अस्तित्व, हमारा भी था कुछ
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अस्तित्व हमारा भी था कुछ
पर ख़ुद ही दाँव गँवा बैठे,
इक पूनम की अभिलाषा में
सूरज से नैन लड़ा बैठे।
संज्ञान हुआ जब नींद खुली
अति दूर समय जा ठहरा था,
इस जज़्बातों की दुनिया में
दुख अपना इतना गहरा था।
यह जाना तब पहचान सका
तूफानों के सन्नाटों को,
इक-इक कर चुनता रहता हूँ
सीमित जीवन के काँटों को।
सामर्थ्य सभी में होता है
हँस-हँसकर दुखड़े सीने को,
दाता यह कभी न कहता है
घुट-घुटकर जीवन जीने को?
हम गर्दिश में तूफानों के
मर्दित होते अफ़सानों को,
बुझते दीपों को जला-जला
काटे तम के उपमानों को।
काले अक्षर को सजा-सजा
यह गीत रंज में गा बैठे,
अनुतप्त हृदय के ज्वालों में
आँखों से नीर बहा बैठे।
...“निश्छल”