अवनमन सभी प्रतिवादों को
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क्या खाऊँ? क्या संचित कर लूँ?
इक इसी चिंत्य की चिंता में,
यापित करता शापित जीवन
नामित होता हूँ हंता में।
यद्यपि निरीहता परिभाषित
मेरे स्वेच्छित अनुभावों में,
दिग्भ्रमित ताड़ना की फाँसें
चुभती हैं मृदुल स्वभावों में।
विधिलेख अमिट कैसे होता?
घुट-घुटकर मैंने जाना है,
रज से अंबर की प्रगति स्वयं
हँस-हँसकर के पहचाना है।
प्रख्यात, प्रणति की नीति, निपुण
इस विदित ज्ञान का भान हुआ,
मौलिक जीवन में मेरे जब
मिति-चर्या का अपमान हुआ।
हा! जिसे सजाकर शीश चला
कंटक से कुंठित राहों में,
है खड़ा सामने अरि बनकर
प्रतिकार भरे उद्ग्राहों में।
अब जान सका हूँ जीवन के
निष्ठुर, अखंड अनुवादों को,
मैं, दूर परिधि से करता हूँ
अवनमन सभी प्रतिवादों को।
...“निश्छल”