क्या कहूँ ऐ ज़िंदगी मैं?
✒️हारता, हालात से
अब क्या कहूँ ऐ ज़िंदगी मैं?
गर नहीं लायक तुम्हारे,
बोझ फिर क्यों ढो रही हो?
या मुकद्दर पर तरस खा
थक गयी हो, सो रही हो?
मन मसोसे हूँ युगों से, उम्र के इस, द्वार पर मैं
यह प्रतीक्षा कब ठहरकर, राह देगी चेतना को?
है नहीं दुर्भाव तुमसे, मैं कहाँ जीवित यहाँ हूँ?
दोष भी देता नहीं हूँ, उस बेचारी वेदना को।
मान मत जाना बुरा तुम, कुछ कसीदे पढ़ रहा हूँ
बात तबतक ही करूँगा, साँस जब तक ले रहा हूँ।
या मेरी मक्कारियों से, तिलमिलाकर रुष्ट हो तुम
या नहीं अस्तित्व से मेरे, बड़ी आक्रुष्ट हो तुम?
गर कथन यह सत्य है तो,
बोझ फिर क्यों ढो रही हो?
या मुकद्दर पर तरस खा
थक गयी हो, सो रही हो?
हारता, हालात से
अब क्या कहूँ ऐ ज़िंदगी मैं?
क्या कहूँ ऐ ज़िंदगी मैं...?
क्या कहूँ ऐ ज़िंदगी मैं?
...“निश्छल”