कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

29 October 2018

आरोप लगा है आज चाँद पर

आरोप लगा है आज चाँद पर

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✒️
आरोप लगा है आज चाँद पर, लड़ी रात की उसे भा गयी।

भटका फिरता निरा अकेला
कर्तव्यों के मोढ़ों पर
रात चढ़े निर्जन राहों में
ऊँचे गिरि आरोहों पर,
निर्भयता इतनी आख़िर यह
चाँद कहाँ से लाया है?
या, प्रपंच की पूजा करता
सौतन को ले आया है?
उच्छृंखल नद की लहर मचलती, इस म्लेच्छ को रास आ गयी;
आरोप लगा है आज चाँद पर, गौर चाँदनी उसे भा गयी।

आमिषता के अहं पुजारी
जिसकी राहें ताक रहे
क्षुधित जानवर छिपकर दिन में
नामकोश को बाँच रहे,
छली चाँद, बादल संगति में
श्वेत नहीं हो सकता है
मुखड़ा उजला हो भी जाये
हृदय मलिन ही रहता है।
टेढ़े-मेढ़े इन आरोपों से, शकल चाँद की कुम्हला गयी;
आरोप लगा है आज चाँद पर, सुर्ख़ रश्मि अब उसे भा गयी।

असमंजसवश खड़ा शून्य में
शर्मसार, अभिशापित है
अपनों ने ही, ना पहचाना
कांति सृष्टि में व्यापित है,
मृत्युंजय ने शीश चढ़ा कर
रखा संयमित जिसे सदा
चंदा के अनुभूत समय की
उपजी कोई तुच्छ बदा।
अभिलाषा, चर्चित चंद्रवलय की, अर्धचंद्र को स्वयं खा गयी;
आरोप लगा है आज चाँद पर, तारक छवि ही उसे भा गयी।
...“निश्छल”

21 October 2018

रमुआ के घर में

रमुआ के घर में
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पहुँच चुकी है अंर्तमन तक
तथ्यों की इक टोली,
आज चित्त में भावों का हड़ताल हुआ है।

भूसी नहीं निलय में
खाने के भी लाले,
बेच भवन पुश्तैनी
मेंटेनिंग दुनाले;

रमुआ के घर में आख़िर अब
टूटे बरतन, खोली,
चौराहों पर बहकी-बहकी चाल चला है।

दोषी हैं बस नेता
दिनभर करे मसख़री,
अंबुज के अधरों पर
जैसे कोई पहरी;

हाथ-पैर में ताला डाले
मुँह में दही जमाये,
चारदीवारी पर छज्जे का हाल बुरा है।

औरत को ना माने
ढाबा रोटी, सोंधी
जाग बजे बारह तक
उठे बहुरिया कौंधी;

रातों में नींदों के आते
भला-बुरा सब बोले,
मच्छरों के राज में वह सरताज भला है।
...“निश्छल”

17 October 2018

पन्नों पर भी पहरे हैं

पन्नों पर भी पहरे हैं
✒️
बैठ चुका हूँ लिखने को कुछ, शब्द दूर ही ठहरे हैं,
ज़हन पड़ा है सूना-सूना, पन्नों पर भी पहरे हैं।

प्रेम किया वर्णों से
भावों कलम डुबोया
सींची संस्कृति अपनी
पूरा परिचय बोया,
झंकृत अब मानस है
चमक रही है स्याही
पद्य सृजन में ठहरा
भटका सा इक राही;

उभरें नहीं विचार पृष्ठ पर, सोये वे भी गहरे हैं,
ज़हन पड़ा है सूना-सूना, पन्नों पर भी पहरे हैं।

लेखन नियम न समझा
संधानित नरकट ने
बदल दिया जज़्बाती
पारस को करकट में,
रच-रच उलाहनायें
सृजनें हैं अब देतीं
भस्म हुई ख़्वाबों की
सरसब्ज़ पड़ी खेती;

सूखीं असु चितवन की सारी, बड़ी-बड़ी अब नहरें हैं,
ज़हन पड़ा है सूना-सूना, पन्नों पर भी पहरे हैं।

उकताहटवश होकर
कर से कलम निचोड़ी
चित्त नीड़ में पैठी
खोली अहं तिजोरी,
आँखों में अंजन भर
झाँक हृदय में पाया
कुटिल कुटिलताओं में
जन्म-जन्म विसराया;

अंतर्मन में बहुत प्रफुल्लित, अंधकार की लहरें हैं,
ज़हन पड़ा है सूना-सूना, पन्नों पर भी पहरे हैं।

मसि महिमा ना जानूँ
लफ़्ज बोलकर जैसे
कीर्तन गा हर्फ़ों के
पार पड़ूँ अब कैसे?
देतीं हिय को देवी
ज्ञान शारदे माता
मुझ बेचारे से क्यों
रूठा हुआ विधाता?

