति भी बिखेरी,
पर, नभ पथ पर उड़ते पंछी की आँख न डोली।
संपाती की कहानी जेहन में घूम रही थी,
कोई खग, कोई विहग साहस न कर सका
पूछने को, सूरज की रुष्टता।
उधर सूरज लाचार, व्यवहार और आचार से
आग भरे नैनों में, मंद होता जा रहा था,
शनैः-शनैः सागर में ओझल होने को प्रस्थान कर रहा था।
व्यवहार का कौशल चाँद ही सिखाता,
निशा अंधेरी होती, मगर वह उजाला बिखेरता,
फिर भी चाँद और निशा का तालमेल,
नित नया रंग चढ़ाता।
दिनभर के झुलसे चेहरे,
झुलसे हुए रुपहले,
ठंडी साँसें लेते, आभाहीन चाँद को देखते,
क्योंकि, व्यवहार का कौशल चाँद ही सिखाता।
यात्रा आरंभ किया चाँद ने ज्यों ही,
कराह सुनी... मीठी ध्वनियों में,
नीचे देखा, तो दो किरणें...
अश्रु पूर्ण नेत्र चाँद के।
पलकों पर बिठा लिया किरणों को,
एक रंग में तन्मय हो,
विलीन हो गईं दोनों किरणें चाँद में।
अब तो, ... हाँ, अब तो
चाँद भी वैभवशाली हो गया,
आभा विहीन, अब आभा का स्वामी हो गया।
पाप नहीं था चाँद के मन में,
लेकिन कलुषित हो चला था,
“आखिर ये अपनी किरण तो नहीं हैं न...?”
पर, किरणों के अश्रुपूरित दृगों ने चाँद को विचलित कर दिया,
और वह सदा-सर्वदा के लिए किरणों को अपना साया देने को राजी हो गया।
अतएव, वे किरणें चाँद की आभा बन गईं।
...“निश्छल”

24 April 2018

सरहदों पर चाँदनी

सरहदों पर चाँदनी
✒️
बुझती निगाहें देखती हैं सरहदों पर चाँदनी,

सरहदी उन्माद है शीर्ष पर चढ़ा हुआ,
जीव एक मृत सा
बैठा, बर्फ में सना हुआ,
निशि की एकाकी शांतियों में सोचता है;
बरबस...
मनोहर भावों को पुचकारता है, नोचता है।
वस्तु बनकर जी रहा है,
विकल, मन सरहदों की वादियों में भी रहा है।
कैसी निस्तब्धता, नीरवता में मशगूल है,
पत्ते खनकने पर भी चौकन्ना वह शूर है;
एकाकियों में दीर्घ साँसें ले रही है चाँदनी,
स्वच्छंद हो विचरती, नग्न पावन चाँदनी।

शूलियों पर आत्ममंथन कर रहा है,
जीवन किसलिए?
काट मारो, या कट मरो?
सन्नाटों में मन भावों को
बिलोड़ रहा है,
संवाद भी, पूरे न हो सके अभी
बात को चाँद ने सुनी, हाँ, नाँ न की;
शिलाओं में एक गोली कौंधती है...
वीर की उसाँस भी दो फूलती है।
सोचवश रमणीय था जो जीव आख़िर,
क्षणमात्र में गुजरा हुआ था वह मुसाफिर;
चीख पड़ती है जहाँ के शीश पर चढ़,
क्रंदनों की वृष्टि करती चाँदनी फिर।

प्रिय को संदेशे भेजने को था बुलाया,
सोचता, बस सोच कर के कह न पाया;
सुन ना सकी मैं, शांति के विचलित स्वरों को...
शीश धुन-धुन चीखकर दहाड़ मारे,
चाँदनी है चाँद की जो लौटती है...
चाँदनी है चाँद की जो लौटती है;
वीर की अदीप्त सी आँखें अभी,
बुझती निगाहें देखती हैं..
चाँदनी को सरहदों पर...
बुझती निगाहें देखती हैं सरहदों पर चाँदनी।
...“निश्छल”

23 April 2018

सुनो ज़िंदगी, अब हिसाब करते हैं

सुनो ज़िंदगी, अब हिसाब करते हैं
✒️
सुनो ज़िंदगी, अब हिसाब करते हैं,
कुछ पन्ने तुम भरो, कुछ हम भरें
मतलब?
अब ना मजाक करते हैं।
उमर की गुफाओं से गुजरते,
कभी न रुका आज तक
आओ, सुकून से मिलाप करते हैं।
रूसवा ना हो
जाँ पे बन आएगी मेरी,
भूलो रंज, कदर की किताब भरते हैं।
इस कदर तुझमें समाई जिंदगानी मेरी,
जिंदगी और रूह बस मिलाप करते हैं।
सुनो ज़िंदगी, अब हिसाब करते हैं।
...“निश्छल”

वरद शारदे

वरद शारदे
✒️
वरद मातु, ये शीश झुके हैं,
चरणों में कमल सदृश तेरे;
अभिनंदन ओ माता मेरी,
बुझे हुए ये बैन हैं मेरे।

माँगू कैसे आशीषों को,
मैं हूँ परमारथवादी माँ;
तदपि माँगता वरदानों को,
हूँ, परमारथ की खातिर माँ।

दो आशीष मुझे भी ऐसा,
पापी हूँ मैं, निर्दोष बनूँ;
करूँ साधना इन चरणों की,
भगति भाववश लोष्ठ बनूँ।

बुद्धि शुद्ध हो वर दे माता,
संभ्रांत, बुद्धि स्वाभाविक हो;
निमिष मात्र में मंद बुद्धि यह,
विद विद्वानों का नाइक हो।

आगाज़ करूँ नित भोर भये,
नूतन शर के संधानों का;
मेधा विमल करो हे माता,
लायक कर में इन चापों का।

