कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

16 June 2019

कंदराओं में पनपती सभ्यताओं

कंदराओं में पनपती सभ्यताओं
✒️
हैं सुखी संपन्न जग में जीवगण, फिर
काव्य की संवेदनाएँ कौन हैं?
कंदराओं में पनपती सभ्यताओं,
क्या तुम्हारी भावनायें मौन हैं?

आयु पूरी हो चुकी है आदमी की,
साँस, या अब भी ज़रा बाकी रही है?
मर चुकी इंसानियत का ढेर है यह,
या दलीलें बाँचनी बाकी रही हैं?
हैं मगन इस सृष्टि के वासी सभी गर,
हर हृदय में वेदनाएँ कौन हैं?
कंदराओं में पनपती...

हो गये कलुषित, विपद से जीव सारे,
या अघी से मानवों की साख दिखती?
सूर्य की लाली चढ़ी है व्योम के पट,
रक्त की स्याही, नये इतिहास लिखती।
सौम्य है अब भी मनस में, योग्य चिंतन,
घोर पापों की ध्वजायें कौन हैं?
कंदराओं में पनपती...

श्रेष्ठ है मनुजत्व सारे सद्गुणों में,
यह ढिंढोरे पीटता किसके सहारे?
जन्म है जिसका नदी के तीर पर ही,
वह, मिटाने को लगा उसके किनारे।
तृप्त हैं संबंध सारे यदि मनुज के,
न्याय की यह याचनाएँ कौन हैं?
कंदराओं में पनपती सभ्यताओं,
क्या तुम्हारी भावनायें मौन हैं?
...“निश्छल”

06 June 2019

चलो, कह दे रहा हूँ मैं

चलो, कह दे रहा हूँ मैं
✒️
चलो, कह दे रहा हूँ मैं, महकता है चमन, फिर भी
महज़ इक फूल को फिर से, ज़रा पुचकार कर देखो।

चलीं हैं आज जल-थल में
गरल बनकर हवाएँ भी,
कभी भी बात ना करतीं
अकेले में दिशायें भी।

मछलियाँ अब नहीं दिखतीं, भला यह कौन कहता है?
सजल सी आँख की जालें, ज़रा सी डालकर देखो।।

उगे हैं बादलों को पर
कुतरने को पड़ा सूरज,
विकल हो, आसमानों से
शिकायत क्या करे नीरज?

अगर शिकवे करे दिनभर, कुदरती माननीयों से
सुबह खिलना उसे पड़ता, बला यह जानकर देखो।।

मुखौटों को बदलकर ही
निकलता चाँद रातों में,
रसिक भी गीत गाते हैं
सुरों को बाँध गातों में।

किसी को फ़र्क क्या पड़ता, अगर बरसात में पूछो
निकलकर गाँव के बाहर, छतरियाँ तानकर देखो।।

बहुत ही सब्ज़ हैं साँसें
शजर के पत्तियों की अब,
महल की सेविकाएँ भी
किसी से बात करतीं कब?

कुलीनों की गली में हैं, विषैले नाग से गुंडे
कि नाज़ुक मन रखा किसने, किहुनियाँ मारकर देखो।।
...“निश्छल”