कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

31 August 2018

क्रम विहीन ज़ज़्बात

क्रम विहीन ज़ज़्बात

✒️
क्रम विहीन ज़ज़्बात उमड़ कर
उमड़-घुमड़ कर, पुनः उमड़ कर
आख़िर बहकर चित्त कलम से
कागज़ पर ही फैल गये हैं;
या जाने, उनके सम्मानों
में निशि में विचरण करते जो
स्नेहयुक्त वे स्निग्ध वायु के
झोंके भी अब गैर हुवे हैं।

वैर हुई क्या? मीत बता दे
ऐसी भी क्या बेमानी है
या, सागर के सीने में भी
सुरक्षित नहीं जलज पानी है?

चंचल हैं भावों के पंछी
उड़ भी जाते हैं, ख़बर नहीं
आँखों से ओझल होते जब
भौंहों पर ही तब बैठ कहीं;
कहीं सुगम सी जगह देखकर
बैठ किनारे अग्नि-सरित के
चुन-चुनकर अंगारे पीते
प्यासे हैं, फिर भी खड़े वहीं।

पार लगा दे ओ पनिहारिन
नहीं सेतु है सिंधु किनारे
उलझ गया जो इहलीला में
भटके पंछी बिना सहारे

यह नगरी अब रुष्ट हो गई
गगरी 'उसकी' सुस्थ हो गई
सुबह सवेरे नाव देखकर
पनिहारिन आकृष्ट हो गई;
जीवन रूपी नैया ऐसी
गहन सिंधु में गोते खाती
बन अभ्यासी, जीवथ इसके
डूब गई गर, बना विलासी।
...“निश्छल”

29 August 2018

संस्तुत मेघराज

संस्तुत मेघराज
✒️
सरिता का गुण, विचरण करना
ऊपर ना जल को जाना है,
'ऋतु वसंत में पतझड़ आया'
यह कहना मात्र बहाना है।
धारण करते, छत्र को संप्रभु
देव इंद्र क्यों सकुचाते हो?
मधुर फुहारों से सावन के
कहो देव क्यों उकताते हो?
पूछूँगा, क्यों बरखा-बिजली
इस साल हुई बेगानी है?
या फिर हठ करते बादल की
यह भी कोई शैतानी है?

त्राहि-त्राहिमम, देव त्राहि हे
मर्यादा अपनी मत छोड़ो,
मनुजों से कोप वृष्टि आख़िर
मासूम जीव पर मत फोड़ो।
दयानिधे हे देवराज अब
क्रोधित से मेघ शांत करो,
चैन छिना मानवता का भी
बादल पूर्ण प्रशांत करो।

अभिशापित मनुज न हो सकता
गर न्याय करो तुम कानन के,
निर्भीक करो प्रभु जंगल को
निर्वाक हरो उन आनन के;
वे आनन जो जीव जगत में
निर्मम ठुकराये जाते हैं,
दैव आपदा और शिकारी
में भी विलगाये जाते हैं;
कहो, जीव-शिशु को जीने का
भी है कोई अधिकार नहीं?
मानवता का मोल नहीं है
अन्यायों का आधार नहीं?
पिघल रहा हिमगिरि भी देखो
तप्त, उनके अश्रु प्रवाहों से,
धरती पानी में डूबी है
किंचित अनिष्ट आगाहों से।

पुनः नतन करके हम सब सिर
देव सदा वंदन करते हैं,
आज्ञा दे दो मेघ-वरुण को
देवेंद्र दुख सब हरते हैं;
आदेशों से भगवन सारे
मनुज जीव गण फिर झूमेंगे,
बंधु मानकर, ऋतुकर से मिल
सृष्टि नियम को हम चूमेंगे।
...“निश्छल”

21 August 2018

मानवता की हार

मानवता की हार
✒️
विवश मनुज को तीर लगाने
भोजन, वस्त्र, नीर पहुँचाने,
भगवन रूप बदलकर आख़िर
देवदूत बन आए हैं;
और निकम्मे से दिखते जो
वीर, बंधु-बांधव सारे वो
नाना प्रकार सहयोग बढ़ाने
मुद्रा-द्रव्य भी लाये हैं।

व्यथा बढ़ी है धरती पर
इक नहीं मनुज के जाति की,
वक्त ज़रा सा भी हो साहिब
कुछ बात कहो इक बात की;
जीव-जंतु जो जंगल में थे
रमे बसे थे मंगल में थे,
उन्हें उबारने को भी कोई
नेह-नीर के पार गए हैं?
या मानव अपनी मानवता
में ही ख़ुद से हार गये हैं?
...“निश्छल”

20 August 2018

देवदूत बन आये हैं

देवदूत बन आये हैं
✒️
मिट्टी चमन अमन संदेशे जिस धरती ने देते आये,
भगवन रूप बदल धरती पर देवदूत बन आये हैं।