है चाप सदैव कलम मेरी,
हैं स्याह वर्ण, ये शर मेरे;
सौम्य दृष्टि दे माता इनको,
वैभव अनुपाय यही मेरे।

मार्ग,प्रखर बने मेरा भी,
नव उन्नति के वरदानों से;
निर्बंध बने मार्ग देवि हे,
यह, शैलसुता वरदानों से।

साँझ मेरे नित सद्कर्मों की,
दर्पण भी बनी रहे हर पल;
निर्मलता प्रतिपादित मेरी,
अब रहे सदा मानस मंडल।

वीणावादिनी योग्य करें,
मति, मेरे कलुष कपालों में;
तन्मयता भर दे माँ ऐसी,
मिलती है जो बस सालों में।

प्रकट करो माँ करुणा अपनी,
निश्छल विवेक हित लायक हो;
संसृति का पाप निवारण हो,
काया यह सुखी सुलायक हो।

जय हो जय हो जय हो माता,
वंदन है शीश झुकाकर नित;
स्थान चरण में दे दे माँ अब,
मैं सदा रहूँ सप्रीत विनीत।
...“निश्छल”

21 April 2018

आ, काश कहूँ मैं

आ, काश कहूँ मैं
✒️
नाहक सोच रहा हूँ जग में,
अरमानों की टोलियों संग,
सात समंदर पूरा जितना
उतना खाली है मेरा मन।
गवाह खड़ा, चांद गगन में
खुशियों की परिपाटी लेकर,
क्या दोगे मुझको नील गगन
अरमानें अभिशापित लेकर?

मैं शापित हूँ, यह दोष स्वयं का मेरा है,
गूँजता गान ये कानों में जो तेरा है;
अविच्छिन्न भागता पल-पल मुझसे दूर बहुत,
ऐ नील गगन तुम्हारे पास सवेरा है।
मेरे, स्वप्नों में भी नहीं, कभी आते हैं,
ये सवेरे, मुझसे दूर ही मुड़ जाते हैं;
मैं खुश हूँ अपने तम रूपी अभिशापों से,
मेरे आगे वे ही तो चलते जाते हैं।


परिगर्वित रहो, सही वक्त है आखिर तेरा,
ज्ञापित है, मेरे जीवन में नहीं सवेरा;
शौर्यवान बनो, राज करो युगों-युगों तक,
आसमान में मेरे, कल्पित रहे अँधेरा।
रहो सदा आबाद, और बर्बाद रहूँ मैं,
तुझको शामो सुबह सदा आदाब कहूँ मैं;
मेरे जीवन में, कल्प-कल्प रहे अंधेरा,
तुझको देख पुकारूँ, फिर आ, काश कहूँ मैं।
...“निश्छल”

20 April 2018

चौपाल-३ (नव भक्ति)

नव भक्ति
चौपाल-३ (नव भक्ति)
✒️

मैं बाइक पर बैठा
थोड़ा सीधा थोड़ा ऐंठा,
बड़े अदब से, कहीं जा रहा था।
गणेश विसर्जन की भीड़ देख, जरा ठिठका
आँखें मीच, माथा नीचे कर
मन ही मन नमन किया।
और भक्तगणों के,
करीब पहुँचा...

पसीने से तरबतर होते भक्तगणों को मैने देखा,
श्रद्धा पूर्वक आँख घुमाई यह पवित्र क्षण मैने लेखा।
‘गणपति बप्पा मोरया’ का परम पावन उद्घोष मचा था,
जिसको देखो केवल भक्ति, भाव में डूबा मगन बड़ा था।
माता बहनें सीस नवातीं, शुभाशीष देदो प्रभु सबके,
दया करो हे देव दयामय, कष्ट हरो हरपल, अब सबके।

भाई लोग के हाथों में हाकी-चेन थे लाठी - डंडे,
कुछ किशोरवय कर कमलों ने पकड़ रखे ढोंगी हथकंडे।
कुछ जगीले, अधगीले थे, पीकर नशे में नाच रहे थे,
ट्यूबलाइट लिए कुछ लोग, सड़कों पर ख़ाका खाँच रहे थे।
कहीं-कहीं पॉकेट से बोतल, एक कहीं दो झाँक रही थी,
बीड़ी - सुरती के धुओं से आधी भीड़ तो खाँस रही थी।
आँखों में लाली छाई थी, मुँह कद्दू जैसे लिए फुलाए,
गुटका, खैनी, जर्दा या कोई मादक पदार्थ दबाये।
कोई क्रोधित कोई सहमा तो कोई ज़रा नजर उठाए,
शरमाये कोई तो कोई लड़कियों पर ही था ललचाए।
गाना गूँजा एक सुरीला तुरत माहौल में चेंज हो गया,
‘मेरे रश्के कमर...’ सुने तो समाँ तुरत स्वच्छंद हो गया।

बहुत करी कोशिश मैने, फिर भी पा न सका कोई रस्ता,
सूझा ऐक उपाय फटाफट थोड़ा महँगा थोड़ा सस्ता।
बड़े ताव में आकर,जैसे ही,एक भाई पर चिल्लाया,
पड़े हाथ, फिर लात - तमाचे, औंधे मुँह लोगों ने पाया।
हुआ अचानक कैसे ये सब, मुझको गलती एक ना सूझी,
गिरते जाते लाठी- डंडे, ना जाने कब आँखें बूझीं।

