कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

17 January 2020

ऐ हमदम...

ऐ हमदम...
✒️
मन के मनके, मन के सारे, राज गगन सा खोल रहे हैं
अंधकार के आच्छादन में, छिप जाने से क्या हमदम..?

शोणित रवि की प्रखर लालिमा
नभ-वलयों पर तैर रही है,
प्रातःकालिक छवि दुर्लभ है
शकल चाँद की, गैर नहीं है।

किंतु, चंद ये अर्थ चंद को, स्वतः निरूपित करने होंगे
श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।

छवि की छवि, छवि से परिभाषित
मानक कुछ ऐसे निश्चित हैं,
सोलह आने छवि निर्मल हो
मगर, विभूषित अत्यंचित हैं।

आभूषण का मेल नहीं यदि, सौम्य नहीं गर संरचना हो
संज्ञाओं के जप करने की, नहीं महत्ता है हमदम...।
...“निश्छल”