कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

27 July 2018

बादल - १४ (आकुल बादल)

बादल - १४ (आकुल बादल)
✒️
टप टप टपक रहा है बादल, इक खाल लपेटे काली सी;
मानो सूरज की गर्मी से, महसूस करे बदहाली सी।
खर, भस्म पड़े अब खेतों में, अगली फसलों की बारी है;
है दावानल भी तृप्त नहीं, दीन-मलिन कृषक दुखारी है।
सज्जन बादल गहरा होता, पुनर्विचार ठहरकर करता;
पर विधि, लेखों में जाने क्यों, खेती को बेगारी लिखता।
ऐसी बातें सुन सोच समझ कर, बादल आकुल हो जाता है;
बरस नहीं सकता जी भरकर, आँखों से तब बरसाता है।

खुले आसमाँ के अँगने में, लुढ़के हैं दो नन्हें तारे;
पिचके गाल और होठों पर, रचे कुपोषण भिन्न नज़ारे।
सुधागेह के घर से भी जब, रुष्ट भाव वापस हो जाते;
धरती पर आकर रातों में, कलरव खेल खेलते जाते।
चंदा की वे किरणें आकर, मलिन आँख को चूम निहारें;
हा दाता! ये कैसी करनी, पाप किये क्या ये बेचारे?

सुबह-सवेरे हल लेकर फिर, अस्थि शेष खेतों में जाते;
धरनी के पालन करने के, कल के पावन ख़्वाब जिलाते।
पर, क्या गुज़र रही होती है, उन मन-मानस के पोरों में;
अन्न नहीं है जिस अँगने में, दुर्बलता कोने-कोनों में।
मालिक मेरे, दाता कह दे, विवश वही क्यों हो जाता है;
कर्म प्रथम नित रखता है जो, वही सज़ा फिर क्यों पाता है?
...“निश्छल”

25 July 2018

सरसब्ज़ ज़िंदगानी

सरसब्ज़ जिंदगानी

✒️
कलम की सियाही है, या स्याह उमंग है,
रुका है तो तरल,
चल दिया तो कभी अमृत, कभी गरल।
कभी मैं समझ नहीं पाता हूँ,
कभी लोगों को बतलाता हूँ।
कभी सोचता हूँ,
ये मेरी ख़ासियत है जो कागज पर बिखर गयी है,
या लेखनी की स्याह भावनाएँ,
जो श्वेत पत्र पर तरंगित हो उठी हैं?

काले अक्षर तो आधुनिक उपकरणों में भी रच दूँ,
मगर, सिर को नत किये,
घुली हुई रोशनाई की सलोनी ख़ुशबू को,
कहाँ से पाऊँगा।
यही सोचकर हर सुबह कलम उठाता हूँ।

स्याह महक की आदी 
मेरी साँसें ही प्रफुल्लित नहीं होतीं,
प्रसन्न होता है वह दिन, वे लोग, वे चीजें,
जिन्हें मैं देखता हूँ, जिन्हें छूता हूँ,
जिन्हें अपनी नज़्में सुनाता हूँ।

मैं कलम को घुमाता हूँ तो,
कुछ निशान कागज पर उभरते हैं।
लोगों के ज़हन में कभी जादू सा उतरते हैं,
तो कभी लकीरें, बोरियत की मिसाल बनती हैं।

सफेद कागज़ से मिलकर, काली रेखाएँ,
कुछ ऐसी फुहार बनती हैं,
जिन्हें देखकर मैं शाम-ओ-सुबह,
मुस्कुराता रहता हूँ।
और फुहारें, मेरे सपनों में आकर,
दिनभर की मुरझाई मेरी ज़िंदगानी को,
फिर से सरसब्ज़ कर जाती हैं।
...“निश्छल”

22 July 2018

चाँद की फ़सल (बालगीत)

