कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

25 March 2018

नाद में मंजीर के बहता रहा

नाद में मंजीर के बहता रहा
✒️
ऊँघकर, ज्यों बाग में थोड़ा भ्रमर,
स्वप्न की रसधार में तिरता रहा;
मंजरी की ख़ुश्बुओं में डूबकर,
नाद में मंजीर के बहता रहा।

फूल को डर था न काँटों से कभी,
राह तक - तक कर हँसा है जो अभी;
मोह ना बस क्रूरता पहचान है,
आह से अब तक रहा अनजान है।
बूँद से थोड़ा कभी ज्यादा सितम,
गूँजनों में गूँज के गूँजित रहा;
मंजरी की ख़ुश्बुओं में डूबकर,
नाद में मंजीर के बहता रहा।

चीखकर, अब पुष्प भी मुँह आह भर,
सींचतें सारा चमन असु डाल कर;
वेदना  की वादियों में झूमते,
सृष्टि के कण से गगन को चूमते।
नीड़ में जीवन बड़ा कुंठित लिये,
वार चहुँ दिशि से सदा करता रहा;
मंजरी की ख़ुश्बुओं में डूबकर,
नाद में मंजीर के बहता रहा।

मसि नहीं, असि से सदा यारी रही,
बात यह आख़िर सजी वादी रही;
जी रहा क्यूँ काट-खाकर फूल को?
तोड़ता ख़ुद ही सभी दस्तूर को।
त्यागता हूँ सृष्टि में रसपान अब,
रो निशा में चाँद से कहता रहा;
मंजरी की ख़ुश्बुओं में डूबकर,
नाद में मंजीर के बहता रहा।

ऊँघकर ज्यों बाग में थोड़ा भ्रमर,
स्वप्न की रसधार में तिरता रहा;
मंजरी की ख़ुश्बुओं में डूबकर,
नाद में मंजीर के बहता रहा।
...“निश्छल”

24 March 2018

वसंत का स्वागत

वसंत का स्वागत

✒️
बसंती ओढ़कर आया, करो सत्कार तुम रचकर,
सजाओ द्वार-चौबारे, पते की बात यह सुनकर;
कि लाया सौ टके वाला, मधुप श्रृंगार रस ऐसा,
धरा की साँस महके है, मदन की चाल के जैसा।

मधुर तुम ही रहे हरदम, सदा साथी बने मदने,
प्रफुल्लित, फूल की माला, गले में डालकर अपने;
जिधर भी देखता मुड़कर, उधर रति राग है दिखती,
सयानी देखकर तरु को, हरित पैगाम है लिखती।

रहो जैसा जिधर चाहे, मदन घर बार है तेरा,
सुखी हर पल रहो सारा, हरा संसार है तेरा;
मदन! मति गूढ़ मेरे मन, रचा पैगाम लिखते हो,
छरक कर वृंद पूरा तुम, हरित मुस्कान भरते हो।

सुख़न की साख है तुमसे, बसंती वायु हो लाते,
भरा है बाग कलियों से, मधुर मधुमास तुम लाते;
रमे हो भाल तनकर तुम, गली की रीति हो बनने,
क्षुधा मिटती नहीं तन की, कभी मधुमास में मदने।

भ्रमण कर आज घर मेरे, चली आई हँ मधुमासी,
बसंती साख पर छाई, हरित तृण छाँव गुण राशी;
नयन हैं आज ख़ुश आख़िर, चमन में कीर के नगमें,
मधुप तू आज लाया है, बसंती फूल हर घर में।

उठाओ शीश अपना तो, जरा इक बार ओ मदने!
शलभ भी गीत गाता है, हृदय भरकर यही अपने;
कि तुम ही हो मही की जी, जगत की जान है तुम में,
सघन ऋतुराज है जब तक, बहे रस धार इस जग में।
...“निश्छल”

