संपूर्ण समर्पित कर के
🖋️
इति वदति प्रात, संध्या, निशि
उदकं उच्छृंखल लहरें,
ज्ञातव्य रूप तव प्रेयसि
लोचन पर डाले पहरें।।
छवि की जीवंत निरूपण
अनुकृति शोधित रत्नों की,
आभा, शुचि-चंदन जैसी
कामिनी गूढ़ यत्नों की।
कंचन सी निखरी उपमा
हृत कर के राकापति को,
पल्लवित पुष्प सी सुषमा
दीपित करती संप्रति को।
खग करते नित कलरव कर
अभिजात रूप के वर्णन,
विधि ने ढाली यह प्रतिमा
निज कर से कर उत्कीर्णन।
लावण्य रूप प्रतिबिंबित
ऊषा-द्युति के कानन में,
द्योतित नीलाभ समंदर
रोपित सुंदर आनन में।
आरूढ़ जलज-पल्लव पर
ओ शशिवदने, मधुबाले,
घनश्याम लटों में छिपते
खंजन-नयना ये काले।
विश्रांति निवारण को दृग
अलकों के अर्चन करते,
दग्ध श्वास के तर्पण को
नीरव अभ्यर्थन करते।
मकरंद-कुसुम की प्याली
हठ करके छलकाने को,
स्वर्ण मेखला कटि की
उत्कंठित, झलकाने को।
दिशि में गूँजें लहरें ज्यों
रत्नाकर की इठलाती,
विचरण करतीं तुम निशि में
बेला जैसे मदमाती।
व्रत धारण करके बैठा
पाने को वैभव तप का,
प्रमुदित हो जाता, जब-जब
अनुबोधन होता पथ का।
ओ अगम स्नेह की सरिता
गर्हित वय की मधुशाला,
कंदर्प वलय प्रतिबोधित
मन्मथ संस्तुति की माला।
झुरमुट की नरकट सा मैं
मर्कट, गाछों पर बसता,
तुम पुहुप, देव-उपवन की
यादें अंकों में कसता।
इक इच्छा पाले ऐसी
संयम से मन को बाँधे,
मानस में धारण करता
कोमल अभिलाषा साधे।
मैं, क्षिति पर नहीं, गगन में
तिरते ख़्वाबों को देखा,
परिचपल, चुरायें चित को
भौंहों की तिर्यक रेखा।
प्रज्ञप्ति प्रलय का देती
श्वासों की धूसर भाथी,
ओ! कर्पूरी वातायन
सुरसरि तरंग सी साथी।
हिय के प्रख्यात प्रबोधन
अंतर्मन में दफ़नाता,
संपूर्ण समर्पित कर के
इस मृदुता को अपनाता।।
...“निश्छल”