चाँद की फ़सल (बालगीत)
✒️
शीतें बोता रहा चाँद निशि, तारे खिल्ली उड़ा रहे थे;
दिखा तर्जनी उस चंदा को, मर्यादाएँ झुठला रहे थे।
बेचैनी थी नादानी थी, शैतानी भी उकसाती थी;
टिमटिम तारों की आवाजें,चंदा को बस भटकाती थीं।
बच्चों के मुँह भी क्या लगना, चंदा शीतों को बोता था;
नील गगन में विचरण करके, श्वेत स्वप्न वह संजोता था।
शीतों को बो दिया चाँद ने, थी तारों में खलबली मची;
हँसी ठहाके छूटे आख़िर, अब जुगत ना उनकी एक बची।

इधर हवा से मिलकर चंदा, सारे नभ को सींच दिया था;
ना जाने कैसे उपवन भी, रात-रात में भींग गया था।
थका-थका सो गया चाँद फिर, स्वप्न सुनहरे बुनती रजनी;
उठकर बैठ गया ऊषा में, आनंदित थी सारी धरणी।
खुशी बाँटने को जब देखा, चाँद, सितारों का भी मुखड़ा;
तारे झट से ओझल हो गए, दिखता था बस उनका दुखड़ा।
उत्साहित सा चाँद फिरा फिर, सूरज सम्मुख जाकर बोला;
काटो सूरज फ़सल शीत की, बाँटेंगे हम दो - दो तोला।
...“निश्छल”

21 July 2018

सावन की गति

सावन की गति
✒️
नवरंग समाँ अब तान चला, बरसात नया चुपके - चुपके
अबकी बरखा सखि हूक उठे, लहरे मन में चुपके - चुपके;
डुबकी कहुँ लेत सुदेश उठे, जल, सावन में चुपके - चुपके
अभिनंदन में सिर डाल खड़ा, पिक वायस भी चुपके - चुपके।

जलमग्न हुआ घर गाँव जहाँ, कुश नार उगें चुपके - चुपके
चतुरंग उमंग चढ़ी मन में, अब बागन में चुपके - चुपके;
पनिहारिन गागर लेइ चली, सखि सावन में चुपके - चुपके
बरखा अनुरक्त हुआ मन है, सर ताल भरें चुपके - चुपके।

गहि हाथ बिसारि सुधी जन भी, चित चिंत्य तजें चुपके - चुपके
रमते फिरते मग प्रेम भरे, असु चातक के चुपके - चुपके;
अतिवृष्टि हुई जग चैन मिला, जब सावन में चुपके - चुपके
शुभ भोर भई ऋतु सावन की, निकला दिन भी चुपके - चुपके।

खलिहान बड़ा अब सून दिखे, स्वर भेक बजें चुपके - चुपके
खग वृक्ष दिखें अब तृप्त बड़े, घन कानन में चुपके - चुपके;
परिधान नवीन लपेट हवा, इक नज़्म पढ़े चुपके - चुपके
सुनि झूमि रहे नर नारि सभी, गति सावन में चुपके - चुपके।

निज रूप तजे अब चंद्र खड़ा, घन सावन में चुपके - चुपके
कहि कौन सके विरही जग में, निशि काट रहा चुपके - चुपके;
पिय झाँकि रहे तुम क्या छुपके, हिय शूल चुभें चुपके - चुपके
झुकि जाय रहीं विरही अँखियाँ, तुम याद करो चुपके - चुपके।
...“निश्छल”

11 July 2018

अमित्राक्षर (तारों का रस…)

अमित्राक्षर
(तारों का रस…)

✒️
देखकर तारकमय व्योम, एक संध्या, कविता ने कहा
ले चल बटोही सैर कराने सृष्टि की, मैं भी देखूँ जरा।

बाल्यमन विचरण किया…
हवा के पर लगाये उड़ चला
किलकारियाँ करता, कभी खेलता-उछलता
एक हवा से दूसरे पर फुदकता,
फूलों के सुगंध पर लेट, जरा सुस्ता के
मैं और मेरी कविता…
वट विटप पर्ण सान्निध्य में दावत मनाता
पीपल पत्रक के हिंडोले बनाता,
समस्त तरु पत्तियाँ और फूल सी उनकी रानियाँ
प्रसन्न हुईं मुस्का के, करतल - तालियाँ।
हवा भूचाल सी जब आयी
बदल करवट, ऐंठकर, उसने ली अंगड़ायी
छूकर धरा को चली, अट्टहास कर गगन में
संग कविता उड़ चला, उसको भरे अँकवार मैं,
मेघ के मेराज पर चढ़ता चला।।
मैं और मेरी कविता…


