यह विनाश की लीला
क्या, मज़हब में डूब चुके हो?
या, रवि हर पल तुम्हें सताता?
या तारक, स्वच्छंद गगन में
जीवन अपना स्वतः बिताता?
शीतलता से भ्रांति बाँटते,
हे रजनीकर! बोध गहो तुम
मज़हब रूपी दीवारें ये, मानवता की फाँस बनेंगीं।
मेरा ही घर नहीं, तुम्हारे, अपनों का भी ग्रास करेंगीं।।
प्रकट हुआ हर जीव धरा पर
हाँ! स्वयंसिद्ध उपभोगी है,
खग-मृग, दाव, गगन, गिरि, सरिता
ये सब के सब उपयोगी हैं।
सभी जीव की प्रथम जरूरत
स्वतंत्रता प्यारी तारों को
पराधीनता की वाणी यह, अपनों में संत्रास भरेगी।
मेरा ही घर नहीं, तुम्हारे, अपनों का भी ग्रास करेगी।।
घोर रुष्टता की यह प्रहरें
जिनमें अहि सा झूल रहे हो,
क्या अपने कर्तव्य वहन को
मानव के सम भूल गये हो?
सत्कर्मों से उदासीनता
अकर्मण्य कर देगी, चंदा!
यह विनाश की लीला, नभ का, धरा संग में नाश करेगी।
मेरा ही घर नहीं, तुम्हारे, अपनों का भी ग्रास करेगी।।