कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

26 June 2018

पावस का चातक पूस में

पावस का चातक पूस में
✒️
अँधियारों में, पावस के जब,
शीत लगा कुलांचे-ऐंठे।
चीख उठा तब, अमराई में,
चातक घुटनों के बल बैठे।।

ओले पड़ें, वृष्टि अति, उल्का,
आँखें सदा निडर थीं उसकी।
शिशिरारि, अल्पसह दे मुझको,
हिमहीन करूँ, काया जग की।।
पूस विजय-उद्घाटित स्वर ये,
कितने जीवन लीलेगा?
अर्द्ध पौष उद्वस सा है,
माघ-शीत फिर खेलेगा।।

वायु हृदय पर चलती है ज्यों,
पैनी-शीतल, शीत कटारी।
क्षुभित विपन्न स्वयं भी है,
दृश्य देख यह परम दुखारी।।
ऐसे में, समर्थ चातक जो,
अतिशय प्रसुप्त सा रहता है।
निशि-दिन शीश लगा घुटनों में,
शनैः-शनैः आहें भरता है।।
...“निश्छल”

8 comments:

  1. चातक की विरह व्यथा....बहुत मर्मस्पर्शी रचना निश्छल जी..👌👌

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  2. 👌👌👌
    वाह अमित जी वाह
    अद्भुत शब्दों का गुँथन
    चातक की गहरी विरह व्यथा

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  3. चातक की विरह व्यथा का हृदयस्पर्शी वर्णन ... बहुत सुंदर रचना

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  4. एक चातक की विरह को बखूबी शब्दों में उतारा है अमित जी ...
    दिल को छूते हुए शब्द ...

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    1. 😊सादर धन्यवाद आदरणीय🙏🙏🙏

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