रास्ते की प्यास…
उचककर सीढ़ियों से बादल के, तारे कुछ तोड़े
तारों के निर्यास से बुझा तृषा को
परितोष हुआ बहुत और सोचा…
ले चलूँगा घूँट कुछ कुटुंब में
मैं और मेरी कविता…

पार पहुँचा क्षितिज के…
नूतन आयाम, परिवेश, नयी सी दुनिया
हर ओर मनोहर दृश्य, नयन अघाते नहीं थे,
शुभ्र चाँदनी पहरा दिये तालाब पर
निश्चल कमलिनी, शोभित होता यों मानसरोवर
बढ़ चला उदीची, जिधर देखी एक उदितयौवना।
जलक्रीड़ा किये बहु भाँति
छींटे उछाले मैं और ज्योत्स्ना
अनुराग पनपे पुष्पदल समुदाय से
सुधा पान करातीं कला-निधि की रश्मियाँ,
रुचिकर समाँ आसमाँ के दृष्टिगोचर
चित्त में कल्पित हुयी उद्भावना,
बसूँगा पार अब शृंगारहाट के मैं
कर सरोवर में परिणयन।।
मैं और मेरी कविता…


कुछ और उमाह बीते…
किरणों का स्पर्श,
ऊषा के आगमन का
पर हाय, भोर की किरण क्यों बेधती चली गयी
बूँद-बूँद गिर रही, मधुमयी, रस-भीजना
पुष्प रज टपक रहा,
भाव कुछ यों रचे मनसरस बीच में
धारण कर अमित अमिय, हो जाऊँ मैं अमिट
या कर दूँ अमर अपनी कविता।।
मैं और मेरी कविता…
...“निश्छल”

06 July 2018

शहीद की विधवा

शहीद की विधवा

✒️
वीर रस, जन गण सुहाने गा रहे हैं
पंक्तियों में गुनगुनाते जा रहे हैं,
तारकों की नींद को विघ्नित करे जो
गीत, वे कोरे नयन दो गा रहे हैं।

ज़िंदगी की राह में रौशन रही वो
माँग में सिंदूर, सर चूनर बनी थी,
रात के अंधेर में बेबस हुई अब
जिंदगी की नींव है उजड़ी हुई सी।
जोग, ना परितज्य वो भी जानती है,
पर निरा मंगल हृदय से साजती है
रिस भरा है जीव में उसके तभी तो,
साँस में हरदम कसक सुलगा रही है।
साँस रुकनी थी, मगर तन था पराया
लाश देखी नाथ की, तब भी रही थी,
चीख भी सकती नहीं कमजोर बनकर
हार उसके प्राण की, नाज़ुक घड़ी थी।
अंत्य साँसें भी अभी कोसों खड़ी हैं,
जागती, जगकर निहारे, देखती है
कर, निहोरे जोड़कर, वंदन सहज कर,
अंत में अंतस तिरोहित ढूँढ़ती है।

दीन सी आँखें अभी सूखी नहीं हैं,
औ' उधर बदमाश चंदा झाँकता है
हाथ की लाली अभी धूमिल नहीं है,
ताक कर तिरछे, ठठाकर, खाँसता है।
दुर्दिनों पर डालकर मुस्कान कलुषित,
हेय नज़रों से ज़रा उपहास करता
क्या पता उस रात के राकेश को भी,
यातना से त्रस्त भी कुछ माँग करता।
सर उठाकर आँख को मींचे कठिन सी,
माँगती अंगार, उल्का पिंड से जो
गिर रहे गोले धरा पर अग्नि दह सम,
अंब के अंबार से बुझ जा रहे वो।
वह बहुत सहमी खड़ी है ठोस बनकर,
धूल की परछाइयों सी पोच बनकर
दूर है अर्धांग उसका जो सदा को,
देश पर कुरबान है दस्तूर बनकर।

