कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

17 December 2019

यह विनाश की लीला

यह विनाश की लीला
✒️
क्या, मज़हब में डूब चुके हो?
या, रवि हर पल तुम्हें सताता?
या तारक, स्वच्छंद गगन में
जीवन अपना स्वतः बिताता?

शीतलता से भ्रांति बाँटते,
हे रजनीकर! बोध गहो तुम
मज़हब रूपी दीवारें ये, मानवता की फाँस बनेंगीं।
मेरा ही घर नहीं, तुम्हारे, अपनों का भी ग्रास करेंगीं।।

प्रकट हुआ हर जीव धरा पर
हाँ! स्वयंसिद्ध उपभोगी है,
खग-मृग, दाव, गगन, गिरि, सरिता
ये सब के सब उपयोगी हैं।

सभी जीव की प्रथम जरूरत
स्वतंत्रता प्यारी तारों को
पराधीनता की वाणी यह, अपनों में संत्रास भरेगी।
मेरा ही घर नहीं, तुम्हारे, अपनों का भी ग्रास करेगी।।

घोर रुष्टता की यह प्रहरें
जिनमें अहि सा झूल रहे हो,
क्या अपने कर्तव्य वहन को
मानव के सम भूल गये हो?

सत्कर्मों से उदासीनता
अकर्मण्य कर देगी, चंदा!
यह विनाश की लीला, नभ का, धरा संग में नाश करेगी।
मेरा ही घर नहीं, तुम्हारे, अपनों का भी ग्रास करेगी।।
...“निश्छल”

14 December 2019

तारों का आगार

तारों का आगार
✒️
पतली पगडंडी से होकर, झुरमुट के उस पार।
थोड़ा आगे, पार क्षितिज के, तारों का आगार।।

कहीं हम बैठ किनारे पर रच लेंगे
नन्हा-प्यारा गीत,
नीतियाँ, जो भी कहती इस दुनिया की
हमको क्या है मीत?
कि हमको जाना है पैदल ही चलकर, पगडंडी के पार।
बहारें बिछी मिलेंगीं, उन राहों पर, तारों का आगार।।

मगन हो अपनी धुन में बात करेंगे
हो-होकर लवलीन,
मधुर संगीतों के गुंजन श्रुतियों में
कर देंगे तल्लीन।
सुनाई देगी भौंरों के गुंजन की, भीनी सी झंकार।
सुरों में गात झूमते होंगे, ऊपर, तारों का आगार।।

मशीनीकृत जीवन में शांति ढूँढने
सरिताओं के कूल,
वनस्पति से लिपटाते मिल जाएँगे
वे बरसाती फूल।
सभी सांसारिक बंधन का कर देंगे, स्वेच्छा से परिहार।
बनायेंगे अपनी दुनिया, जिसमें हो, तारों का आगार
...“निश्छल”

13 December 2019

बहिष्कृत

बहिष्कृत
✒️
आज, जंगल से बहिष्कृत, हो गए हैं रीछ सारे
दुश्मनी, वनराज को थी, शक्तिशाली हाथियों से।

दो दिनों से गीदड़ों ने, माँद, छोड़ी भी नहीं थी।
वनबिलावों के घरों में, एक कौड़ी भी नहीं थी।।
बिलबिलाते चेहरों पर, थी मगर यह बात अंकित।
भंग है इंसानियत की, साख कुछ ही जातियों से।।
दुश्मनी, वनराज को थी...

वे, सरल, सुकुमार थे जो, शाक था आहार जिनका।
निश्चयी अब हो चुके हैं, भक्ष्य होगा घास-तिनका।।
किंतु, यह आरोप तय था, कुंजरों के शाह के सिर।
है बड़ा जोखिम यहाँ पर, शांति के कुछ साथियों से।।
दुश्मनी, वनराज को थी...

छद्म उत्पातों भरा जग, छल, छली से हार जाता।
जो यहाँ सद्भाव रखता, जीवनीभर मात खाता।।
उष्ट्र, निज पुरुषार्थ के बल, हो गया बंधक सदा को।
तेंदुओं के शीश मिलते, सिंधु वाली घाटियों से।।
दुश्मनी, वनराज को थी...

आँसुओं से तरबतर थे, पादपों के पात सारे।
लौट आएँगे पुराने, इन दरख़्तों के सहारे।।
जंगलों के छोर तक यह, इक मुनादी हो गयी थी।
स्वस्थ रखना है चमन को, क्रूर-घातक घातियों से।।
दुश्मनी, वनराज को थी, शक्तिशाली हाथियों से।।
...“निश्छल”

06 December 2019

जिन राहों पर चला नहीं मैं

जिन राहों पर चला नहीं मैं
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जिन राहों पर चला नहीं मैं, उनके काँटों से क्या लेना?
अपनी चिह्नित डगर, आदि से, शूलों से आबाद रही है।।

व्यथित हृदय की कठिन वेदना
कर में थाम रखा कल्पों से,
अपनों का सहयोग मिलेगा
रहा प्रताड़ित इन गल्पों से।
आँखें भी अपने गह्वर में, क्लिष्ट वेदना को भर-भरकर
प्रलयकाल की जलसमाधि में, जन्मों से बर्बाद रही हैं।।

मौसम के करवट लेते ही
काँटों में मधु-बेर लगेंगे,
पाषाणों को खानेवाले
नरम, रसीले ढेर चुगेंगे।
मगर बबूलों की घाटी में, ऐसा भविल दिखाया रब ने
सुनियोजित किस्मत में अपनी, कंटक की तादाद रही है।

कबतक याद रखे यह कोई,
कबतक कोई आस बनाये?
झंझावातों में उठ-उठकर
मलयानिल को नाद लगाये।
रुँधे कंठ से कैसे निकले, कोमल वाणी आलापों की?
प्राण लूटने की प्रतिभा भी, लोगों की नायाब रही है।

नहीं अकर्मक तथ्य बढ़ाता
क्रमबद्ध, प्रलापित मुद्दों में
ढो-ढोकर थक जाता लाशें
जीवनगत सारे युद्धों में
सदा तराशूँ मधुर वेदना, साहित्य-सृजित उपकरणों से
मेरी गज़ल, गीत, कविताएँ, आहत की फ़रियाद रही हैं।
...“निश्छल”

05 December 2019

व्यवस्था

व्यवस्था
✒️
कुछ सितारे हैं कुपोषित, और कुछ लाचार से हैं
क्या गगन की यह व्यवस्था, न्याय का अपवाद है?

वह छिपाकर चार किरणें, रात में जगता अकेला
बाँटता है चाँदनी की, सृष्टि को अनमोल बेला;
खिलखिलाता रातभर यों, व्योम के आगोश में शशि
चंद्र की मुख-भंगिमा क्या, श्रांति का अवसाद है?

नापकर अपने वलय को, तेज को प्रतिपल बढ़ाता
ज्योति देता है जगत को, साथ में जलता-जलाता;
हैं प्रखरतम रूप रवि के, सांध्य, ऊषा या दिवस हो
क्या प्रकीर्णित तेज करना, मूढ़ता निर्बाध है?

छेंक लेता नभ-अयन को, रोकता है सूर्य आतप
गर्जना घन, घोर करता, वृष्टि करता है निरातप;
रूप अगणित हैं अनूठे, विश्व को गतिमान रखता
आर्द्र होना क्या भुवन में, अति घृणित अपराध है?
...“निश्छल”