भगवन जिस मिट्टी पर पग धर
सात सिंधु को पार कर
वामन भेष अवतरित हो
क्षीर सिंधु को क्षार कर

अहम हीन राजा बलि के
अतुलनीय श्रद्धा वर्धन को
जगमग-जगमग तारे जोड़े
जिस धरती के कण-कण को

मेघ चूमकर उसी धरा को वारि-वारि मुस्काए हैं,
बादल भू-आस्वादन हेतु उमड़-घुमड़ कर आए हैं।

त्रस्त धरा से स्यंदित होते
जल सैलाब मही से रिसते
वीर भेष में आसमान से
चमू जुझारों के तब दिखते

अगणित मानव के रक्षण को
चीख पुकारों से आहत हो
उनके कुट जब जलमग्न हैं
भगवन रूष्ट भाव में अब खो

धरती पर मानव रक्षण को वर्दी पहन के आए हैं,
वीर साज में आभामंडित ईश्वर स्वयं ही आए हैं।

आसमान से जीवन को
सहयोग बाँटते धीर रथी
महाप्रलय की बाधा पर भी
स्यंदन, हाँक रहे महारथी

विनय यही है जलनिधि तुमसे
साँस रोककर दर्शन कर लो
धन्य बनो हे देव उदधि
सेवन करो सीख यह सुन लो

ईश्वर भेष बदल धरती पर आसमान से आए हैं,
भगवन रूप बदल धरती पर देवदूत बन आये हैं।
...“निश्छल”

बादल-१३ (स्नेह लोभ)

बादल-१३ (स्नेह लोभ)
✒️
आसमान से झाँक रहा है, बादल, सागर के सीने में,
सूरज पूछे ऐसी भी, भागा-दौड़ी क्या तहसीने में?
नैन गड़ाये सागर अपने, मन ही मन में बोल रहा है,
क्यों नटखट यह, बरबस मुझको, आसमान से तोल रहा है?
सहता दामिनि आघातों को, मैं परितापों को अलगाता,
नादाँ बादल मुझको फिर भी, कर्कश ध्वनि से ही विलगाता
कटु वचनों से तड़प-तड़प कर, सागर नाद, हिलोरें भरता,
बादल अपनी भगति भाव में, निशि-दिन त्रास जमीं के हरता।
संकोची है नीरधि का मन, जो स्नेह जता नहिं पाता है,
स्नेह लोभ में हठयोगी घन, सागर से दूर ही जाता है।

लाचारीवश सभी मछलियाँ, मिन-मिन गाती तैर रहीं हैं,
नीर सतह पर छोड़ बुलबुले, आगे जाकर फैल रही हैं;
संदेशे बादल को देकर, आपस में कुछ बोल रही हैं,
आसमान से झाँक रहे, बादल भेदों को खोल रही हैं।
अबकी बरखा खेल नया सा, बादल कोई यह खेलेगा,
अफ़सोस करेगा सद्कर्मों पर, पछतावों को झेलेगा;
गलती करके वह, अपनी अँखियों, अँसुवन दर्द बहायेगा,
फिर तरल हृदय कर, अंतर्मन में, स्नेह सुधा उपजायेगा।
समझातीं हम, समझ न पाता, अर्क उसे बहु भाँति रिझाता,
अपनों से ही मोड़ मुखों को, निर्दयता के रोग लगाता।
मन की पीड़ा शांत किये, बादल सबकी क्लांति हरेगा,
सहज नहीं गुन आख़िर यह, फिर बादल कैसे शांत रहेगा?

संदेशे मछली के पाकर, बादल प्रमुदित हो जाता है,
सुबह-सवेरे बादल मुखड़ा, अब बरबस ही खिल जाता है;
दुनिया भर की खुशी समेटे, सुखी, संपन्न हो जाता है,
ज्योतिर्मय मुखड़ा बादल का, स्नेह स्तंभ सा बन जाता है।

संध्या के अहसान तले जब, खो जाता है सूरज जाकर,
अहं दूर हो जाता घन का, सूरज से ही धोखा पाकर।
अपने ही घर में बादल तब, मुख छिपा, तिमिर में खोता है,
दीख न पड़ता दुनिया को जब, मन ही मन में वह रोता है।
आवेगों में कभी न आता, दुख में जीवन नीर बहाता,
परहित में सेवा करना ही, बादल हमको है सिखलाता।
आँसू भी परहित में जिसके, गिरते दर्द मही के हरते,
औरों की सामर्थ्य नहीं, अपने ही बस दुखी हैं करते।
पर सागर सारे गुण आगर, बन संकोची ताक रहा है,
औ' नटखट बादल बस बरबस, आसमान से झाँक रहा है।
...“निश्छल”