गीत गाते जा रहे हैं जो सभी ये,
दो दिनों के बाद सब भूला हुआ कल
मर मिटेंगे देश पर गर कल सभी तो,
कब कहेगा, कौन यह दस्तूर प्रति पल।
...“निश्छल”

05 July 2018

नवयुग का आगाज़

नवयुग का आगाज़
✒️
मंद हुआ वासंती झालर, बंद महक, चिड़िया चहकार;
बागीचों में, बागानों में, मूक खड़े पादप फ़नकार।
द्रवित नेत्र सुंदर पुष्पों के, नहीं मिले नन्हीं पुचकार;
नन्हे हाथों ने थामा अब, मोबाइल का दामन, भार।
गुंजन ना गूँजे कानों में, बड़ा मशीनी है परिवार;
रहें साथ नित ही निशि वासर, नहीं दीखता फिर भी प्यार।
फिरता रहे उदासी भरकर, बगियन में गुमसुम मधुमास;
तितली भी अब सुस्त हो गई, पीछे ना भटकें बदमाश।
छुट्टी बीत गयी गरमी की, नहीं दिखे पग बाहर चार;
बंद सलाख़ों सी दीवारें, करती हैं उनका दीदार।
हवा शुद्ध क्या होती है यह, नहीं पता उनको पहचान;
अनुकूलित हो गये घरों में, गैजेट घेरे हुए महान।
जब से कागज लगा सिमटने, इंटरनेटी सभी सुजान;
बच्चे टचस्क्रीन में उलझे, नैया अब बिल्कुल अनजान।
कहीं कलेजा ऐंठ खड़ी है, बरखा रानी बहुत उदास;
बादल भी बेढंगे दिखते, बरखा का जल हुआ निराश।
बहता पानी मोहल्ले से, बनकर दीन चला समंदर;
कागज की नाव नहीं एक भी, ना कोई नहाया अंदर।
कश्ती बस प्रेमी को जँचती, उनके प्रेम की मोहताज़;
मोबाइल से कर बैठे हैं, बच्चे नवयुग का आगाज़।
...“निश्छल”

02 July 2018

मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है

मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है
✒️
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है,
घर में रखा कुरान, अब वेद हो गया है।
हर चेहरे के रंग पहचान सकता हूँ
क्योंकि,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है।

दीख नहीं रहा मुझको, चश्मे का वह टैटू,
जिसने हिंदू-मुसलमां, अलग सहेज रखा है;
लहू की बोतलों में भी नहीं है फ़र्क़ रंगों का,
मज़हबी नाम भी उन पर नहीं कुरेद रखा है।
साहेबान, कद्रदान और बा-ईमान
झूठी तालियाँ मत बजाओ भाईजान,
सरकारी हुकूमत की आँधी में
बादलों का रेड हो गया है
क्योंकि,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है।

धुंध भी  मिटेगी जल्द ही वतन से,
धुन बादलों ने ऐसा इक छेड़ रखा है;
होगी चमन में यारी अब सात रंगों से,
मकरंद ऐसा इस मौसम ने बिखेर रखा है।
रात के दामन में देखो, अंधेरा है थम गया
कोहिनूर का उजाला उनको भेद गया है,
पहचान लेंगे कपटी चेहरों को, पल में सभी
क्योंकि,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है

भला हो ऐ मालिक, उस मिस्त्री का
न बनाया जिसने खून के रंगों को जुदा,
वरना लाल हिंदू, मुसलमां हरा और
सफेद ईसाई के ज़ख्मों की रंगत होती;
नयी इक जात हम बनाते, सभी मिलकर
फिर लड़ाई वतन में, लहू के रंगों की होती,
तम की रातों को हमने ज़रख़ेज रखा है
जो इंसानियत से हमको परहेज़ हो गया है,
सँभालो तम को, मसीहा ज़माने के मेरे,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है।
...“निश्छल”