कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

24 November 2019

कैसे कटती होंगीं

कैसे कटती होंगीं
✒️
जिन रातों के हिस्से कोई चाँद नहीं होता होगा,
कैसे कटती होंगीं उनकी अकथ गुलामी की रस्में?

सच कहते हैं जीवन केवल
परिधानों का सौदा है,
जनम-मरण का घेरा यह तो
बेबस एक घरौंदा है।
जिन साँसों के हिस्से पालनहार नहीं होता होगा,
कैसे कटती होंगीं उनकी अकथ गुलामी की रस्में?

दलबदलू बदनाम जगत में
मगर, छली हर बंदा है,
हीरों का हो दुर्ग बड़ा सा
सबका गोरखधंधा है।
जिन आँखों के हिस्से कोई स्वप्न नहीं होता होगा,
कैसे कटती होंगीं उनकी अकथ गुलामी की रस्में?

कर्म विशिष्ट, तथापि देखकर
उड़ते पुच्छल - तारों से
आसमान में देखा, सूरज
जलता चाँद - सितारों से।
जिन रातों के हिस्से कोई चाँद नहीं होता होगा,
कैसे कटती होंगीं उनकी अकथ गुलामी की रस्में?
...“निश्छल”

21 November 2019

सुधर जाओ

#सुधर_जाओ
हवा को बदलने की कोशिश करेंगे
पीने के पानी को शोषित करेंगे,
कैशबैक मिल जाए थोड़ा अगर तो
प्रदूषण हटाने को बोधित करेंगे।
.
इन उल्टी-सीधी पंक्तियों के लिए क्षमा कीजिएगा। यह कटाक्ष यों ही नहीं लिख रहा हूँ। हम इंसानों के तो जीन में है कि जबतक अपना फ़ायदा न हो, कुछ भी नहीं करना। यकीन मानिए अगर आज विज्ञान यह कह दे कि मोटापा बढ़ाने से उमर बढ़ती है, या जो जितना मोटा होगा, उसे उतना ज़्यादा मोटापा पेंशन मिलेगा (यह एक उदाहरण मात्र है), तो एक होड़ सी लग जाएगी मोटा होने के लिए। मतलब, मतलबी इंसान अपने लाभ के लिए कुछ भी करने को तत्पर है।
#एक_पेड़_की_कमी_को_हजार_पौधे_भी_पूरा_नहीं_कर_सकते। फिर भी हजारों पेड़ [कभी विकास के नाम पर, तो कभी पिशाच(बुरी भावना) के नाम पर] काटने के बाद चंद पौधे लगाकर हम प्राउड फ़ील करते हैं/सोशल मीडिया पर अपडेट करते हैं।
यहाँ बात सिर्फ़ पेड़ काटने तक ही सीमित नहीं है, #मानव_सभ्यता_के_विकास_का_हरेक_कदम_प्रकृति_और_प्राकृतिक_संसाधनों_को_नुकसान_पहुँचाता_है (ऐसा मेरा मानना है)। अगर मैं गलत सोच रहा हूँ तो निश्चित रूप से इतने सभ्य और अत्याधुनिक समाज में प्रदूषण को लेकर बहस/रोना नहीं होना चाहिए।
#प्रकृति_माँ (कुदरत) के लिए उसकी हर संतान बराबर है। मतलब, एक इंसान के जान की कीमत सही मायनों में एक शेर/हाथी/पक्षी/साँप/कुत्ता/बिल्ली/... इत्यादि के समान ही होती है (ये बात अलग है कि इंसान अपनी महत्वाकांक्षा और अहं के रहते यह बात मान ही नहीं सकता)।
आजकल की परिस्थितियों में जहाँ प्रकृति को नष्ट कर देने के लिए हम उद्यत हैं, बेगुनाह जीव/जंतुओं के बारे में सोचकर रोना आ जाता है। अरे, उन्हें तो अपनी नाक पर रूमाल बाँधनी भी नहीं आती, मास्क भी वितरित कर दिये जायें तो क्या फ़ायदा? इस हालात में जब जानवरों को मास्क लगाना नहीं आता, नाक पर रूमाल नहीं बाँध सकते, तो क्या हमारा बालहठ करके यह साबित करना उचित होगा, कि उन्हें अपने स्वास्थ्य का ध्यान ख़ुद रखना चाहिए/ज़िंदगी उनकी है, उन्हें इसके बारे में सोचना चाहिए/इंसान अपने बुद्धिबल से प्रतिभावान और सशक्त बना है ऐसे में जानवरों की गलती है कि वे अपनी मेधा शक्ति का विकास नहीं कर सके?
हमारा तर्क/कुतर्क जो भी हो, मगर मेरा प्रश्न यह है कि अत्याधुनिक महामानव को #प्राकृतिक_संपदाओं, (जिन पर सभी जीवों का समान अधिकार होना चाहिए) से खिलवाड़ करने की अनुमति किसने दिया?
.
कुल मिलाकर हम इंसान अपने किये हुए का ही भोग करेंगे। संभवतः, प्राकृतिक शोषण की कई सारी किस्तों को, जिन्हें हमारे पूर्वज अच्छी तरह से पूरा नहीं कर पाये थे, उन्हें हम पूरा करेंगे और अपनी भावी पीढ़ियों का संहार (बिना अपना हाथ लगाये) करेंगे।
...“निश्छल”