15 August 2018

आहत ठुमके

आहत ठुमके
✒️
पनघट पर तेरे ठुमकों ने, मरघट से मुझे पुकारा है;
कानों में छन से गूँज रही, यह अमर सुधा की प्याला है।
बेसुध सा सोता रहा सदा, अब ही तो जा कर जागा हूँ;
सौभाग्य प्राप्त हुआ मुझको, वैसे तो निरा अभागा हूँ।
तेरे दर्शन करने आयी, यह रूह युगों की प्यासी है;
कुदरत ने गोदी में रखकर, मेरे अरमान तराशी है।
चेतन के पतझड़ में आई, बेला वसंत की प्यारी सी;
इक बार बजा दे घुँघरू फिर, तानों में विस्मृति सारी सी।
मैं भूल चुका था सदियों से, नगमें अब वे ही गाता हूँ;
अँधियारों में है वास रहा, कब्रों में दीये जलाता हूँ।
दिखला दे छमकाती पायल, अभिलाषा मेरी चाहत की;
क्या पनघट पर इन ठुमकों को, अरमानें मेरी आहत कीं?
मैं क्षमा माँगता हूँ झुक कर, अभिनंदन, शीश नवाता हूँ;
जो नहीं गवारा है तुझको, मरघट में अपने जाता हूँ।
...“निश्छल”

14 August 2018

गुज़रा ज़माना

गुज़रा ज़माना
✒️
बचपन का ज़माना गुज़र गया
बेसब्र मेरे आँसू न रुके;
आँखों ने बगावत कर डाली
सूखे अचकन भी भींग पड़े।

कल तक का जीवन स्वप्न हुआ
कल तक की राहें छूट गईं;
मेरे अधराधर पल्लव से
इक नज़्म की डाली टूट गई।

कल तक जो अपनी सी ही थी
वह दुनियादारी और हुई;
बचपन की क्रीड़ा अविरल सी
अब कठिन काल की कौर हुई।

ना दिखती है चुलबुल सी हँसी
ना रही बात बेगानों की;
अब ढूँढ़ रहे तरु पैसों के
टोली वो ढीठ दीवानों की।

मस्तानी आँखों में सपने
अब नहीं किसी को भाते हैं;
मदमस्त नयन वो हिरनी के
अब सैन नहीं बरपाते हैं।

नायाब तोहफ़े कनखी के
वो बारिश वाली गश्ती के;
नादान, सवेरा लौटा दे
वो बचपन पूरी मस्ती के।

ऐ वक्त पकड़ ले हाथ भला
ले चल मुझको उस बस्ती में;
लूँ झूम ज़रा सा फिर से मैं
दो क्षण बैठूँ उस कश्ती में।

इनकार नहीं मुझको कुछ है
तकरार नहीं तुझसे कुछ है;
नादान सरीखे मन मेरे
इकरार तुझी से बस इक है।

तू नन्हा सा बन जा फिर से
ना तुझको कोई खोट मिले;
वादी में दुनियादारी की
ना तुझको कोई चोट मिले।

असहाय खड़ा मत देख सँभल
रथ, बरबस भागा जाता है;
मत हाथ मसल, तू देख अभी
यह युग, भी बीता जाता है।

नासमझ परिंदे मन मेरे
फड़-फड़ करना अब छोड़ो जी;
कच्ची डगरों पर जीवन के
मुँह नहीं किसी से मोड़ो भी।

कच्ची डगरों के आज अभी
तू बन जा आशिक परवाने;
गुण गायें सारे जग वाले
रच दे कुछ ऐसे अफ़साने।

ओ सावन उन्नीस मेरे तू
जा बदल चाल अब नौंवीं की;
क्या करूँगा मिटकर मरघट में
जब उमर रहेगी सौंवी की।
...“निश्छल”

12 August 2018

बादल-१२ (जुमला)

बादल-१२ (जुमला)
✒️
लेट यहाँ पर घड़ी भर, बादल के घूँट दो पीता हूँ,
जीवन पैमाना नीरस है इसीलिये तो जीता हूँ,
ऊँघ रहा हूँ इस पल मैं अपने ओसारे में बैठे,
उपनिवेश करुँ बादल के, खेतों में बादल सीता हूँ।
बात करुँ कुछ बहके यदि, लोग कहें क्या-क्या कहता है,
शपथ मुझे पानी की, जो मरुत इशारे पर उड़ता है,
पुँजे-पुँजे खड़ी फ़सल की तृष्णाओं की बात रही तो,
हर पल, हर क्षण, हर घर, हर मन बूँदों को संजोता हूँ,
पत्ते-पत्ते, दाने-दाने उपवन के फूल सुहाने,
बादल जो कुछ कहता मुझसे वही बयाँ मैं करता हूँ।

