कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

11 October 2019

एक कवि, जब मर जाता है

एक कवि, जब मर जाता है
✒️
एक कवि, जब मरता है,
वह मर नहीं जाता है।

चरणबद्ध तरीके से
बंद करता है एक-एक कपाट
प्रत्येक खिड़कियाँ, हरेक रोशनदान को;
जिनसे, बेबस कविताओं की
नन्हीं-नन्हीं कोंपलें झाँक रही होती हैं,
उसकी हर एक साँस को माप रही होती हैं।

नन्हें किसलय
जो अभी किलकारना भी नहीं सीख सके,
सूख रहे होते हैं मरूस्थल में पड़ी बूँद की तरह।
कुछ पंक्तियाँ
जो जवानी के जोश से लबालब होती हैं,
चटख पड़ती हैं काँच के दरवाजे की तरह।

झुर्रियों भरी कुछ कविताएँ विदा होती हैं।
घुट-घुटकर लुप्त होती हैं
मन में बसी कृतियों की वर्तिकायें।
हार जाती है उनकी लौ,
हवा की अनुपस्थिति से।

अंततः
तैर जाती हैं दो आँखें, कविताओं की नदी में
जिसमें, चंद शब्दों की लहरें, अवगुंठित हो
अपने अधूरेपन का शोक प्रकट करती हैं;
एक कवि, जब मर जाता है।
...“निश्छल”

7 comments:

  1. बहुत ही सुंदर संकल्पना आदरणीय निश्छल जी। कवि की मृत्यु सामान्य हो ही नहीं सकता । एक शरीर नही बल्कि उसके भीतर के हृदय की मृत्यु अवश्य ही अत्यंत पीड़ादायक होगी। इस बेहतरीन सृजन हेतु साधुवाद ।

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    1. उसके भीतय के हृदय की मृत्यु... वाह। काव्य के आत्मतत्व को पूर्णता से प्रक्षेपित करने के लिए आपका विशेष आभारी हूँ सर। सधन्यवाद नमन।

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 12 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. उचित शब्दों का न मिल पाना
    धीरे धीरे वृद्ध होता विचार
    मानसिक क्षमता पर जोर नहीं डालने देता
    तब मर जाता है
    बेबस होकर एक कवि।
    नई पोस्ट पर स्वागत है आपका 👉🏼 ख़ुदा से आगे 

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  4. सादर आभार दीदी। 🙏🏻🙏🏻🙏🏻

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