नवयुग का आगाज़
✒️
मंद हुआ वासंती झालर, बंद महक, चिड़िया चहकार;
बागीचों में, बागानों में, मूक खड़े पादप फ़नकार।
द्रवित नेत्र सुंदर पुष्पों के, नहीं मिले नन्हीं पुचकार;
नन्हे हाथों ने थामा अब, मोबाइल का दामन, भार।
गुंजन ना गूँजे कानों में, बड़ा मशीनी है परिवार;
रहें साथ नित ही निशि वासर, नहीं दीखता फिर भी प्यार।
फिरता रहे उदासी भरकर, बगियन में गुमसुम मधुमास;
तितली भी अब सुस्त हो गई, पीछे ना भटकें बदमाश।
छुट्टी बीत गयी गरमी की, नहीं दिखे पग बाहर चार;
बंद सलाख़ों सी दीवारें, करती हैं उनका दीदार।
हवा शुद्ध क्या होती है यह, नहीं पता उनको पहचान;
अनुकूलित हो गये घरों में, गैजेट घेरे हुए महान।
जब से कागज लगा सिमटने, इंटरनेटी सभी सुजान;
बच्चे टचस्क्रीन में उलझे, नैया अब बिल्कुल अनजान।
कहीं कलेजा ऐंठ खड़ी है, बरखा रानी बहुत उदास;
बादल भी बेढंगे दिखते, बरखा का जल हुआ निराश।
बहता पानी मोहल्ले से, बनकर दीन चला समंदर;
कागज की नाव नहीं एक भी, ना कोई नहाया अंदर।
कश्ती बस प्रेमी को जँचती, उनके प्रेम की मोहताज़;
मोबाइल से कर बैठे हैं, बच्चे नवयुग का आगाज़।
...“निश्छल”
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मंद हुआ वासंती झालर, बंद महक, चिड़िया चहकार;
बागीचों में, बागानों में, मूक खड़े पादप फ़नकार।
द्रवित नेत्र सुंदर पुष्पों के, नहीं मिले नन्हीं पुचकार;
नन्हे हाथों ने थामा अब, मोबाइल का दामन, भार।
गुंजन ना गूँजे कानों में, बड़ा मशीनी है परिवार;
रहें साथ नित ही निशि वासर, नहीं दीखता फिर भी प्यार।
फिरता रहे उदासी भरकर, बगियन में गुमसुम मधुमास;
तितली भी अब सुस्त हो गई, पीछे ना भटकें बदमाश।
छुट्टी बीत गयी गरमी की, नहीं दिखे पग बाहर चार;
बंद सलाख़ों सी दीवारें, करती हैं उनका दीदार।
हवा शुद्ध क्या होती है यह, नहीं पता उनको पहचान;
अनुकूलित हो गये घरों में, गैजेट घेरे हुए महान।
जब से कागज लगा सिमटने, इंटरनेटी सभी सुजान;
बच्चे टचस्क्रीन में उलझे, नैया अब बिल्कुल अनजान।
कहीं कलेजा ऐंठ खड़ी है, बरखा रानी बहुत उदास;
बादल भी बेढंगे दिखते, बरखा का जल हुआ निराश।
बहता पानी मोहल्ले से, बनकर दीन चला समंदर;
कागज की नाव नहीं एक भी, ना कोई नहाया अंदर।
कश्ती बस प्रेमी को जँचती, उनके प्रेम की मोहताज़;
मोबाइल से कर बैठे हैं, बच्चे नवयुग का आगाज़।
...“निश्छल”
सत्य बयान करती आपकी रचना बहुत खूब
ReplyDelete😁😁😁जी यही सच है आजकल का🙏🙏🙏
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteलोकेश जी बहुत बहुत धन्यवाद🙏🙏🙏
Deleteसमय सामयिक रचना .....दर्द और व्यंग दोनों ...वाह अति सुन्दर
ReplyDeleteजी सधन्यवाद नमन🙏🙏🙏
Deleteप्रिय अमित -- आज आपकी कई रचनाएँ पढ़ी | बस यही बात मन में आई की ईश्वर आपकी लेखनी को बूरी नजर से बचाए !!!!!!!!!! बहुत कुछ तेजी से बदला है | स्मार्ट फोन ने इंसानों विशेषकर बच्चो को दुनिया से अलग थलग कर दिया है | अब बच्चे तितली उडी -- बस पे चढी ---कब गाते हैं ? गर्मी की छुट्टियों में सच है अब किसी के चार पैर भी बहर नहीं दिखाई पड़ते | पहले बच्चे दोपहर बाहर तपती धूप में ही गुजार देते थे | किस्सागोई की महफिले सजती थी अब वो मात्र अतीत बन कर रह गया है | यही पहचान है परिवर्तन की | आपको अद्भुत लेखन के लिए मेरी ओर से '' स्नेह भरी शाबास !!!!!!!!! कल परसों फिर से सारी रचनाओं पर आऊँगी | आज बस पढ़ पाई कल लिखूंगी |
ReplyDeleteजी आदरणीया, सच है अब बालपन का वह मनोरम दृश्य कहाँ दीखता... कभी गाँव घरों में धमाचौकड़ी तो, गरमी की दोपहरी में दबे पाँव घर से निकल कर बागों में कच्चे आम के चटखारे लेना... हालांकि पकड़े जाने पर डाँट तो मिलनी ही थी, और कभी कभी तो दिव्य धुनाई भी😂😂😂 पर, वाकई जीवन का वह स्वर्णिम वक्त अविस्मरणीय है।
Deleteक्षमा कीजिएगा🙏🙏, मैं कोई रचनाकार या साहित्यकार नहीं हूँ, व्यस्ततम दिनचर्याओं को बीच कभी कोई समय मिल जाता है तो बस कलम घिसना शुरू... साहित्य और लेखन से मेरा दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है, ऐसे में बुरी नज़र लगने की कोई संभावना ही नहीं है। 😁😁 आपके इस स्नेहमय वचन के समक्ष करबद्ध नमन एवं आदरभाव...
इंटरनेट और सोशल मीडिया की ही देन है कि अजनबी भी एक दूसरे के कथनों और लेखों के नजदीक हैं, वरना आज मैं तो लिखने की सोच भी नहीं पाता। ऐसे ही कुछ न कुछ लिखकर साझा किया और आने वाली टिप्पणियों ने और नयी बातों को लिखने का सामर्थ्य प्रदान किया।
जो मन में आता है, उसे एक मूर्त रूप देने की कोशिश करता हूँ। और अब विशेषतः आपके स्नेह भरे शब्दाशीषों, (एवं रचना में त्रुटियों पर) सटीक प्रहार का, बड़ी बेसब्री से इंतजार करती हैं मेरी सभी रचनाएँ। शुभाशीषों की आस में🙏🙏🙏