कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

30 March 2019

आँसुओं की माप क्या है?

आँसुओं की माप क्या है?
✒️
रोक लेता चीखकर
तुमको, मगर अहसास ऐसा,
ज़िंदगी की वादियों में
शोक का अधिवास कैसा?

नासमझ, अहसास मेरे
क्रंदनों के गीत गाते,
लालची इन चक्षुओं को
चाँद से मनमीत भाते।

ढूँढ़ता हूँ जाग कर
गहरी निशा की ख़ाक में,
वंदनों से झाँकता
अभिनंदनों के ताक में।

उत्तरोत्तर आज भी
चरितार्थ कितनी? बोलकर,
चित्त में गहरे छिपे
मनभाव को झकझोर कर।

ओ मेरे भटके बटोही
आज बस इतना बता दे,
काव्य में लथपथ पड़े
इन आँसुओं की माप क्या है?
...“निश्छल”

09 March 2019

हश्र

हश्र
✒️
ओस के नन्हें कणों ने व्यंग्य साधा पत्तियों पर,
हम जगत को चुटकियों में गर्द बनकर जीत लेंगे;
तुम सँभालो कीच में रोपे हुवे जड़ के किनारे,
हम युगों तक धुंध बनकर अंधता की भीख देंगे।

रात भर छाये रहे मद में भरे जल बिंदु सारे,
गर्व करते रात बीती आँख में उन्माद प्यारे।
और रजनी को सुहाती थी नहीं कोई कहानी,
ज्ञान था उसको कणों का ज्यों उरग को रातरानी।
बस यही पहचान पाकर ओस के कण झूमते थे,
चाल गुरु सी देखकर वे वायु के पग चूमते थे।
था नहीं अनुराग उनको रात या फिर वायु से भी,
थे प्रफुल्लित अंधता से ना रही परवाह फिर भी।
बात मीठी रात के घर वायु से करते रहे थे,
वे मगर सूरज हराने, मंत्रणा करते रहे थे।

नीतियों से रात बीती और ऊषा उठ चुकी थी,
वक्त पर ही रवि उठे थे अश्व जोड़ी सज चुकी थी;
स्यंदनों आरूढ़ किरणें कूच करती थीं धरा पर,
और कोसों तक निशा पहचान अपनी खो चुकी थी।

जा चुकी थी रात अब थीं पारियाँ भी कोहरों की,
राज उद्घोषित करें क्या, वायु के मुख सर्दियों की?
जब चटख से रंग लेकर आ गये दिन नाथ गिरि पर,
टाप घोड़ों की उठी बन ज्वाल वर्णी ख़ाक बनकर।
कुछ छटा ऐसी दिखी थी प्रात में रविवार के, महि
प्राण सूखे शीत के जैसे निरख व्यालारि को अहि।
अस्थि से वंचित चमू फिर ओस की चिंघाड़ करती,
शूर सी मनभावना में कायरों सी बात करती।
भाप बनकर उड़ चली थी देवगण को याद करती,
नभ-धरा पर खिल उठी पावन प्रभा हुंकार भरती।
...“निश्छल”