आँखें खुलीं तो बहुत शांति थी, लेकिन जगह नयी सी थी,
हाथ - पैर पर मरहम - पट्टी, इंजेक्शन भी कमर पर थी।
आँखें भर आयीं जाने क्यूँ, समझ न मुझको कुछ भी आया,
मैने पूछा डॉक्टर अंकल मुझे यहाँ कौन ले आया।
डॉक्टर बोले नाक चढ़ाकर, पहले तुम, ऐक काम करो,
जैसे भी करो, सबसे पहले, दवा- दारू का दाम भरो।
सहमा तो पहले ही था मैं, आँख तले अंधेरा छाया,
सुनते ही दारू की ध्वनि को, मैं तो राम - राम चिल्लाया।

बप्पा! अब तो मुझको माफ करो, थोड़ा तो इंसाफ करो,
इस टूटी काया को देख, तुम तरस-तरस कर त्रास हरो।
चमत्कार करो कुछ ऐसा देव, भक्ति भाव फिर पावन हो,
भटके हुए शूरवीरों की, अंधी भक्ति भी मनभावन हो।
...“निश्छल”

19 April 2018

ऐश्वर्य


ऐश्वर्य
✒️
काव्य सृजन कर रहा इतमीनान से बैठ।
अन्दर से आवाज आयी परिणीता की एक।।

क्या करोगे लिखकर अपनी कचरा पोथी को?
जाया करते वक्त बैठ मेरे माथे की ड्योढ़ी पर।।

छोड़ो, गुस्सा त्याग करो, मेरी बातें चुपचाप सुनो।
भूलो व्यर्थ के तर्कों को, सद्विचार का साथ चुनो।।
हम रहें धरा पर जब तक, गुणगान भी गाये जायेंगे।
क्या अपने पूर्णगमन के वे, पश्चात सुनाये जायेंगे?।
गौर करो प्रिय महिमा, दुनिया - दुनियादारी का।
नाम हमारे जाने के, दो दशक में भूले जायेंगे।।

जब कागज़ के टुकड़े ये, रद्दी में फेंके जायेंगे।
याद तुम्हें करने क्या तब, यमदूत यहाँ पर आयेंगे?।

काव्य सुनो ऐ सुकुमारी, बातों को अल्पविराम तो दो।
भ़ाव रसों में डूब जरा, छिपा मर्म अब जान तो लो।।
कठपुतली सी कविता मेरी, सृजित अगर हो जायेगी।
रोचक अभी नहीं तो क्या, कभी काम तो आयेगी।।
जब होंगे नहीं हम और तुम, ये दुनिया और हसीन हो जायेगी।
चंद्रयान के डैनों से, तब कोयल कूक सुनायेगी।
पर…
क्रीड़ास्थल नहीं होंगे, पारी भी एक ही आयेगी।
काँच उपकरण देख - देख, आँखें चौंधिया जायेंगीं।।
वृक्ष न होंगे धरणी पर, संतप्त न काबिल जन होंगे।
प्राणवायु की ख़ैर नहीं, शालाओं में उत्पन्न होंगे।।
पानी, अमृत ज़ीवन का, अति कुरूप हो जायेगा।
लीटर एक हजारों का, मात्र धनाढ्य ही पायेगा।।
कुपित सूर्य के ताप तले, भूलोक द्गध हो जायेगा।।
रेगिस्तानी रेत, जब उब़ाल पर आयेगी।
मरुभूमि चीरकर कागज़ के, ये टुकड़े बाहर आयेंगे।।
श्रवण करो हे प्राणप्रिये…
काव्य मग्न इन पन्नों को, इक प्यासा बालक तह कर लेगा।
तपित घाम में बैठ शैल पर, सम्मुख नयन इन्हें कर लेगा।।
अक्षर - बूँद, शब्द - जलधारा, में तब परिणत होंगे।
नयनद्वार से हो प्रविष्ट फिर, तृषित कंठ को तर देंगे।।
उस अवसर हम प्रियतम, संभवतः यमलोक में होंगे।
मानस में उद्भावित भाव, किस ऐश्वर्य से कम होंगे।।
...“निश्छल”

17 April 2018

मैं एक पुतला हूँ मिट्टी का

मैं एक पुतला हूँ मिट्टी का
✒️
मैं एक पुतला हूँ मिट्टी का, तुम निर्मल निर्झर धारा हो
मैं मयकश काली रातों का, तुम ही मेरी मधुशाला हो

मैं उस धार में घुलता हूँ, जिस धार में तुम मुस्काती हो
वो धार बैठ, कागज़ पर अब, चली है पतवारें खेते
पतवार तूलिका मेरी, तुम-हम मिलें अमर उजाला हो
मैं एक पुतला हूँ मिट्टी का, तुम निर्मल निर्झर धारा हो।

हम-तुम शोभित हैं केतन में, सुधि कोई आकर लेता है
जलमय हृदय, उन्मुक्त कथन में, सिर्फ तुम्ही सुरबाला हो
मैं कतरे-कतरे चुन-चुनकर, सजाता रहा हूँ गीतों को
मैं एक पुतला हूँ मिट्टी का, तुम निर्मल निर्झर धारा हो।

जड़ चेतन के स्वभावों में, व्यवहार पिरोती हो तुम ही
तीन लोक के, माया भँवर में, तुम ही खेवनहारा हो
भटकी तरणी के मेरे, तिरपाल सँभालो अब तुम ही
मैं एक पुतला हूँ मिट्टी का, तुम निर्मल निर्झर धारा हो।

मानव के तर्क-वितर्क सभी, जमघट करें निज पापों का
साँसों को रोक, उस तम में, यादों की उत्तम हाला हो
तुम मेरी क्षुब्ध किताबों के, पन्नों में बसती हो, निशि वासर
मैं एक पुतला हूँ मिट्टी का, तुम निर्मल निर्झर धारा हो।

