कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

27 August 2021

अस्तित्व, हमारा भी था कुछ

अस्तित्व, हमारा भी था कुछ



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अस्तित्व हमारा भी था कुछ

पर ख़ुद ही दाँव गँवा बैठे,

इक पूनम की अभिलाषा में

सूरज से नैन लड़ा बैठे।

संज्ञान हुआ जब नींद खुली

अति दूर समय जा ठहरा था,

इस जज़्बातों की दुनिया में

दुख अपना इतना गहरा था।

यह जाना तब पहचान सका

तूफानों के सन्नाटों को,

इक-इक कर चुनता रहता हूँ

सीमित जीवन के काँटों को।


सामर्थ्य सभी में होता है

हँस-हँसकर दुखड़े सीने को,

दाता यह कभी न कहता है

घुट-घुटकर जीवन जीने को?

हम गर्दिश में तूफानों के

मर्दित होते अफ़सानों को,

बुझते दीपों को जला-जला

काटे तम के उपमानों को।

काले अक्षर को सजा-सजा

यह गीत रंज में गा बैठे,

अनुतप्त हृदय के ज्वालों में

आँखों से नीर बहा बैठे।

...“निश्छल”

21 August 2021

जय भरत भूमि

 जय भरत भूमि

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अभिधान भरत उद्दीपन जय
जय वीर तारिणी विमल भूमि।
विस्तृत हिमाद्रि हे भूमिखंड
ऋषिकेश पावनी तपोभूमि।।

जन गण मन हे अभिलाषी जय
हे मातृभूमि हे स्वर्णभूमि।
मंदाराच्छादित हे विमले
हेमाभ प्रदीपित यशोभूमि।।

शूरत्व समर्पित रज उन्नत
वीरत्व अलंकृत पृष्ठभूमि।
तरुणाई यह अर्पित तुम पर
हे पूज्य-अनामय मातृभूमि।।

कैलास उदीची में अविचल
वामन-विशाख हे अधोभूमि।
कण-कण पुराण की कथा रचित
जय ईश विभूषित देवभूमि।।

जय-जय वसुधा जय-जय भारत
हे वासुदेव की रंगभूमि।
धन-धान्य समर्पित है तुम पर
हे श्री रघुवर की जन्मभूमि।।

...“निश्छल”

09 August 2021

मुझमें, मौन समाहित है

 मुझमें, मौन समाहित है


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जब खुशियों की बारिश होगी, नृत्य करेंगे सारे, लेकिन

शब्द मिलेंगे तब गाऊँगा, मुझमें, मौन समाहित है।


अंतस्  की आवाज़ एक है

एक गगन, धरती का आँगन।

एक ईश निर्दिष्ट सभी में

एक आत्मबल का अंशांकन।।


बोध जागरण होगा जिस दिन, बुद्ध बनेंगे सारे , लेकिन

चक्षु खुलेंगे तब आऊँगा, मुझमें, तिमिर समाहित है।


वंद्य चरण के रज अभिवंदित

आत्मस्थ प्रियजन की वाणी।

शून्य-विवर में पली सभ्यता

सबकी अपनी अलग कहानी।।


दग्ध हृदय हो या उर सरिता, व्यक्त करेंगे सारे, लेकिन

मूल मिलेगा तब ध्याऊँगा, मुझमें, निरति समाहित है।


सर्वदमन है ध्येय किसी का

कोई स्नेह-सिक्त अधिकारी।

सत्ता के बीमार कई हैं

निज प्रभुत्व में कुछ व्यभिचारी।।


निर्विवाद उल्लासक यह पल, ग्राह्य करेंगे सारे, लेकिन

जनाभूति लेकर आऊँगा, मुझमें, विरति समाहित है

...“निश्छल”

06 August 2021

चाहो तो...

चाहो तो...
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मेरे अनुभव का रेखांकन व्यर्थ न जाएगा ऐसे प्रिय
चाहो तो इस अपादान में अरमानों की भेंट चढ़ा दो।

संवेदी गीतों के मुखड़े
लिख जाएँ यदि स्वाभिमान से,
टूट जाय तारों की नलिका
गिरे सूर्य महि आसमान से।

मेरे गीतों का मधुरांकन व्यर्थ न जाएगा ऐसे प्रिय
चाहो तो तुम हवनकुंड में अनुरागों की भेंट चढ़ा दो।

जिस पल में उद्भासित होती
सकल कामना एक वीर की,
अवचेतन में मुखरित होती
तीक्ष्ण चेतना तीव्र तीर की।


मेरे स्वप्नों का रूपांकन व्यर्थ न जाएगा ऐसे प्रिय
चाहो तो अनुरक्त निशा में मृदुल पलों की भेंट चढ़ा दो।

जग सारा उच्छिन्न पड़ा है
अहंकार की कटु कृपाण से,
दूर खड़ी है सुमति सहमकर
मूढ़ मनुज के उद्विचार से।

मेरे नयनों का मूल्यांकन व्यर्थ न जाएगा ऐसे प्रिय
चाहो तो उद्विग्न प्रभा में तुम प्रश्नों की भेंट चढ़ा दो।

01 August 2021

यह वसंत की उपमा आई


 यह वसंत की उपमा आई

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भावों को अनुवादित करके, वर्णों से संबोधित कर

मन-मानस में बसी आपकी, स्मृतियों को सुनियोजित कर।

रचता रहा विमल संबोधन, निशि के घने ठिकानों में

मधुर रागिनी गूँज रही थी, रिमझिम-रिमझिम कानों में।।


बूँद-बूँद में घोर घटा, आवेशित हो लय-ताल से

प्रथम प्रणय की केलि सुधामय, उद्धृत हो शशिकाल से।

नीम निशा के यौवन पर, न्योछावर एक मराल सा

अनुरागी बन रचा छंद, मंजुल प्रमदा के भाल सा।।


ओढ़ उपरना उस वेला में, सुंदरता प्रतिमान हो

शब्द-शब्द अक्षर-अक्षर में, विदित प्रेम का भान हो।

द्रवित चक्षु के ऊष्ण नीर को, पावन कर आवाज़ से

तुम्हीं दिखाती रहीं राह, निस्तब्ध हृदय को साज़ से।।


यादों की माला जपता, संयासी यह अभिराम सा

युगल नैन की सुषमा गाता, समाधिस्थ अविराम सा।

पढ़-पढ़कर संतृप्त हो गया, तुम्हें अयन के छोर से

यह वसंत की उपमा आई, आज तुम्हारी ओर से।।

...निश्छल