कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

27 August 2021

अस्तित्व, हमारा भी था कुछ

अस्तित्व, हमारा भी था कुछ



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अस्तित्व हमारा भी था कुछ

पर ख़ुद ही दाँव गँवा बैठे,

इक पूनम की अभिलाषा में

सूरज से नैन लड़ा बैठे।

संज्ञान हुआ जब नींद खुली

अति दूर समय जा ठहरा था,

इस जज़्बातों की दुनिया में

दुख अपना इतना गहरा था।

यह जाना तब पहचान सका

तूफानों के सन्नाटों को,

इक-इक कर चुनता रहता हूँ

सीमित जीवन के काँटों को।


सामर्थ्य सभी में होता है

हँस-हँसकर दुखड़े सीने को,

दाता यह कभी न कहता है

घुट-घुटकर जीवन जीने को?

हम गर्दिश में तूफानों के

मर्दित होते अफ़सानों को,

बुझते दीपों को जला-जला

काटे तम के उपमानों को।

काले अक्षर को सजा-सजा

यह गीत रंज में गा बैठे,

अनुतप्त हृदय के ज्वालों में

आँखों से नीर बहा बैठे।

...“निश्छल”

6 comments:

  1. भावपूर्ण सृजन अमित जी।
    आपकी रचना पढ़ते हुए-

    दाँव पर ख़ुद को लगा दिया
    सोये स्वप्नों को जगा दिया
    बुझते दीपों की ज्योति में
    जो पाँसे समय ने फेंके थे
    कुछ आँसू कुछ मुस्कान बने
    तम सारा तुमने भगा दिया
    उर में विश्वास यह सदा रहे
    तुमने तूफान को डिगा दिया।
    --––
    सादर।

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२८-०८-२०२१) को
    'तुम दुर्वा की मुलायम सी उम्मीद लिख देना'(चर्चा अंक-४१७०)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. अस्तित्व हमारा भी था कुछ

    पर ख़ुद ही दाँव गँवा बैठे,

    इक पूनम की अभिलाषा में

    सूरज से नैन लड़ा बैठे।
    वाह!!!
    कमाल का सृजन...
    लाजवाब।

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  4. सामर्थ्य सभी में होता है
    हँस-हँसकर दुखड़े सीने को,
    दाता यह कभी न कहता है
    घुट-घुटकर जीवन जीने को?

    बहुत सुंदर...

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  5. काले अक्षर को सजा-सजा

    यह गीत रंज में गा बैठे,

    अनुतप्त हृदय के ज्वालों में

    आँखों से नीर बहा बैठे।---बहुत खूब

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  6. बुझते दीपों को जला कर के तमसा के उपमानों को काटना ,गजब अभि व्यंजना, अद्भुत सृजन।
    सुंदर।

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