कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

29 October 2019

अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँ

अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँ
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अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँ
मुझे उजालों से भी नफ़रत कभी नहीं थी,
सबकी चाह दिखावे तक ही सिमट चुकी थी
मुझे जलाने वालों की भी कमी नहीं थी।

एक प्रहर में जलकर कांति बिखेरी मैंने
और दूसरे वक्त तृषित हो मुरझाया था,
अंतकाल में देहतुल्य जल गयी वर्तिका
लौ को अपने अंतस में ही बिखराया था।

मैं तो उजियारों का दाता रहा सदा से
ख़ुद को भवित वेदना मुझको खली नहीं थी,
कर्तव्यों से अति घनिष्ठ नाता जन्मों का
मुझे जलाने वालों की भी कमी नहीं थी।

चलन, दौर का मुझपर थोप चुके थे साथी
ड्योढ़ी पर तस्वीर टाँग कर वंदन करते,
निज प्रभुता में चूर कुंजरों से विशृंखल
निंदनीय नारे केवल अभिनंदन करते।

चाल समय की अवगुंठित, निर्मम हो बैठी
मगर नयन में मेरे कोई नमी नहीं थी,
सबकी चाह दिखावे तक ही सिमट चुकी थी
मुझे जलाने वालों की भी कमी नहीं थी।
...“निश्छल”

7 comments:

  1. आपकी रचनाएँ हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं अमित जी। ऐसी भाषा और ऐसा शब्दविन्यास अब कम ही देखने पढ़ने को मिलता है।

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    1. हृदयतल से आभार मैम। नमन🙏🏻🙏🏻🙏🏻

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  2. सच कहा मीना बहन आपने | मैं भी हमेशा से यही कहती हूँ प्रिय अमित के लिए | निश्छल सा ये कवि सरस्वती का प्रिय सुत है , जिसके शब्द और भाव बेमिसाल हैं | शुद्ध साहित्यिक सृजन कमाल है | शुभकामनायें प्रिय अनुज | माँ सरस्वती आप पर अपनी अनुकम्पा यूँ ही बहती रहे |

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    1. दीदी प्रणाम।
      आप दोनों बहनों (मीना जी) का स्नेह पाकर अभिभूत हूँ। सादर नमन।

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  3. हार्दिक आभार, सादर नमन मैम।

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  4. Replies
    1. सधन्यवाद नमन सर।🙏🏻🙏🏻🙏🏻

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