🌳#नोट:- यह लेख किसी भी प्रकार की पब्लिसिटी हेतु नहीं लिखा गया है। कृपया इसे #साझा_न_करें, यदि करना चाहते हैं, तो इसे पढ़ने के बाद उत्पन्न हुए मनोभावों से साक्षात्कार करें, उन्हें अपने जीवन में उतारें।🙏🏻।

20 November 2019

लहरों जैसे बह जाना

लहरों जैसे बह जाना
✒️
मुझको भी सिखला दो सरिता, लहरों जैसे बह जाना
बहते - बहते अनुरागरहित, रत्नाकर में रह जाना।

बड़े पराये लगते हैं
स्पर्श अँधेरी रातों में
घुटनयुक्त आभासित हो
लहराती सी बातों में
जब तरंग की बलखाती
शोभित, शील उमंगों को
क्रूर किनारे छूते हैं
कोमल, श्वेत तमंगों को
बंद करो अब और दिखावे, तटबंधों का ढह जाना
मुझको भी सिखला दो सरिता, लहरों जैसे बह जाना।

शून्यकाल में उच्छृंखल
शीशों को ऊँचे ताने
घनघोर गर्जना करते
अंबुधि के गाये गाने
मूक छंद को परिभाषित
अपनी छवि से कर देता
व्यथित हृदय है, अधरहीन
गीतों को स्वर जो देता
तारों के किसलय के खिलते, नवनीत रूप फहराना
मुझको भी सिखला दो चंदा, लहरों जैसे बह जाना

ऊषा - प्रांगण में खिलते
अरुणित सूरज का हँसना
लोपित होता बालकपन
उर में तरुणाई धँसना
चाँदी सी सुंदर काया
उत्तुंग शिखर पर सोना
चंदा की मृदुल मृदुलता
सूरज - अभिनंदित होना
निर्लिप्त जुगनुओं का निशि में, अन्वेषी हो कह जाना
मुझको भी सिखला दो सूरज, लहरों जैसे बह जाना
...“निश्छल”

03 November 2019

उचित वक्त है

उचित वक्त है

✒️
उचित वक्त है गीतों को अब, आत्मसात करने का उर में
सुप्त विचारों की कुंठा से, स्वतंत्रता देनी ही होगी।

क्षुधित प्रथा की लोक लालसा, निर्दय होकर कुचल रही है
मानवता चिंघाड़ रही है, वसनहीन हो बीच सड़क पर;
रीता है मसिपात्र सृजक का, कुटिल समय के पन्नों औंधा
कलम नुकीली करो, भरो मसि, भावों के संवाद पटल पर।

आओ गीतों की संज्ञाओं, वरण करो अपने मर्मों का
तुम्हें तुम्हारी अनन्यता की, विवेचना करनी ही होगी।

भव्य सोच के राजकुँवर कुछ, भौंह तानकर ताक रहे हैं
विवश मनुजता घुटकर मरती, लिप्सा के अतिवृहत वलय में;
राजभवन सी खड़ी इमारत, कोस रही अस्तित्व स्वतः ही
लुप्त हुए सत्कर्म दिवस से, रातों के इस तरुण निलय में।

वक्त फिरा है याचक बनकर, नव नरेश के दरबारों में
इसे कुशलता हेतु नृपों की, प्रार्थना  करनी ही होगी।

गर्द-गुबारों में जीवन के, असमय डरे हुए हैं प्राणी
मानवता को, क्यों मानव ने, अति निकृष्ट दृष्टांत किया है?
नमन ईश की सत्ता को है, जिसने यह संसार बनाया
चपल मनुज ने उस ईश्वर को, छल से ही उद्भ्रांत किया है।

कदम नापकर चलने वालों, जब राहें दृढ़ हो जाएँगीं
तब तुमको इन पदचापों की, आहट तो सुननी ही होगी।
...“निश्छल”