माना मुझको तृष्णा कोई, छू नहीं सकी है अब तक,
निस्स्वार्थ बात कहूँ क्या, ऐसे ही निरुपाय रहूँ क्या,
हौले-हौले आयामों से, नज़र सरकती जाती है,
अब मैं अपनी अभिलाषी, उत्कंठा की बात करुँ क्या,
ऐसे में तुम मेरे जुमले याद सदा रखना साथी,
मेरे कूल मुझे बता निज कल्याणों की बात करुँ क्या?
वसुधा के कण-कण में बसते, प्राण तत्व को इंगित कर,
सत्व विवेक, सुधा उपार्जन से, हर पल सिंचित करता हूँ,
अधःसजीवन अपने प्राण, उत्सर्जित करने को तत्पर,
तेरी उपकारी नैया की, बाट जोहता रहता हूँ।
...“निश्छल”

09 August 2018

बादल-७ (मेघावधान)

बादल-७ (मेघावधान)
✒️
देखो बादल हमसे बरबस, आसमान से बोल रहा है,
या जाने कुछ और समाहित, मर्म ज्ञान यह घोल रहा है।
पानी के कंदुक को धरती, फेंक रही है बादल के घर,
मेघ पकड़कर उनको फिर से, धरती पर ही फेंक रहा है।
क्रीड़ांगन में बसे रमे हम, खेल अनेकों देख रहे हैं,
और इन खेलों से मुग्धित, नैनों को अपने सेंक रहे हैं।

अपने अंतर में संजोए, हुए है अपने भावों को,
वर्णित करना बहुत कठिन है, बादल के स्वभावों को।
कोई भाव जो छलके वो, मुख मंडल तक आते हैं।
विद्युत जैसे कौंधते हैं, गर्जन सी आवाजें हैं।

बच्चे बरबस डरते हैं, निश्छल उन सद्भावों से,
हम भी तो दूर नहीं हैं, मन के कुटिल दुरावों से।
बादल अपने गुण-अवगुण, खुद को ही समझाता है,
शांत किये मन भावों को, दो घूँट बरस जाता है।

उसके सर पर ताज सजाऊँ, मिले कभी सरताज बनाऊँ,
लगता मुझे सहृदय बहुत, बादल को मैं आज बताऊँ।
ओ मेघ धरती पर आओ, चिड़ियों के पंखों पर बैठ,
बैठो कहीं पाषाणों पर, खेलेंगे हम खेल अनेक।
घोर विपिन में विचरण कर, हम लता-डाल पर झूलेंगे,
हमको सौंह पहाड़ों की, हम पत्तों पर भी खेलेंगे।
...“निश्छल”

01 August 2018

ऐ कविता तेरी विधा क्या है?

ऐ कविता तेरी विधा क्या है?
✒️
मैंने पूछा सुहानी धूप से
मीठे पानी भरे हुए कूप से,
खग-वनचरों के घोसलों में झाँँक के
हरी चादर ओढ़े मृदुगात से।
दूर खड़े शीशम के पेड़ से
खुश्बू क्यारियों के लबरेज से,
ऐ कविता तेरी विधा क्या है?

पूछा आसमानी बूँद से
शून्य से बने संदूक से,
विह्वल से उड़ते कपास से
धवल चाँदनी के आयाम से।
बुदबुदाहट सी निकली आवाज में
पूछा ये खिलते गुलाब से,
ऐ कविता तेरी विधा क्या है?

पूछ बैठा बादलों के छाँव से
बहती चली जाती नाव से,
मस्ती सी चढ़ती उमंग में
नागों के तीखे विषदंत में।
ढूंढा हर जगह हर माँद में
सिंह गर्जन के आवाज में,
ऐ कविता तेरी विधा क्या है?

जाँचता चला गया उस ठौर भी
न जाता जहाँ कोई और भी,
मृगतृष्णा के पीछे फिराक से
पिपासित परिंदे सा आस से।
तलहटियों में बसते सुराख में
छाना सागर के हर एक खाक में,
ऐ कविता तेरी विधा क्या है?

ढूँढा बड़े ही बिसात में
नहीं मिलते, जवाबों के आस में,
टटोलता रहा आदि अक्षरों से
संचित व्याकरण शास्त्र में।
चलता चला गया प्रभात से
लौट आया निशा की आवाज से,
ऐ कविता तेरी विधा क्या है?

डूबता गया स्वप्न धार में
नीरव स्तब्ध प्रकाश में,
अधरों से चित्त के प्रस्फुटित हुआ
खिली पंखुड़ियों सा पहने लिबास में।
नीर धारा सी निकले प्रवाह में
प्रवाहित रहे उल्लास में,
यह प्रवाह ही कविता की विधा है।
...“निश्छल”