क्रम विहीन ज़ज़्बात
✒️
क्रम विहीन ज़ज़्बात उमड़ कर
उमड़-घुमड़ कर, पुनः उमड़ कर
आख़िर बहकर चित्त कलम से
कागज़ पर ही फैल गये हैं;
या जाने, उनके सम्मानों
में निशि में विचरण करते जो
स्नेहयुक्त वे स्निग्ध वायु के
झोंके भी अब गैर हुवे हैं।
वैर हुई क्या? मीत बता दे
ऐसी भी क्या बेमानी है
या, सागर के सीने में भी
सुरक्षित नहीं जलज पानी है?
चंचल हैं भावों के पंछी
उड़ भी जाते हैं, ख़बर नहीं
आँखों से ओझल होते जब
भौंहों पर ही तब बैठ कहीं;
कहीं सुगम सी जगह देखकर
बैठ किनारे अग्नि-सरित के
चुन-चुनकर अंगारे पीते
प्यासे हैं, फिर भी खड़े वहीं।
पार लगा दे ओ पनिहारिन
नहीं सेतु है सिंधु किनारे
उलझ गया जो इहलीला में
भटके पंछी बिना सहारे
यह नगरी अब रुष्ट हो गई
गगरी 'उसकी' सुस्थ हो गई
सुबह सवेरे नाव देखकर
पनिहारिन आकृष्ट हो गई;
जीवन रूपी नैया ऐसी
गहन सिंधु में गोते खाती
बन अभ्यासी, जीवथ इसके
डूब गई गर, बना विलासी।
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क्रम विहीन ज़ज़्बात उमड़ कर
उमड़-घुमड़ कर, पुनः उमड़ कर
आख़िर बहकर चित्त कलम से
कागज़ पर ही फैल गये हैं;
या जाने, उनके सम्मानों
में निशि में विचरण करते जो
स्नेहयुक्त वे स्निग्ध वायु के
झोंके भी अब गैर हुवे हैं।
वैर हुई क्या? मीत बता दे
ऐसी भी क्या बेमानी है
या, सागर के सीने में भी
सुरक्षित नहीं जलज पानी है?
चंचल हैं भावों के पंछी
उड़ भी जाते हैं, ख़बर नहीं
आँखों से ओझल होते जब
भौंहों पर ही तब बैठ कहीं;
कहीं सुगम सी जगह देखकर
बैठ किनारे अग्नि-सरित के
चुन-चुनकर अंगारे पीते
प्यासे हैं, फिर भी खड़े वहीं।
पार लगा दे ओ पनिहारिन
नहीं सेतु है सिंधु किनारे
उलझ गया जो इहलीला में
भटके पंछी बिना सहारे
यह नगरी अब रुष्ट हो गई
गगरी 'उसकी' सुस्थ हो गई
सुबह सवेरे नाव देखकर
पनिहारिन आकृष्ट हो गई;
जीवन रूपी नैया ऐसी
गहन सिंधु में गोते खाती
बन अभ्यासी, जीवथ इसके
डूब गई गर, बना विलासी।
...“निश्छल”