पुस्तक के वरकों में शायद, रूखी सी अब बहरें हैं,
ज़हन पड़ा है सूना-सूना, पन्नों पर भी पहरे हैं।
...“निश्छल”

अगर पुरानी मम्मी होतीं... - १

अगर पुरानी मम्मी होतीं... - १
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बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को
दुखी बहुत है कल संध्या से, क्या पाती दुत्कार वो?
अगर पुरानी मम्मी होतीं...

अगर पुरानी मम्मी होतीं
क्या वो ऐसे डाँट सुनातीं?
बात-बात पर इक बाला को
कह के क्या वह बाँझ बुलातीं?
पापा जो अब चुप बैठे हैं,
क्या वे चुप हो, बातें सुनते?
मेरे हँसी ठहाकों पर क्या
ऐसे ही वे चाँटे जड़ते?
कहाँ गयी पापा के मुख की, प्यारी सी लहकार वो?
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।

बहुत समय से सुनती आयी
मम्मी हैं भगवान सहारे
उनको देख नहीं पाती अब
चश्मे ना हैं पास हमारे
मेरी मम्मी बहुत समय से
चली गईं भगवान के पास
कब तक आयेंगीं मिलकर वो
मन में लिये हूँ बैठी आस
बिलख रही थी रुदन घड़ी में, चंबल की फ़नकार जो
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।

जब आँखों में आँसू आकर
तत्काल लुप्त हो जाते थे
रो रोकर कंठों के जुमले
कातर स्वर जब हो जाते थे
बूढ़ी ताई पास बुलाकर
बड़े प्यार से समझाती थीं
नयी-नयी मम्मी लायेंगीं
मेरे मन को बहलाती थीं
मेरी बेटी तुम्हीं एक हो, माँ के प्रथम करार को
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।

बहुत काम अब करने पड़ते
हाथ पड़े हैं पीले छाले
सखे-बंधु सब खेल रहे हैं
मुन्नी के कपोल हैं काले
झुकी लगाने को जब झाड़ू
इक कराह तब मुख से आयी
दादी ने देखा जब जाकर
दाग पीठ पर, लाल कलाई
बिलख पड़ीं जब बूढ़ी आँखें, बचपन सुख, आसार को
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।
...“निश्छल”

11 October 2018

मैंने रातों में चंदा को

मैंने रातों में चंदा को
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सरल हृदय के हर कोने को, नंदन वन महकाते देखा
मैंने रातों में चंदा को, हँसकर नीर बहाते देखा।

तारों के दीपित शिविरों में
रातों के तिरपाल तले,
विदा हुआ जब अर्क डूबता
अंधकार फुफकार चले।
वीर वेश में खद्योतों को, तंतु-तंतु हर्षाते देखा
मैंने रातों में चंदा को, हँसकर नीर बहाते देखा।

नभ के उपवन में हर्षित हो
पंछी नेह लुटा बैठे,
निरख थके मन श्वेत सिंधु के
मंदाकिनी भुला बैठे।
निर्मोही उस नीलगगन को, छाती बहुत फुलाते देखा
मैंने रातों में चंदा को, हँसकर नीर बहाते देखा।

चर्चाओं में देवलोक के
मानवीय गुण ही छाते,
पाँव पसारा जब से कलियुग
गंगोदक अब ना भाते।
अंत दाँव में, सहनशील को, दारुण कष्ट उठाते देखा
मैंने रातों में चंदा को, हँसकर नीर बहाते देखा।
...“निश्छल”

09 October 2018

हम मिले तुम चल दिये थे

हम मिले तुम चल दिये थे
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वह गज़ब की रीति थी जब, हम मिले तुम चल दिये थे।

सात जन्मों के वो वादे
अभिसारिके, चिह्नित इरादे
ख़्वाब, तख़्तों के जो ठहरे
ले जली थी चाँदनी भी,
या किये मिल कर उजाले?
ज़िंदगी को दी जिन्होंने
रीति की आवारगी,
और बंधन बाँध कंठों, में पराये चल दिये थे;
वह गज़ब की रीति थी जब, हम मिले तुम चल दिये थे।

तात्क्षणिक उद्घोषणाओं से
मिली शह जो हमें थी,
प्रीति की कल्पित अदाओं
से मिली वह, रूठ बैठी;
नासमझ तस्वीर जीवन
की लिए कातर नयन में,
हम रहे बैठे भुवन में
धड़कनें उठ चल पड़ी थीं;
आस की बेचारगी ने
काट डाला आत्मगत ही,
हम रहे धूनी रमाये, आँसुओं में बह गये थे;
वह गज़ब की रीति थी जब, हम मिले, तुम चल दिये थे।

