कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

17 November 2018

सूर्य षष्ठी

सूर्य षष्ठी
✒️
गगन से दूर जातीं हे!, किरण सूरज ज़रा ठहरो
गमन करतीं सुनो रुककर, दिवस की हारती पहरों;
अकिंचन चाँद तारे हैं, सँवरती शान तुम्हारी
अरघ लेकर खड़ीं देवी, धरा की शान हैं सारी।
घुमड़कर साँझ की आँखों, चली आना कभी फिर तुम
विनय यह मानिये मेरी, निद्रा देवी तनिक हों गुम;
किरण के दान देता जो, दिनों के भाल पर चमके
परम रवि पूजने आये, बहुत विधि नार बन-ठन के।
खड़ीं माता-बहन जल में, करों में अर्घ को पकड़े
प्रभो! अब देख लो अपने, चमकते धूप को जकड़े;
चले हो अस्त होने को, क्षितिज के पार हे दाता
स्वरों को बाँधकर गातीं, विपुल गीतें बहन माता।

निशा के स्यंदनों में जो, शयन करते तरुण ज्योतित
प्रभा में सुर्ख़ आँखें ले, गगन में खिल उठे केतित;
अनश्वर ईश के दर्शन, उमड़ कर लोग आये हैं
उरों में पुष्प से कोमल, मधुर अहसास लाये हैं।
तुहिन किलकारियाँ करता, रमा है घाट पर निशि से
चमक हीरों जड़ी उसकी, सरल मुस्कान पर बरसे;
वहीं है शाम से बैठी, भगति की भाव माँ ऐसे
अँधेरे की नदी में वह, इना की नाव हो जैसे।
समर्पण देखकर प्रभु तुम, सदा वरदान यह देना
कि जो व्रत-दान करते हों, भगत के मान रख लेना;
उदय होते रहो उस घर, न जिसमें पाप छाया हो
रहे निश्छल सदा प्राणी, जहाँ पर दैव माया हो।
...“निश्छल”

07 November 2018

क्या छिपा रखा प्रिये

क्या छिपा रखा प्रिये
http://hindi.pratilipi.com/user/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A4-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF-k80536hh5i?utm_source=android&utm_campaign=myprofile_share
✒️
हार जाता हूँ स्वयं ही, शस्त्र सारे डालकर;
क्या छिपा रखा प्रिये, इस मधुमयी मुस्कान में?

तीव्र बाणों की मधुर
संवेदना से आह भरता,
प्राण के प्रतिबिंब में
उस प्रेरणा की चाह करता,

मैं स्वतः ही मिट रहा, संजीवनी की खान में;
क्या छिपा रखा प्रिये, इस मधुमयी मुस्कान में?

कोंपल से सौम्यता
नव कली से अनुराग पाता,
सुवास रंजित पुष्प के
किलकारियों को गुनगुनाता,

खो गया हूँ मैं मधुप, फुलवारियों के गान में;
क्या छिपा रखा प्रिये, इस मधुमयी मुस्कान में?

स्नेह मन में है छिपा
निशि कोटरों से ख़ौफ़ खाता,
चंद्र की द्युति देखता
सौदामिनी उपदान पाता,

इक बार दर्शन दे प्रभा, जान आये जान में;
क्या छिपा रखा प्रिये, इस मधुमयी मुस्कान में?

कुहुक करती कोकिला
कंदर्प गति मन मोहती है,
झाँक कर के बसंती
मन मृणाल को टटोलती है,

डाल जादू मोहिनी, ऋतु की नयी इस तान में;
क्या छिपा रखा प्रिये, इस मधुमयी मुस्कान में?
...“निश्छल”

03 November 2018

दान-धर्म की महिमा क्या तुम

दान-धर्म की महिमा क्या तुम
✒️
दान-धर्म की महिमा क्या तुम, समझ गये हो दानवीर?
अगर नहीं तो आ जाओ अब, संसद के गलियारों में।

रणक्षेत्रों की बात पुरानी
भीष्म, द्रोण युग बीत गए हैं,
रावण, राम संग लक्ष्मण भी
पग-पग धरती जीत गये हैं,
कलि मानस की बात सुनी क्या, कौन्तेय हे वीर कर्ण?
अगर नहीं तो आ जाओ अब, संसद के गलियारों में।

रथी बड़े थे, तुम द्वापर के
महारथी थे और बहुत भी,
अर्जुन के संग नारायण भी
लोहा मान चुके थे तब भी,
रण से अब तुम दूर हुवे क्या, सूर्यपुत्र राधेय कहो?
अगर नहीं तो आ जाओ अब, संसद के गलियारों में।

लघु से लघु की बातें होतीं
गुणीजनों का मान कहाँ है?
नीयत कितनी भी भोली हो
जनता का सम्मान कहाँ है?
राजधर्म क्या सीख गये हो, अंगराज हे वासुसेन?
अगर नहीं तो आ जाओ अब, संसद के गलियारों में।
...“निश्छल”