कलम, अब छोड़ चिंता
✒️कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?
मुरादें हैं बहुत, लेकिन
पथिक अनजान थोड़ा है
नियति आलेख का पालन
सतत इहलोक खेला है,
विरासत, सादगी पाई
सदा गुणगान उसके गुन
अचेतन से मिली आभा
सुभाषित जाल उसके बुन;
निविड़ में पाखियों के है, मधुप की गुंजना कैसी?
कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?
तमस, हर्षित बड़ा, जग में
निशा की गोद में बैठा
दमक उठती सहज बिजली
जलद सूखा, दिखे उकठा,
प्रभा अठखेलियाँ करती
विटप, उपमान लिखते हैं
निहारे अर्क प्रांतर से
सचेतन प्राण धरते हैं;
जलज जब नीर में अविरत, भ्रमर की भेदना कैसी?
कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?
स्वयं ही डूबने को रत
सकल मनुजत्व मानव का
विलासी, दंभ में जीवन
मिटा, सत्कर्म आँगन का,
तिमिर का नेह किरणों से
स्वतः निरुपाय होता है
मलिन मन ही सखे नित ही
सदा असहाय होता है;हृदय में, शूल से प्रतिबिंब की, संवेदना कैसी?
कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?
...“निश्छल”