कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

19 February 2019

दुल्हन नयी नवेली

दुल्हन नयी नवेली
✒️
दूर क्षितिज पर इक दरवाजा, अंदर रात अकेली;
निर्जन वन दुल्हा बन बैठा, दुल्हन नयी नवेली।

उल्लू थे बाराती बनकर, मुंडेरों पर गाते
मुर्ग बैठ अपने नीड़ों में, कुकडूँ कूँ चिल्लाते;
स्याह रात, घनघोर घटा थी, डरती नयी हवेली

भूत-प्रेत, बेताल झूमते, मस्ती में थे सारे
भाँति-भाँति थे चीख मारते, सैन करें चौबारे;
झींगुर झीं-झीं करते रहते, सुनती रात अकेली

सुबह, दिवस भी उठकर आया, सूरज उसका साथी
दरवाजे को खोला सूरज, अंदर थे बाराती;
थर-थर काँप उठे, सब भागे, दुल्हन भी अलबेली
...“निश्छल”

07 February 2019

दिग्दर्शन, आज करा जा

दिग्दर्शन, आज करा जा
✒️
धवल अंबु सा भला रूप
मानो है खान सुख़न की,
जँचती हैं तेरी यादें
जैसे हों वायु चमन की;
तुम जब मुझमें खो जाती
सो जाती साँझ नवेली,
अँगड़ाई लेती ऊषा
निर्जन में नित्य अकेली;
तुम इक प्रतिमा हो श्रम की
मैं कर्कश, काला पानी,
छींटे गर उड़ जायें तो
यह है मेरी नादानी;
मृगनयनी! नयन हमारे
इस कारण बल खाते हैं,
दृश्यांकित स्वप्न तुम्हारे
पथ मेरे बिसराते हैं;
इक बार नयन तो फेरो
उड़ती अलकों से खेलो,
नादाँ मैं, तृण बन जाऊँ
तुम रजनीगंधा हो लो।
मेरे साँसों की गति को
अपने हाथों से तारो,
ना, नाहक मुरझा जाऊँ
स्पंदन को और उभारो;
तन-मन की इस बस्ती में
ना जाने कितने खोते,
सद्भावों के कुछ चंचल
बैठे रहते हैं रोते;
तेरी आँखों के तारे
मुख मेरे और सँवारे,
मधु टपक रही कर तल से
मैं जी लूँ इसी सहारे;
मृगतृष्णा एक तुम्हीं हो
कौस्तुभ तुम्हीं हो पावन,
मृण्मय तन को मंदिर सा
भू, रचती हो मनभावन।
निशि-वासर खेल समय का
रब, ख़ुद भी भुला न पाया,
मैं कौन खेत की मूली
रख सकूँ इसे बिसराया;
बंद करो संवादों की
अब निर्मम सी यह ध्वनियाँ,
रुधिर, हृदय में कमतर है
जलतीं निष्पाप धमनियाँ;
मेरी पलकों की छाया
अब स्याह हुई जाती है,
कठपुतली से जीवन की
यह डोर खिंची जाती है;
इन दर्द भरी धमनी की
ख़ातिर बलखाती आ जा,
प्राण कंठ तक पहुँच चुके
दिग्दर्शन, आज करा जा।
...“निश्छल”