जो दहक रहे हैं पथिक मनः, सूरज के अग्नि प्रहारों से
मन को शीतल कर, मनःप्रणीत, सरगम की एक निवाला हो
मनसरस पनप कर भावों की, तुम एक अनोखी प्याला हो
मैं एक पुतला हूँ मिट्टी का, तुम निर्मल निर्झर धारा हो।

ओ सुरबाला युक्ति कहो कुछ, साँस थामकर बैठे हैं हम
रचित करो कुछ ऐसी लीला, जो, इस जगत को न्यारा हो
मन उपवन में विचरण करके, संध्या प्रात भ्रमण करती हो
मैं एक पुतला हूँ मिट्टी का, तुम निर्मल निर्झर धारा हो।

गीतों में एक ताल सजाओ, सुरों के जयमाल चढ़ाओ
सुर-संस्कृति के अमर प्रेम में, स्नेहिल जगत हमारा हो
सुर का गीत-गीत का सुर में, अंतर्मन की ज्वाला हो
मैं एक पुतला हूँ मिट्टी का, तुम निर्मल निर्झर धारा हो।

ऐ कविता मेरी, किस दिन, उपकार करेगी मूढ़ चित्त पर
जँचती तुम ही प्रेम भाव से, बैठ मेरी दिलदारा हो
जग जंजालों से दूर कहीं, शुभ-मिलन कभी हमारा हो
मैं एक पुतला हूँ मिट्टी का, तुम निर्मल निर्झर धारा हो।
...“निश्छल”

पेड़ की व्यथा

पेड़ की व्यथा
✒️
बहुत समीक्षा की है तुमने
अशक्त मेरे अरमानों की;
क्या चाह नहीं मुझमें, जीवन
जीने अपने सम्मानों की?
कहकर इतना जब बिलख पड़ा,
भीमकाय वृक्ष वह कायर सा;
रो-सिसक पड़ा उपवन सारा,
किंचित प्रभुता से घायल सा।

क्यों रब ने पैर डुबो डाले,
मिट्टी के निर्दय सागर में?
ना बैठ सकूँ ना चल दूँ मैं,
हूँ थका विपिन के आँगन में।
वृथा नहीं जो, कर दूँ मैं कुछ
उपकार सजीवों का झुक कर;
खग-जीवों की पुलकित साँसें,
संचारित हों काया हितकर।
पर, जब करता है मन मेरा,
उड़ूँ फुदक कर विहग सरीखा;
असहाय दृगों से लुढ़क गिरें,
बूँद सघन में हीर सरीखा।
मदमाती सी सुरभि बहे जब,
विचरणरत सोचूँ मृग जैसा;
कहो विभो क्यों दे दी आख़िर,
जीवन मुझे, अचेतन ऐसा?

ऋतुराज बदल परिधानों को
दरवाज़े मेरे आता है;
अंक भरे मुझको प्रिय जैसा,
वह पुलक-पुलक इतराता है।
जी करता मेरा भी, झुककर
तब उसको अंग लगाऊँ मैं;
शाखें अपनी मोड़ भुजा सी,
अपने उर उसे लगाऊँ मैं।
पर, रब! क्या तुमने दिया हाथ?
बोलो, मुझको बैसाखी दी
या दे दे मुझको सर आँखें,
या ले ले रब ये साँसें भी।
...“निश्छल”

किलकारी

किलकारी
✒️
चलता जा रहा हूँ मैं, देख, तुम भी चलते जाते हो,
चंदा मुझमें ढूँढ रहे या, क्यों मुझपर ललचाते हो;
कदम बढ़ाऊँ धीरे-धीरे, चुपके से बढ़ जाते हो,
तेज चलूँ, झट वेग बढ़ा कर, तुम दूने हो जाते हो।
परछाईं मेरी क्या तुझसे, लुकाछिपी खेल रही है,
मेरे पग लिपटा यह क्यों, औंधे सरसर रेंग रही है;
भेद बताते नहीं कभी तुम, देख मुझे मुस्काते हो,
बोलो चंदा राजदुलारे,क्यों मुझको भरमाते हो?

लालटेन हाथों में पकड़े, एक-एक कदम बढ़ाता हूँ,
प्राप्ति साध हेतु रातभर, ऊँघता चलता जाता हूँ;
सुन बालक ओ सुन ललचाते, तुझको आज बताता हूँ,
अपने मन की तुझको सारी, बात सुनाने आता हूँ।
बीच राह में खेल रही जो, चंचल लड़की कंकड़ से,
पास खड़ी माँ बोझे ढोती, क्रूर धूप में जल-जल के;
पिता, शूल लिए हैं उर में, निज कर्तव्यों के पालन का,
खुशियाँ जोड़ रहे दिनभर, धनिकों के पाँव, उपानह का।

साँझ ढले जब चुप हो जातीं, नदियाँ, तारे उग आते,
रात चढ़े बैठ माँद में, शेर-शेरनी लोरी गाते;
लेट नीम अँधेर में, कुदरत सोती उसके सिरहाने,
मैं लिए उजाला हाथ में,जाता हूँ किलकारी पाने।
जंगल, सर, भूधर, सागर, समभाव गुजरता जाता हूँ,
हृदय पिटारे में भरकर, किलकारी घर ले आता हूँ;
पथिक-रूप साथी तेरे, सान्निध्य तले विचरता हूँ,
शांत मनोभावों में पलती, जिज्ञासा से चलता हूँ।
...“निश्छल”