इक दिया जलाने जाना है

इक दिया जलाने जाना है
✒️
जीर्ण हुआ, चाँद अब नभ में,
इक दिया जलाने जाना है;
सूझ रहा ना रातों में कुछ,
जग रौशन करने जाना है।
चाँद का, अस्तित्व जिलाने को,
बुझती आँखें खुलवाने को;
चंदा के घर को जाना है,
इक दिया जलाने जाना है।
जग घूमा, सारा नभ देखा,
तक कर सागर औ', गिरि देखा;
खोह, गुफाओं की गोदी में,
चंदा भी मैं, बहु विधि देखा।
बढ़ती उमर, शक्ति है कमतर,
पग-पग वह आहें भरता है;
निर्जन रातों का श्रमित पथिक,
असहाय दृगों से तकता है।
विवश निगाहें देख रही हैं,
निज काया का अब अंत रूप;
एकाकीपन खाता है उसे,
जिसने सँवारा रैन अनूप।
उमर बीतती है यह कैसे,
वह ख़ुद भी ना पहचाना है;
चंदा की बुझती आँखों में,
इक दिया जलाने जाना है।

अनेक कलाएँ होतीं तेरी,
दिये, असफल गर हो जाएँगे;
निराश ना हो चंदा मेरे,
खद्योत भी लेकर आएँगे।
चहुँओर बजेगी, डंका अब,
तेरे शौकत और शान की;
चाँद जरा निश्चिंत रहो अब,
हठ छोड़ो निजी पहचान की।
कुरूप नहीं भेष तुम्हारा,
तुम सदा सुधा बरसाते हो;
नैन किवाड़ों से प्रविष्ट हो,
मन कानन में बस जाते हो।
दीप तुम्हारे हेतु एत सा,
चंदा, हम संग ले आएँगे;
नाम गर्व से रौशन होगा,
दिये, तेज जलाने आएँगे।
अंजुम को, गर पड़े जरूरत,
पहले ही तुम बतला देना;
अनेक दिये लेकर आएँगे,
तुम उनकी बाट बता देना।
चलते फिरते तारों को भी,
खद्योत रौशनी देंगे अब;
तेरी कुटुंब चिंता सारी,
मिलकर हम सभी हरेंगे अब।
...“निश्छल”

23 March 2018

बादल-८ (चंदा के खेतों में)

बादल-८
(चंदा के खेतों में)
✒️
दिनभर जोत पाटीरों को,
परिक्लांत ग्रहनायक,
विश्रांति प्राप्ति के लिये अपनी आँखें बंद किये हैं,
या, परवर अपने खेतों को जोत, घर को चले गये हैं।
चंदा, मालिक का बालक, रात्रि तले बैठ
खेतों की रखवाली कर रहा है,
चंदा अपने खेतों की कहानियाँ मुझे सुना रहा है।


कितनी सुंदर काश्त चांद की
बड़े श्वेत मेघ के ढेले,
ढेलों के चौगिर्द नीले-नीले पानी की तरी…
पानी में कनिष्ठ तारे अपनी परछाई देख रहे हैं।
अपने चेहरे देख, चमकीली होती आँखों से
अब वे मुझे देख रहे हैं।
ऐसा लगता जैसे अंजुम, बादल के घर में रह रहे हैं।


चंदा आख़िर बालक ठहरा
सितारों संग कुछ खेल रहा है,
बादल के परदे से झाँक,
तारे टिमटिम बोल रहे हैं।
सुरभि-स्नात समीर पटों को
शनैः-शनैः आहट देता है,
तारे डरकर मद्धिम होते कभी छबीले हो जाते हैं।


चंदा के खेतों में
बादल के सरसब्ज़ फ़सल से,
तारे ऐसे झाँक रहे हैं
जैसे गौरैया फ़सल की बाली के पीछे छुपकर,
ताराधिप के दीपशिखा से, बदन को अपने छिपा रही हैं…
और अपने ठोरों से शस्य रसास्वादन कर रही हैं।
प्रातः दर्शन होते ही पखेरू
सूरज की आहट को भाँप,
फिर से उन्हीं फसलों में छिप जाते हैं।

मैं, दूर देश का पथिक, मौन-सम्मति हो,
दृश्यावलियों से हर्षोन्मत्त हो रहा हूँ।
...“निश्छल”