कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

29 October 2019

अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँ

अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँ
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अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँ
मुझे उजालों से भी नफ़रत कभी नहीं थी,
सबकी चाह दिखावे तक ही सिमट चुकी थी
मुझे जलाने वालों की भी कमी नहीं थी।

एक प्रहर में जलकर कांति बिखेरी मैंने
और दूसरे वक्त तृषित हो मुरझाया था,
अंतकाल में देहतुल्य जल गयी वर्तिका
लौ को अपने अंतस में ही बिखराया था।

मैं तो उजियारों का दाता रहा सदा से
ख़ुद को भवित वेदना मुझको खली नहीं थी,
कर्तव्यों से अति घनिष्ठ नाता जन्मों का
मुझे जलाने वालों की भी कमी नहीं थी।

चलन, दौर का मुझपर थोप चुके थे साथी
ड्योढ़ी पर तस्वीर टाँग कर वंदन करते,
निज प्रभुता में चूर कुंजरों से विशृंखल
निंदनीय नारे केवल अभिनंदन करते।

चाल समय की अवगुंठित, निर्मम हो बैठी
मगर नयन में मेरे कोई नमी नहीं थी,
सबकी चाह दिखावे तक ही सिमट चुकी थी
मुझे जलाने वालों की भी कमी नहीं थी।
...“निश्छल”

11 October 2019

एक कवि, जब मर जाता है

एक कवि, जब मर जाता है
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एक कवि, जब मरता है,
वह मर नहीं जाता है।

चरणबद्ध तरीके से
बंद करता है एक-एक कपाट
प्रत्येक खिड़कियाँ, हरेक रोशनदान को;
जिनसे, बेबस कविताओं की
नन्हीं-नन्हीं कोंपलें झाँक रही होती हैं,
उसकी हर एक साँस को माप रही होती हैं।

नन्हें किसलय
जो अभी किलकारना भी नहीं सीख सके,
सूख रहे होते हैं मरूस्थल में पड़ी बूँद की तरह।
कुछ पंक्तियाँ
जो जवानी के जोश से लबालब होती हैं,
चटख पड़ती हैं काँच के दरवाजे की तरह।

झुर्रियों भरी कुछ कविताएँ विदा होती हैं।
घुट-घुटकर लुप्त होती हैं
मन में बसी कृतियों की वर्तिकायें।
हार जाती है उनकी लौ,
हवा की अनुपस्थिति से।

अंततः
तैर जाती हैं दो आँखें, कविताओं की नदी में
जिसमें, चंद शब्दों की लहरें, अवगुंठित हो
अपने अधूरेपन का शोक प्रकट करती हैं;
एक कवि, जब मर जाता है।
...“निश्छल”