13 April 2018

दूसरा कर्ज़

दूसरा कर्ज़
✒️
मेरी मज़ार पर, मत लाना अनमोल आँसू अपने;
या ख़ुदा! जिंदा गर हो गया, तो मुआफ न कर पाऊँगा।
दूर ही रहना, मेरी नाकाबिल साँसों से यारों;
वरना, गले लगाने को उठकर बैठ जाऊँगा।
शरीयत न पढ़ना, मुफ़लिस मेरे आगे
इबारतें तेरे संग दुहराऊँगा,
सुकून से सोने दे मुझको मसीहा
शहीद कहलाने की हैसियत, दुबारा कहाँ पाऊँगा?
साँसें मेरी, हर कतरा लहू का
मुझे चीखकर, है कीमत बताता,
ये टोटके रहने दो दुनिया वालों
मेरा ख़ुदा अब मुझे है बुलाता।
वक्त है कर्ज़ चुकाने को माटी का
साँसों को वतन के नाम करता हूँ,
फेंक देना लाश को अहल-ए-वतन ऐ
चंद लम्हें वतन के नाम करता हूँ।
जानाँ मेरी, अश्कों को समेटो,
वरना मैं शीशा, टूट बिखर जाऊँगा;
जीते जी न, कुछ कर सका वतन ओ,
ऐ सनम दूसरा कर्ज़ कैसे चुका पाऊँगा?
...“निश्छल”

मैं अपना जीवन, दान कर रहा हूँ

मैं अपना जीवन, दान कर रहा हूँ

✒️
मैं अपना जीवन, दान कर रहा हूँ
चाहने वालों ले लो,
कीमत चुकाने वालों दूर रहो,
सर अपने यह इल्ज़ाम ले रहा हूँ।
पाने वाले आगे आएँ,
सर उठाकर माँगें
तहेदिल से यह ऐलान कर रहा हूँ,
मैं अपना जीवन, दान कर रहा हूँ।

अब, न जीना है मुझको
न जीवन से नाता,
फूँक प्राणों को अपने,
गुमान भर रहा हूँ,
सवालों में कोई न घेरे अब मुझको
जीवन का घर मैं, प्रदान कर रहा हूँ,
मैं अपना जीवन, दान कर रहा हूँ।

तौबा न कहे खुशियों को कोई
न गमों को ही कोई इल्ज़ाम दे,
राह अपने मुकद्दर चला सोचकर,
मनुज सलीकों को, बदनाम कर रहा हूँ
मैं अपना जीवन, दान कर रहा हूँ।

बोझ काया का, सिर पर किसी के नहीं,
चील, गिद्धों के ही अब नाम कर रहा हूँ।
जल रही है उर में लौ, बेझलक
भरी सभा में, सज्जनों के नाम कर रहा हूँ
आइए, सुनिए, थामिए,
मैं अपना जीवन, दान कर रहा हूँ।

चुलबुली सोच को अपनी,
कफन में बाँधकर कर मैं,
दुनियावालों तुम्हें उपहार कर रहा हूँ।
ओझल हो रहा हूँ
डुबते सूरज के संग मैं,
लाओ हाथ, दिल के तह से
बेबाक कह रहा हूँ,
प्राण मुट्ठी में भरकर समर्पित तुम्हें,
आओ तुम्हारे ही नाम कर रहा हूँ,
मैं अपना जीवन, दान कर रहा हूँ।
...“निश्छल”

12 April 2018

मानुष की ज़िंदगानी

मानुष की ज़िंदगानी
✒️
गेहूँ का हरा पत्ता,
पत्ते के नोक पर
बैठा तुहिन कण,
अँगड़ाइयाँ ले रहा है।
विलासिता की सीमाओं को
पार करती चमक,
आँखों में जीवन को दर्शाती है...
इठलाता,
हलकता, हलकाता आसीन है;
मन में गुमान भी,
वह मृत्यु से निडर है।
पर यह क्या...?
पत्ती थरथराई,
या जाने पौधे ने साँसें छोड़ीं...
हवा का नन्हा झोंका,
भागा जरूर था मदद को,
पर...,
उससे पहले ही जमीं ने अपने अंक में समेटे।
जो अहं था परिलक्षित,
पल में जमींदोज हो गया।
काया, अब अदृश्य...।
यही है ज़िंदगानी, मानुष की
तथापि, स्वार्थ में डूबा, मर न पाता,
और परमार्थ के लिए जिया न जाता।
...“निश्छल”

11 April 2018

ख़्वाबों के वादे

ख़्वाबों के वादे
✒️

तुम हो, मैं हूँ, नीर अँगन है, हाथों में फिर हाथ धरेंगे,
बैठ किनारे सरित सेतु पर, नीर रूप में ख़्वाब बहेंगे;
जीवन सतरंगी होगा फिर, मधुर स्वप्न परिधान बनेंगे,
टिमटिम तारों की रेखायें, अँगना में आज़ाद फिरेंगे।
होगा सबकुछ अपना सा ही, हाथों में महताब भरेंगे,
तेरी अलकराशि उपवन में, हम दोनों परिहास करेंगे;
नदिया के जल जैसा सीधा, सादा होगा अपना जीवन,
परछाईं को देख नीर में, भविल स्वयं आभास करेंगे।

पर ठहरा सब दिवास्वप्न सा, नहीं दीखती छाया तेरी;
ऐसे करतब समय दिखाया, कैसे ना अहसास करेंगे?
थका युगों से जैसे जीवन, ढूँढ रहा है राहें तेरी;
रोटी पाने की तदबीरें, हमको ना आबाद करेंगे।
ना चाहा था ऐसा जीवन, ना सोचा था तुमसे दूरी;
वतन शुश्रूषा के वादे ये, जाने कैसा दाब करेंगे;
सौं, तेरी सूरत की साखी, वचन बद्ध हो सद्भावों से;
यकीं करो ऐ जानाँ लेकिन, तुमको ना बरबाद करेंगे।

नदी किनारे बैठ सेतु पर, अब भी तुमको याद करेंगे...
नहीं साथ तुम मेरे साथी, रब से ना फ़रियाद करेंगे;
जीवन के इस छिछले सर में, गर एक बूँद पानी हो, न हो,
दरिया में भी डूब, जतन कर, बरबस तुमको याद करेंगे।
...“निश्छल”

