कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

27 December 2018

कलम, अब छोड़ चिंता

कलम, अब छोड़ चिंता
✒️
कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?

मुरादें हैं बहुत, लेकिन
पथिक अनजान थोड़ा है
नियति आलेख का पालन
सतत इहलोक खेला है,
विरासत, सादगी पाई
सदा गुणगान उसके गुन
अचेतन से मिली आभा
सुभाषित जाल उसके बुन;

निविड़ में पाखियों के है, मधुप की गुंजना कैसी?
कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?

तमस, हर्षित बड़ा, जग में
निशा की गोद में बैठा
दमक उठती सहज बिजली
जलद सूखा, दिखे उकठा,
प्रभा अठखेलियाँ करती
विटप, उपमान लिखते हैं
निहारे अर्क प्रांतर से
सचेतन प्राण धरते हैं;

जलज जब नीर में अविरत, भ्रमर की भेदना कैसी?
कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?

स्वयं ही डूबने को रत
सकल मनुजत्व मानव का
विलासी, दंभ में जीवन
मिटा, सत्कर्म आँगन का,
तिमिर का नेह किरणों से
स्वतः निरुपाय होता है
मलिन मन ही सखे नित ही
सदा असहाय होता है;

हृदय में, शूल से प्रतिबिंब की, संवेदना कैसी?
कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?
...“निश्छल”

14 December 2018

हाहाकार मचाओ

हाहाकार मचाओ



मेरी पलक पिंजरों में हे, कैद, सुनो शैतानी आँसू
उठो सँवर कर, रात हुई अब, उठकर हाहाकार मचाओ।

ज्योतिर्मय करतीं दुनिया को
स्वयं शाम की बोझिल किरणें,
दीन हुईं, अब मौन रूप में
चंदा नभ पथ पर निकला है;
चमकाता आँखों में मोती
धवल रश्मियों सा इतराता,
तारों की बारातों से सज
वलय बीच में वह पिघला है।
संध्या के आहातों में अब, ललचाते ओ काले बादल!
ज़रा लगाकर ऐनक देखो, तुम भी हाहाकार मचाओ।

सिलबट्टा घिस चुका समय का
चरखी युग की टूट गई है,
त्वरित भोर के दस्तक देते
नीम रात भी रूठ गयी है;
अगर सवेरा हुआ जन्म का
कुदरत ने यदि बाँग भरी है,
मृत्यु रूप शाश्वत नैया में
दूर भले, पर साँझ खड़ी है।
तृणवत लौकिक अभिलाषाओं, में फँसते ओ नैन दुलारे
उठो सँभलकर बीते यह ऋतु, खुलकर हाहाकार मचाओ।

जीवन के सरगम की तानें
सोच समझ कर छेड़ो साथी,
टूट गया गर तंतु, यंत्र का
पीड़ा की भरमार मचेगी;
धूमिल होने से पहले अब
बाँच खड़े हो कुछ जनश्रुतियाँ,
मीठी ध्वनियों से सरगम के
जीवन नौका पार पड़ेगी।
संलग्नित हो टिपटिप बूँदों, के संगीतों में झूमें जो
मेरे अधरों की मुस्कानों, खिलकर हाहाकार मचाओ।
...“निश्छल”

11 December 2018

बिखरो मेरे ज़ज़्बातों

बिखरो मेरे ज़ज़्बातों
✒️
बिखरो मेरे ज़ज़्बातों
तुम तो धीरे-धीरे,
करुण स्वरों को मेरे अब तक
हर जीवित ठुकराया है।

रखा सुरक्षित जिन्हें जन्म से, हीरे-मोती से शृंगारित
चक्षु तले निशि-दिन, संध्या को, रखा सवेरे भी सम्मानित;
स्वर्ण सलाखों के पिंजर में, मुझे छोड़कर क्यों जाते हो?
मुड़कर देखो रंज-रुदन को, उपहासों से क्या पाते हो?
उपहासों से बेधो मन को
तुम तो धीरे-धीरे,
अधम साँस को मेरे सुन लो
हर जीवित ठुकराया है।

मधुर गीत को गाने वाले, क्रंदन गाना सीख गये हैं
ऋजु हृदयों के ज्वारों से ही, भाव सभी अब भींग गये हैं;
खुशहाली में पलनेवाले, दहक पान कर, करें गुज़ारा
दहन हुवे जो भाव चित्त के, दावानल पर रीझ गये हैं।
विक्षत करो संत्रस्त कलेजा
तुम तो धीरे-धीरे,
आकांक्षाएँ मेरी अब तक
हर जीवित ठुकराया है।

घोर नींद में स्वप्न मुद्दई, मुझको देते रहे सहारे
ज्ञापित दिवस नहीं था उनको, दिवास्वप्न, वे बिना विचारे;
रुष्ट जगत की कटु कृपाण ने, काटा वहमों को जब जाकर
आहत होकर खड़े रिक्त अस, दुख सरिता पर कहीं किनारे।
ख़्वाबों मेरे, मरो डूबकर
तुम तो धीरे-धीरे,
इस अपात्र को अब तक आख़िर
हर जीवित ठुकराया है।
...“निश्छल”