मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है
✒️
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है,
घर में रखा कुरान, अब वेद हो गया है।
हर चेहरे के रंग पहचान सकता हूँ
क्योंकि,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है।
दीख नहीं रहा मुझको, चश्मे का वह टैटू,
जिसने हिंदू-मुसलमां, अलग सहेज रखा है;
लहू की बोतलों में भी नहीं है फ़र्क़ रंगों का,
मज़हबी नाम भी उन पर नहीं कुरेद रखा है।
साहेबान, कद्रदान और बा-ईमान
झूठी तालियाँ मत बजाओ भाईजान,
सरकारी हुकूमत की आँधी में
बादलों का रेड हो गया है
क्योंकि,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है।
धुंध भी मिटेगी जल्द ही वतन से,
धुन बादलों ने ऐसा इक छेड़ रखा है;
होगी चमन में यारी अब सात रंगों से,
मकरंद ऐसा इस मौसम ने बिखेर रखा है।
रात के दामन में देखो, अंधेरा है थम गया
कोहिनूर का उजाला उनको भेद गया है,
पहचान लेंगे कपटी चेहरों को, पल में सभी
क्योंकि,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है
भला हो ऐ मालिक, उस मिस्त्री का
न बनाया जिसने खून के रंगों को जुदा,
वरना लाल हिंदू, मुसलमां हरा और
सफेद ईसाई के ज़ख्मों की रंगत होती;
नयी इक जात हम बनाते, सभी मिलकर
फिर लड़ाई वतन में, लहू के रंगों की होती,
तम की रातों को हमने ज़रख़ेज रखा है
जो इंसानियत से हमको परहेज़ हो गया है,
सँभालो तम को, मसीहा ज़माने के मेरे,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है।
...“निश्छल”
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मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है,
घर में रखा कुरान, अब वेद हो गया है।
हर चेहरे के रंग पहचान सकता हूँ
क्योंकि,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है।
दीख नहीं रहा मुझको, चश्मे का वह टैटू,
जिसने हिंदू-मुसलमां, अलग सहेज रखा है;
लहू की बोतलों में भी नहीं है फ़र्क़ रंगों का,
मज़हबी नाम भी उन पर नहीं कुरेद रखा है।
साहेबान, कद्रदान और बा-ईमान
झूठी तालियाँ मत बजाओ भाईजान,
सरकारी हुकूमत की आँधी में
बादलों का रेड हो गया है
क्योंकि,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है।
धुंध भी मिटेगी जल्द ही वतन से,
धुन बादलों ने ऐसा इक छेड़ रखा है;
होगी चमन में यारी अब सात रंगों से,
मकरंद ऐसा इस मौसम ने बिखेर रखा है।
रात के दामन में देखो, अंधेरा है थम गया
कोहिनूर का उजाला उनको भेद गया है,
पहचान लेंगे कपटी चेहरों को, पल में सभी
क्योंकि,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है
भला हो ऐ मालिक, उस मिस्त्री का
न बनाया जिसने खून के रंगों को जुदा,
वरना लाल हिंदू, मुसलमां हरा और
सफेद ईसाई के ज़ख्मों की रंगत होती;
नयी इक जात हम बनाते, सभी मिलकर
फिर लड़ाई वतन में, लहू के रंगों की होती,
तम की रातों को हमने ज़रख़ेज रखा है
जो इंसानियत से हमको परहेज़ हो गया है,
सँभालो तम को, मसीहा ज़माने के मेरे,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है।
...“निश्छल”
बहुत ही उम्दा रचना वर्तमान में प्रासंगिक
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया, स्वागत है आपका "मकरंद" पर🙏🙏🙏
Deleteभला हो ऐ मालिक, उस मिस्त्री का
ReplyDeleteन बनाया जिसने खून के रंगों को जुदा,
वरना लाल हिंदू, मुसलमां हरा और
सफेद ईसाई के ज़ख्मों की रंगत होती;
नयी इक जात हम बनाते, सभी मिलकर
फिर लड़ाई वतन में, लहू के रंगों की होती,
तम की रातों को हमने ज़रख़ेज रखा है
जो इंसानियत से हमने परहेज़ रखा है,
सँभालो मुझको मसीहा ज़माने के मेरे,
मेरे चश्मे में अब छेद हो गया है।
बहुत बेहतरीन रचना
सादर आभार आदरणीया, "मकरंद" पर आपका हार्दिक अभिनंदन🙏🙏🙏
Deleteलाजवाब जाति वाद पर प्रहार भी और मन मे कसक भी सार्थक यथार्थ दर्शन करवाती अमूल्य रचना ।
ReplyDeleteसाधुवाद अमित जी ।
बहुत बहुत आभार आदरणीया🙏🙏🙏
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 5 जुलाई 2018 को प्रकाशनार्थ 1084 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
आदरणीय रविन्द्र जी सादर आभार, एवं धन्यवाद इस रचना को "पाँच लिंकों का आनंद" जैसे बेहतरीन मंच के योग्य बनाने के लिए🙏🙏🙏
Deleteवाह्ह..वाह्ह...बेहद लाज़वाब...चश्मे का छेद महत्वपूर्ण सबक दे गया। काश कि हम हर चश्मा उतार कर इंसानियत का चश्मा पहन लेते तो समाज की हवा में कम से कम कलुषिता का ज़हर तो न घुला होता।
ReplyDeleteअमित जी आपकी लेखनी में समाज को बेहतर नजरिया प्रदान करने की ताकत है कृपया सकारात्मक उद्देश्य की और भी कविताएँ अवश्य लिखें।
सादर।
बहुत बढ़िया कहा आपने श्वेता जी, वस्तुतः हमें इंसानियत के चश्मे की ही जरूरत है, आप सभी के आशीर्वचनों के सहयोग से लेखन में त्रुटियों को सुधारने का प्रयास कर रहा हूँ। शुभेच्छाओं के लिए आपको कोटिशः नमन, स्नेह बनाए रखें, सादर🙏🙏🙏
Deleteबहुत खूबसूरत रचना।
ReplyDeleteशब्द चयन लाजवाब है
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया🙏🙏🙏
Deleteसटीक और सार्थक रचना..
ReplyDeleteसाभार नमन आदरणीया🙏🙏🙏
Deleteलाजवाब......, बहुत खूबसूरत लिखा है आपने अमित जी ।
ReplyDeleteजी सहृदय नमन🙏🙏🙏
Deleteप्रिय अमित काश ये छेद उन धर्मांध आखों के चश्मे में भी हो जाता,जिनकी आंखें हरे और भगवा से आगे कुछ देखती ही नहीं।
ReplyDeleteबहुत ही रोचक रचना और बड़ा ही सुंदर संदेश ।लिखते रहिए समाज।को ऐसे नज़रिए की जरूरत है हार्दिक स्नेह के साथ
जी मैम, सही कहा आपने, समाज को इसी धुंध रहित नजरिये की आवश्यकता है। आपके बहुमूल्य शब्दों के लिए सादर आभार। स्वागत है आपका "मकरंद" पर🙏🙏🙏
Deleteप्रिय अमित ये टिप्पणी मैंने ही मोबाइल से की थी | आपको ढेरों स्नेह |
Deleteजी, मुझे भी लगा था कि आप ही होंगीं, लेकिन मन में संकोच भी था, सादर अभिवादन 🙏🙏🙏
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