09 April 2018

मैं कविता बनाता हूँ

✒️
मैं कविता बनाता हूँ,
लिखता नहीं सजाता हूँ;
भावों से, विचारों से
सद्बुद्धि से;
निर्मोही हो अलगाता हूँ।
ख़ुद से जुदा कर,
स्वयं पर इठलाता हूँ;
मैं कविता, बनाता हूँ।

एक, कविता में झोंक,
अपनी सारी मनोवृत्तियाँ,
सारी सामर्थ्य समर्पित कर,
दुखी इस बात से कि,
अब कविता कैसे बनाऊँगा?
किसी नज़्म को कैसे जिलाऊँगा?
त्रस्त, बेकार,
रुख़सत होती मेरी साँसें
बस थमने को ही होती हैं;
कि,
एक नई कृति का प्रादुर्भाव होता है।

एक नई साँस, नूतन जज़्बात
नवोदित शब्द कोंपलें,
मेरे मन पुष्प के पंखुड़ियाँँ को,
हल्के से हलकाती हैं,
और एक नवोद्भावित कविता बन जाती है।
...“निश्छल”

08 April 2018

निरुत्तर हैं मेरे, ज़ख़्मों के काँटे

✒️
निरुत्तर हैं मेरे, ज़ख़्मों के काँटे,
चोट देकर मेरे हृदय को,
नाहक, हँसते हैं अभागे
इठलाते,
कर्कश सी ध्वनियों को
डकार-डकार खाते,
चिपटा है मुख, पर
तनिक न लजाते।

बस इतना ही पूछा मैं,
अरे ओ काँटे!
क्या काटा हृदय को,
हँसते हँसाते?
जो
लिए जा रहा यह,
देख तुझको ठहाके,
निरुत्तर हैं मेरे, ज़ख़्मों के काँटे।
...“निश्छल”

काली छवि

✒️
चूम रही हैं नेत्र जगत के, रजत रश्मियाँ आकर,
तिरता उड़ता फिरता चंदा, छिपे कभी उकताकर।
शांत जग के नेत्र झुके से, स्निग्ध वायु के झोंके,
आहट सी आती परिपथ से, बरबस मुझको रोके।
कौन रूप धरे चंदा ऽ रे, चित्त वन आग लगाए,
काहे तोरे रंग निहार के, कमलिनी कुम्हलाए।
श्वेत वसन, दीपित ललाट पर, रोली टीके लगाए,
क्यों चंदा काली छवि को तू, उर में है लिए बसाए?
स्पर्श मात्र से ऊष्ण समीर, शीतल होता तेरे,
शीतल मंद सुरभित बयार, संध्या और सवेरे।
आते-जाते दालानों से, गीत सुनाती जाती,
परम मनोरम रूप सदा, हमको दर्शाती जाती।
आकर्षक हरपल ये भाव, अभाव छिपाता कैसा,
चाँदी की मूरत में बैठे, वन बिलाव के जैसा।
कहो चाँद किस भाँति बसे हो, दुःख सरिता में जाकर,
रंध्र, बड़ा क्या डोंगी में, है रखे तुम्हें डराकर।
अकुलाहट की बैन, गरल से, कठिन रही है जग में;
एकमेव प्रहरी जगत के, तुम जाग रहे उलझन में।

मीत मेरे अंर्तमन के, देख तुम्हें विलसाऊँ,
दुःख की कातर महासरित में, कहे डूब खो जाऊँ।
तू बालक स्वच्छंद गगन में, बातें मुझसे करता,
समाधान ही नहीं, मन के क्लेश-क्लांति को हरता।
तू ही है सत-असत विश्व में, सार्वभौम समाये,
मेरे जीवन रूपी वृक्ष में, फूले और फुलाये।
कह दूँ तुझसे बात हृदय का, जय हो सद्भावों का,
क्लांति मुक्त मेरा जीवन, विदा हो दुर्भावों का।
और निरुत्तर हों सारे जो, रंज-द्वेष के फेरे,
सम्मति, मेरी चंचलता को, सुमति मार्ग पर फेरे।
ओ मेरे नादान मसीहा, सुख़न अधीर मनों के,
चलता रहे सृजन सृष्टि का, किसके कहे है रोके।
धरनी है आवास युगों से, ऋजु मनोवृत्तियों का,
पाहन शीश झुका, पाते, आशीष सभी जन्मों का।
नादानी कर, मनुज सहज ही, डींग हाँकता रहता,
कितने उपक्रम और प्रलोभन, बीच पालता रहता।
साक्ष्य है स्पष्ट निशा, सहचार निशाटों की टोली,
दीर्घकालिक पाप, लगाता है रातों में बोली।
धरती पर आकर कुछ दिन, मानव के संग बिताऊँ,
सुधा सरित की अमरबेल में, डूब-डूब उतराऊँ।
भविल विश्व देख मगर, हृदय अधीर हुआ जाता है,
जीवों का नायक, धरा को, किस ओर लिए जाता है।
सुगम नहीं इष्ट मनोमय, कठिन कुटिल इस दुनिया में,
मीत सजल हैं, नैन हमारे, लौकिक इस दुविधा में।
...“निश्छल”

