कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

17 October 2018

अगर पुरानी मम्मी होतीं... - १

अगर पुरानी मम्मी होतीं... - १
✒️
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को
दुखी बहुत है कल संध्या से, क्या पाती दुत्कार वो?
अगर पुरानी मम्मी होतीं...

अगर पुरानी मम्मी होतीं
क्या वो ऐसे डाँट सुनातीं?
बात-बात पर इक बाला को
कह के क्या वह बाँझ बुलातीं?
पापा जो अब चुप बैठे हैं,
क्या वे चुप हो, बातें सुनते?
मेरे हँसी ठहाकों पर क्या
ऐसे ही वे चाँटे जड़ते?
कहाँ गयी पापा के मुख की, प्यारी सी लहकार वो?
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।

बहुत समय से सुनती आयी
मम्मी हैं भगवान सहारे
उनको देख नहीं पाती अब
चश्मे ना हैं पास हमारे
मेरी मम्मी बहुत समय से
चली गईं भगवान के पास
कब तक आयेंगीं मिलकर वो
मन में लिये हूँ बैठी आस
बिलख रही थी रुदन घड़ी में, चंबल की फ़नकार जो
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।

जब आँखों में आँसू आकर
तत्काल लुप्त हो जाते थे
रो रोकर कंठों के जुमले
कातर स्वर जब हो जाते थे
बूढ़ी ताई पास बुलाकर
बड़े प्यार से समझाती थीं
नयी-नयी मम्मी लायेंगीं
मेरे मन को बहलाती थीं
मेरी बेटी तुम्हीं एक हो, माँ के प्रथम करार को
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।

बहुत काम अब करने पड़ते
हाथ पड़े हैं पीले छाले
सखे-बंधु सब खेल रहे हैं
मुन्नी के कपोल हैं काले
झुकी लगाने को जब झाड़ू
इक कराह तब मुख से आयी
दादी ने देखा जब जाकर
दाग पीठ पर, लाल कलाई
बिलख पड़ीं जब बूढ़ी आँखें, बचपन सुख, आसार को
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।
...“निश्छल”

4 comments:

  1. प्रिय अमित -- आज ऑनलाइन होते ही सबसे पहले आपकी ये मार्मिक रचना सामने आई | आपकी लेखनी की यही खासियत है कि आप एक कथा को अत्यंत सहज ढंग से एक कहानी को काव्य रचना में ढाल सकते हो | मुनिया की ये मर्मान्तक कथा जो मन को बींध देती है , ऐसी कई मुनियाओं को मैंने देखा भी है और सुना भी है जो पुरानी मम्मी के ना रहने पर नयी मम्मी के क्रूर हाथों से अमानवीयता का शिकार होती हैं और सारी उम्र उस खोयी ममता की छाया को तलाशते उम्र बिता देती हैं | यूँ तो ये विषय अनंत है इस पर कुछ नहीं बहुत कुछ लिखा जा सकता है पर उसका भाव ये ही है कि ये ममता से भरी और वात्सल्य की मूर्ति कही जाने वाली नारी की ममता का सबसे कुत्सित चेहरा है | मुनिया अबोध है , सरल है और माँ के असमय विछोह से वेदना से भरी है |उसकी पीड़ा को शब्द कौन दे एक कवि के सिवाय | और सब मुनियों के पास बूढी दादी की उसकी पीड़ा में छलकने वाली आँखें नहीं होती पर यदि मुनिया के पास ये छांव है और उसे सहलाने वाले ममता भरे हाथ हैं तो वह भाग्यशाली है | पिता की भूमिका अक्सर ऐसे विषयों में निराशाजनक होती है | मन को भावुक करते सराहना से परे इस काव्य चित्र के लिए आपको मेरी ढेरों शुभकामनायें और बधाई |

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    1. आदरणीया दीदी, चरणस्पर्श। आपकी समीक्षात्मक टिप्पणी अंतर्मन तक को प्रभावित करती है। कभी कभार मन में आता है कि लेखन छोड़ दूँ, फिर आपकी टिप्पणी पर नज़र पड़ते ही अगले पल समझ में आता है कि रचनाएँ अनदेखे, अनसुने मित्रों से वार्तालाप की माध्यम है, भले ही आमने सामने बात न हो सके पर, विचारों का आदान प्रदान भी तो वार्तालाप का ही एक रूप है।
      जी सच कहा आपने कि प्रायः दादी, मुनियाओं के आँसू नहीं पोछतीं वरन, वे तो एक कारण होती हैं आग में घी डालने की। लिखते वक्त अथाह दुख और निराशा को सहन न कर पाने के कारण इस काल्पनिक शब्दश्रृंखला में पात्रों के व्यवहार को सामाजिकता का जामा नहीं पहना सका।
      पिता की भूमिका लगभग हरेक स्थान पर निराशात्मक ही होती है, और इसे प्रस्तुत करने को सोचा भी, मगर आवश्यकता से अधिक लम्बी रचना नज़रअंदाज़ की जा सकती है, इसलिए दूसरे भाग में लिखने के लिए इस भाग को भाग-१ से प्रदर्शित किया हूँ। वक्त मिलने पर अगला भाग भी सहेजना है।
      हालांकि दुख होता है पर अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। फिर भी इन बच्चों की जितनी मदद हो सके करना ही चाहिए।
      स्नेहमय आशीषों की आस में सादर नमन🙏🙏🙏

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  2. प्रिय अमित -- ऐसी व्याकुलता क्यों कि ब्लॉग छोड़ने का ख्याल आया ? माँ सरस्वती के वरदान को खुले मन से स्वीकार करिये | मुनिया का अपना प्रारब्ध है | एक दिन उसका नसीब भी बदलेगा दुःख की छाया अटल नहीं होती | ये एक दिन अपने आप बदल जाती है | और विषय - वस्तु कविता में ना समाये तो गद्यमें लिखिए | और यही व्याकुलता कवित्व की पहली पहचान है | जो दूसरों के दुःख में भीगती है वह आँख कवि की ही होती है |खुश रहिये और सृजन करिये | माँ सरस्वती ने दोनों हाथों से आपको प्रतिभा का वरदान दिया है उसका सम्मान करिये | मेरा स्नेह आपके लिए |

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    1. जी, सत्य वचन साभार अभिवादन🙏😊🙏

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