कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

09 October 2021

अवनमन सभी प्रतिवादों को

अवनमन सभी प्रतिवादों को


✒️

क्या खाऊँ? क्या संचित कर लूँ?

इक इसी चिंत्य की चिंता में,

यापित करता शापित जीवन

नामित होता हूँ हंता में।


यद्यपि निरीहता परिभाषित

मेरे स्वेच्छित अनुभावों में,

दिग्भ्रमित ताड़ना की फाँसें

चुभती हैं मृदुल स्वभावों में।


विधिलेख अमिट कैसे होता?

घुट-घुटकर मैंने जाना है,

रज से अंबर की प्रगति स्वयं

हँस-हँसकर के पहचाना है।


प्रख्यात, प्रणति की नीति, निपुण

इस विदित ज्ञान का भान हुआ,

मौलिक जीवन में मेरे जब

मिति-चर्या का अपमान हुआ।


हा! जिसे सजाकर शीश चला

कंटक से कुंठित राहों में,

है खड़ा सामने अरि बनकर

प्रतिकार भरे उद्ग्राहों में।


अब जान सका हूँ जीवन के

निष्ठुर, अखंड अनुवादों को,

मैं, दूर परिधि से करता हूँ

अवनमन सभी प्रतिवादों को।

...“निश्छल”

5 comments:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 11 अक्टूबर 2021 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत-बहुत आभार मैम। सादर नमन।

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  2. वाह! अत्यंत प्रभावी सृजन

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    1. हमारे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है🙏

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  3. हा! जिसे सजाकर शीश चला

    कंटक से कुंठित राहों में,

    है खड़ा सामने अरि बनकर

    प्रतिकार भरे उद्ग्राहों में।

    जीवन का ये कटु सत्य जीवन भर समझ नहीं आता तब समझते हैं जब वाकई परिधि पर होते हैं
    बहुत ही उत्कृष्ट एवं लाजवाब सृजन।
    वाह!!!

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