कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

03 November 2019

उचित वक्त है

उचित वक्त है

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उचित वक्त है गीतों को अब, आत्मसात करने का उर में
सुप्त विचारों की कुंठा से, स्वतंत्रता देनी ही होगी।

क्षुधित प्रथा की लोक लालसा, निर्दय होकर कुचल रही है
मानवता चिंघाड़ रही है, वसनहीन हो बीच सड़क पर;
रीता है मसिपात्र सृजक का, कुटिल समय के पन्नों औंधा
कलम नुकीली करो, भरो मसि, भावों के संवाद पटल पर।

आओ गीतों की संज्ञाओं, वरण करो अपने मर्मों का
तुम्हें तुम्हारी अनन्यता की, विवेचना करनी ही होगी।

भव्य सोच के राजकुँवर कुछ, भौंह तानकर ताक रहे हैं
विवश मनुजता घुटकर मरती, लिप्सा के अतिवृहत वलय में;
राजभवन सी खड़ी इमारत, कोस रही अस्तित्व स्वतः ही
लुप्त हुए सत्कर्म दिवस से, रातों के इस तरुण निलय में।

वक्त फिरा है याचक बनकर, नव नरेश के दरबारों में
इसे कुशलता हेतु नृपों की, प्रार्थना  करनी ही होगी।

गर्द-गुबारों में जीवन के, असमय डरे हुए हैं प्राणी
मानवता को, क्यों मानव ने, अति निकृष्ट दृष्टांत किया है?
नमन ईश की सत्ता को है, जिसने यह संसार बनाया
चपल मनुज ने उस ईश्वर को, छल से ही उद्भ्रांत किया है।

कदम नापकर चलने वालों, जब राहें दृढ़ हो जाएँगीं
तब तुमको इन पदचापों की, आहट तो सुननी ही होगी।
...“निश्छल”

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 03 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. अप्रतिम रचना। आपकी लेखनी हिन्दी की समृद्धि में मील का पत्थर बनने वाली है। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय निश्छल जी।

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