बादल - १४ (आकुल बादल)
✒️
टप टप टपक रहा है बादल, इक खाल लपेटे काली सी;
मानो सूरज की गर्मी से, महसूस करे बदहाली सी।
खर, भस्म पड़े अब खेतों में, अगली फसलों की बारी है;
है दावानल भी तृप्त नहीं, दीन-मलिन कृषक दुखारी है।
सज्जन बादल गहरा होता, पुनर्विचार ठहरकर करता;
पर विधि, लेखों में जाने क्यों, खेती को बेगारी लिखता।
ऐसी बातें सुन सोच समझ कर, बादल आकुल हो जाता है;
बरस नहीं सकता जी भरकर, आँखों से तब बरसाता है।
खुले आसमाँ के अँगने में, लुढ़के हैं दो नन्हें तारे;
पिचके गाल और होठों पर, रचे कुपोषण भिन्न नज़ारे।
सुधागेह के घर से भी जब, रुष्ट भाव वापस हो जाते;
धरती पर आकर रातों में, कलरव खेल खेलते जाते।
चंदा की वे किरणें आकर, मलिन आँख को चूम निहारें;
हा दाता! ये कैसी करनी, पाप किये क्या ये बेचारे?
सुबह-सवेरे हल लेकर फिर, अस्थि शेष खेतों में जाते;
धरनी के पालन करने के, कल के पावन ख़्वाब जिलाते।
पर, क्या गुज़र रही होती है, उन मन-मानस के पोरों में;
अन्न नहीं है जिस अँगने में, दुर्बलता कोने-कोनों में।
मालिक मेरे, दाता कह दे, विवश वही क्यों हो जाता है;
कर्म प्रथम नित रखता है जो, वही सज़ा फिर क्यों पाता है?
...“निश्छल”
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टप टप टपक रहा है बादल, इक खाल लपेटे काली सी;
मानो सूरज की गर्मी से, महसूस करे बदहाली सी।
खर, भस्म पड़े अब खेतों में, अगली फसलों की बारी है;
है दावानल भी तृप्त नहीं, दीन-मलिन कृषक दुखारी है।
सज्जन बादल गहरा होता, पुनर्विचार ठहरकर करता;
पर विधि, लेखों में जाने क्यों, खेती को बेगारी लिखता।
ऐसी बातें सुन सोच समझ कर, बादल आकुल हो जाता है;
बरस नहीं सकता जी भरकर, आँखों से तब बरसाता है।
खुले आसमाँ के अँगने में, लुढ़के हैं दो नन्हें तारे;
पिचके गाल और होठों पर, रचे कुपोषण भिन्न नज़ारे।
सुधागेह के घर से भी जब, रुष्ट भाव वापस हो जाते;
धरती पर आकर रातों में, कलरव खेल खेलते जाते।
चंदा की वे किरणें आकर, मलिन आँख को चूम निहारें;
हा दाता! ये कैसी करनी, पाप किये क्या ये बेचारे?
सुबह-सवेरे हल लेकर फिर, अस्थि शेष खेतों में जाते;
धरनी के पालन करने के, कल के पावन ख़्वाब जिलाते।
पर, क्या गुज़र रही होती है, उन मन-मानस के पोरों में;
अन्न नहीं है जिस अँगने में, दुर्बलता कोने-कोनों में।
मालिक मेरे, दाता कह दे, विवश वही क्यों हो जाता है;
कर्म प्रथम नित रखता है जो, वही सज़ा फिर क्यों पाता है?
...“निश्छल”