07 April 2018

मेरी पहचान

मेरी पहचान
✒️
मत कहो मुझे कवि कोई अब, मैं आत्मसमर्पण करता हूँ;
भावों को मुट्ठी में भरकर, सीने में अपने रखता हूँ।
जीवित मेरे ज़ज़्बातों को, मत छेड़ो तुम कह जाने दो;
कंपित अधरों को ही अपनी, वेदना सभी बतलाने दो।
कलम नहीं है अरमानों की, यह मसि निजी एक सवारी है;
कुछ बैठ कभी कुछ लटक पड़े, यह इनकी साझेदारी है।
हैं चर्म रूप विभव क्या सक्षम, अपनी इस जिम्मेदारी में;
कहने से लिपट रही जिह्वा, नूतन कृति की ख़ुशहाली में।
मैं हूँ जीव तुच्छ सा कविता, ही है मेरी संसार सभी;
क्या बन पाऊँगा मैं कवि भी, ना मिले हाथ उपहार कभी।
आह्लाद कवि के मिलकर जब, कुछ स्वर बोझिल बन जाते हैं;
नतन शीश के पोरों से कुछ, पृथु शब्द मही गिर जाते हैं।
अमी, हवा, धरती, चंदन, विष, ये सब हैं अरमानों से ही;
निकट न हो दावानल फिर क्या, नर सीस झुका कबहूँ  सुरभी?

मेरे जिस्मानी कोटर में, एक दिन सुआ कहीं से आया;
राम नाम धन राम-राम कह, बड़ा बेसुरा उसने गाया।
गाता रहा सुआ निशि-दिन भी, हरि प्रेरित माया उपजाया;
अभ्यास करे जुगत जोर कर, सुग्गा राम रतन धन पाया।
कुछ मासूम परिंदे वन में, हँसते-गाते घूम रहे थे;
पड़ी कान में शुक वाणी तब, लालायित हो झूम रहे थे।
मान लिया उन सब ने मुझको, कवि बड़े किंचित पहचान की;
पर खोटी सी बुद्धी मेरी, गुण कभी ना समझे राम की।
ये मेरी पहचान बशिंदे, ये अबुझ मेरे अरमान हैं;
चरण गहूँ जो कह दे आकर, बस वही मेरे श्री राम हैं।
मति का मूढ़ इस क्षुद्र हृदय का, मैं इक अभिलाषी प्राणी हूँ;
मत कहो मुझे कवि कोई अब, मैं तो परमारथवादी हूँ।
...“निश्छल”

06 April 2018

बादल-१ (वृद्ध मनःस्थिति)


✒️
चाँद बूढ़ा हुए जा रहा था…
नन्हे से बादल ने छेड़ा,
चिढ़ाया,
चुपचाप सबकुछ सुने जा रहा था
बादल समूचे बल से जो कौंधा
चाँद, मद्धिम सा थोड़ा हुए जा रहा था।
नन्हा बादल गुजरता गया हद से
चाँद उठकर दिगम्बर हुए जा रहा था।

मस्त दामन से लिपटे…
सुगन्धित हवा के
बादल,
घर को अपने चला जा रहा था।
नींद न आई रात भर चाँद को,
ऊष्ण सूरज की किरणें पिये जा रहा था।
याद बीते दिनों को बरबस किये,
हँसकर कभी फिर तड़प जा रहा था।

प्रहर चार बीती…
नन्हा बादल था नींद के आगोश में
चाँद, चाँदी की बूँदें टपका रहा था
किसी ने न देखा
मंजर था ऐसा,
चाँद, बादल को सपनों में बहला रहा था।।

सौम्य ऊषा की किरणें…
कोमल बदन से,
आँखों में सारी लिये जा रहा था
बेजान, कर्कश  हाथों से अपने
चाँद, हौले से बादल को सहला रहा था।।
...“निश्छल”

05 April 2018

चंद-वृत्तांत

चंद-वृत्तांत
✒️
ठिनककर चाँद से पूछा, कहो अब हाल निज मन के,
सदायें दे रहीं दिशि भी, रमे हो भाल तम घन के;
सुखी तुम हो विभो गर भी, यही अनुराग चिति से है,
वजह तकरार की कह दो, निशा से चाँद कैसे है?
ज़हन में झाँककर चंदा, कहा कंपित हृदय तल से,
वयस है बीतती हर क्षण, किरण की साध नति गति से;
मयस्सर है मुझे अपनी, अबाधित कर्म की रेखा,
बहाता नीर निशि-निशि भर, कहो किसने कभी देखा?
हृदय में शूल भरकर जो, निरा परिहास करता है,
अकिंचन भी मुझे आँखें, दिखा सौ बार हँसता है;
गज़ब की मूढ़ मति मेरी, खुशी में आह भरती है,
प्रथम सूरज किरण ही जग, सदा द्युतिमान करती है।
यही कहते जमाने की, सदा जब आँख खुलती है,
तमक मेरे मनः तीखी, सुनो परिताप उठती है;
कभी क्या तुम कहो मन से, मुझे भी याद करते हो,
हरो मन में भरी बाधा, कि तुम फ़रियाद करते हो।

गगन में घूमते चलते, सफ़र की साख लिखते हो,
किरण रवि की भले ही हो, शशे निज भाथ रखते हो;
जलाकर श्वेत से उपले, जहाँ में चाँदनी वर्षण,
जगाते हो शशे जग में, सुधा अवलेह संकर्षण।
धरा के नीड़ में मनु जब, कभी कटुवाद बोते हैं,
तृषित कर जीव-मीनों को, हरित तरु काट खोते हैं;
धुनों में त्राण भरकर तुम, शशे संत्रास हरते हो,
शरद सी शीत का जग में, सदा अहसास भरते हो।
नहीं तुमसे दिवस आशा, तदपि ख़ूबी जहाँ में है,
अकेले शीत करते हो, थके उर जो सभी में हैं;
बसे हो रात के घर में, सदा निर्मल रतन छाया,
यशस्वी हो शशे तुम ही, सितारों ने त्रिगुण गाया।
वृथा जग में नहीं चंदा, भलाई रीति है तेरी,
युगों तक प्रीति बढ़ती हो, यही अपनत्व है मेरी;
सुधा से जोड़कर मन को, क्षुधित परिताप हरते हो,
स्वयं ही तुम शशे जीवन, मरुत अभिशाप हरते हो।
...“निश्छल”