ना कर सके कुछ, आँख रूपी
यान जल में डूबकर भी,
आत्मश्लाघा चक्षु की
यातना से मिल गये थे;
उपनिहित थीं जो भावनाएँ
शेष चंदा में ज़रा सी,
पुष्प, तारों के खड़े थे
अंजुरी में टेर देते;
मन यशस्वी के अनादर
की कथा गाथा कहूँ क्या?
घड़कनों ने ताक कनखी, से सहज ही छल किये थे;
वह गज़ब की रीति थी जब, हम मिले, तुम चल दिये थे।
...“निश्छल”

08 October 2018

अंगूर मधुर ही खाये जायें

अंगूर मधुर ही खाये जायें

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नहीं जरूरी सत्ता के अंगूर मधुर ही खाये जायें,
अविवेकी कहता है यह, खट्टे अरि पर वारे जायें।

आज़ादी कुछ हमको भी दो
दीवाने हैं आज़ादी के
मत हँसो हमारे हाथ बाँध
परवाने हैं आज़ादी के;
है भक्ति देश की, अनल आँच
सीने में हरदम जलती है
हर सैनिक इक परवाना है,
बारूदों से ही फलती है।

हम जलते हैं जग सोता है
महलों में खेला होता है
कुर्सी की टाँग तोड़ना तो
बायें हाथों में होता है;
पर, वीर भरत की संतानें,
हम छद्म बात ना करते हैं
दुश्मन को अनुज सरीख़ा ही
सीने में अपने रखते हैं।

सोच हमारी यही सदा, रिपु के पेट भी पाले जायें;
नहीं जरूरी सत्ता के अंगूर मधुर ही खाये जायें।

जब दर्द हृदय का बढ़ जाता
अति से भी ज्यादा दूर कहीं
हम काट कलेजे को फेंके
गुंफित पसली से दूर कहीं;
हृदयहीन बनकर जीने की
लत हमको तो सालों से है
है प्रेम स्वयं से तनिक नहीं
आह्लाद मुल्क वालों से है।

ना रही बात अब कहने की
अरि को भी शेष, कहाँ बल है
सामर्थ्य अल्प हो उसमें गर
कह दो सैनिक अब विह्वल है;
सौगंध आन की भारत के
यह वचन समर्पित करता हूँ
सौ-सहस शीश को काट तथ्य
कानों में अर्पित करता हूँ।

सम्मान अगर ना हों तुममें, घूँघट अब बनवाये जायें;
नहीं जरूरी सत्ता के अंगूर मधुर ही खाये जायें।
...“निश्छल”

06 October 2018

शब्द किसानी

शब्द किसानी

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मैं शब्द किसानी करता हूँ, कहो किसी से भी क्या डरना?
भावों से सिंचित करता हूँ, जिसमें अपना सा इक झरना
ना साहित्यिक ज़मींदार हूँ, खेती कितनी? बस है रोड़ी
बोता हूँ उनमें शब्दों को, नियमित ही मैं थोड़ी-थोड़ी;
श्रम उसमें मिल जाने से फिर, मिट्टी उर्वर सी हो जाती
थोड़ी सी खेती से इसकी, उपज कोस-कोसों तक जाती
बंधु-सखा के हेतु उपज यह, तृप्तिमयी लक्ष्मी बन जाती
यह साधक गण मनोभाव में, बुद्धि रूप जगती कहलाती।

मैं शब्द किसानी करता हूँ, जो उगता वह उपजाता हूँ
कोई कुरीति, पाँव पसारे, साहित्यिक बाण चलाता हूँ
मेरे तरकश के सरकंडे, हुलसाते, शोर मचाते हैं
नरभक्षी बसे जो जंगल में, ग्राम्यों से दूर जाते हैं;
स्वच्छंद खड़ा हूँ काश्त की, इक पतली सी पगडंडी पर
लिए शास्त्र के डंडे कर में, हूँ फेंक रहा पाखंडी पर
पर डरता हूँ आस्तीन के, उन निर्मम निर्भय साँपों से
लुट जाऊँगा, गर मिला दिये विष, पानी में बरसातों के।


मैं शब्द किसानी करता हूँ, महसूस करूँ निष्पाप इसे
क्यों वैर किसी से हो साहिब? ना रहे इष्ट आभास जिसे
मैं अपने मन की खाता हूँ, मन अपने की ही बोता हूँ
दाने दो चार परिंदों में, फिर बाँट खुशी से सोता हूँ;
अन्न अगर कटु हों मेरे तो, कुछ और ज़ायका पकड़ो जी
छोड़ो मुझको हालातों पर, जा, नयी दुकानें जकड़ो जी
मैं नहीं मिलावट करता हूँ, सौगंध है शब्द-अनाज की
मैं शब्द किसानी करता हूँ, नहीं, ख़ौफ़ किसी धनराज की।
...“निश्छल”