चाँद, तू गैर है

चाँद, तू गैर है
✒️
चाँद, तू गैर है, जानता हूँ...
दिल के ख़्वाबों को सीने में पालता हूँ।
एक नज़र तो देखेगा मुझको,
तमाम उम्र इस जद्दोजेहद में काटता हूँ।
चाँद, तू गैर है, ये जानता हूँ...।

चाहत नहीं है पास आने को तेरे,
चाहत नहीं पा जाने को तुझको,
इक आस में ज़िंदगी गुज़ारता हूँ,
कभी हँस कर, बिहँस कर,
खिलखिलाते हुए,
मुस्कुरा कर एक नजर तो देखेगा मुझको,
चाँद, तू गैर है, ये जानता हूँ...।

इन आँखों की बातें याद कर-कर के
जहन्नुम में मिटने को जानता हूँ,
चाँद, बस एक नज़र ही तो माँगता हूँ।
मासूमियत भरी कपोलों की नरमी,
ज़रीफ़ों की ख़ातिरन ताकता हूँ।
ख़ता बस यही है...,
गर जुर्म है ये,
तो लाज़िमी है,
ख़तावार बन तुझको पुकारता हूँ
चाँद, तू गैर है, ये जानता हूँ...।

तुझे देखकर, आहत होता हूँ मैं,
फिर भी तमन्नाएँ साज़ता हूँ,
ये, रास आती नहीं, ज़माने को,
माँग ऐसी मैं, क्यूँ माँगता हूँ?
रुसवाई में पल-पल तड़पता हुआ,
रात, तारों को गिन-गिन काटता हूँ,
चाँद, तू गैर है, ये जानता हूँ...।
दिल के ख़्वाबों को सीने में पालता हूँ।
...“निश्छल”

02 April 2018

चैत्र का मान

चैत्र का मान
✒️
चैत्र मास से पूछा खग ने,
मीत कहाँ से तुम आये हो;
मग में अपनी नूतनता नित,
स्वर्णिम आभा बिखराये हो?
या रवि की किरणें अब करतीं,
पीछा तेरा ही निशि-वासर;
चंदा, साथ सितारे लेकर,
रिमझिम गीत गा रहा अंबर?
सरल मेघ सद्भावित होकर,
निमिष मात्र में ओझल होता;
और माह की तरह नहीं यह,
चैत्र माह में बूँदें ढोता।
दे रहीं हैं, इस सादगी की,
नित, नव मिसाल सारी दिशाएँ;
कलरव करते, खगजन उड़ते,
अनुगूँजित दिक दसों विधाएँ।
स्वभाव तेरा चंचल सा ना,
नहीं गूढ़ है यह गहराई;
सतत रहे हो निश्छल मूरत,
मीत कहो यह भाँति ढिठाई।
...“निश्छल”

01 April 2018

प्रहरी, संवेदनहीन होता है

प्रहरी, संवेदनहीन होता है
✒️
परिधि में प्रविष्ट होते ही गुंजायमान,
चंट बादल की चपलता में पाशबद्ध,
अमेय निश्छलता संदीप्त,
स्वयंभू आदित्य समझता है,
ऊर्ध्वगामी, वृहत नेत्रों से कांति बिखेरता,
संशयवश, स्वयं ही दीप्तिमान बन जाता है।

अज्ञात स्पर्श से अनजान
चाँद, कर्तव्य निभाते
टिमटिमाती आहट में उलझा,
नादान सा, कभी बगलें झाँकता
तो दिवसावसान से प्रफुल्लित
कभी पारद सा हलकता,
शीघ्रता में प्रतीत होता,
लहराती-बलखाती
कल-कल सी किलकाती,
नदियों पर डोरा डोरे डालता
पार्श्ववर्ती की भाँति अनुकरण करता है।

चाँदनी की निरंतर झरती झड़ी,
ऊर्ध्वरेता प्रतिहार के प्रति
स्वकीया की मुग्धता का अंतर्बोध कराती है।
रात्रि के निर्जन पथ पर
अंतर्द्वंद्व के तुमुलनाद की वृष्टि करता,
अजेय जग को अपनत्व की
दूधिया से स्नान कराता रहता है।

‘प्रहरी, संवेदनहीन होता है’,
तथापि, मर्मज्ञ, अनुभूतियों के लिबास पहन रखा है।
जग के कौतुक, कौतूहल को उकसाते हैं,
संतरी, अमित निगाहों से शून्य सी सृष्टि
की कहानी बाँच रहा है।
...“निश्छल”

निशा से...

निशा से...
✒️
अलि, व्यापित संसार, निशा,
तेरे गलियारे में चलता,
टिकटिक धड़धड़ टिकटिक धड़धड़
पदचाप नापता रहता,
आवाज मौन जब हो जाती है,
छा जाता आँचल तेरा,
चंद किरण, आकर आँगन में
आभासित तब करें सवेरा।
नृत्य करें, घन गीत सुनाएँ
दरवाजे पर ऐसे,
मधुरिम मिसरी घुलती जाए
जन कोलाहल में जैसे।
मर्यादा तेरी भाती, मन
में सुखदायी, ऐसे
घोर वृष्टि में चील उड़े
घनघोर घटा में जैसे।
खरी-खरी ये बात,
सादगी में घर करके बैठी,
तेरे चरण निहार निशा,
रजनीगंधा फूले बैठी।
उम्मीदें, सम्मानित होतीं
रुख़ करता है विहान,
सुधागेह की चंचलता,
अति सींच रखे जहान।
...“निश्छल”