कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

27 December 2018

कलम, अब छोड़ चिंता

कलम, अब छोड़ चिंता
✒️
कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?

मुरादें हैं बहुत, लेकिन
पथिक अनजान थोड़ा है
नियति आलेख का पालन
सतत इहलोक खेला है,
विरासत, सादगी पाई
सदा गुणगान उसके गुन
अचेतन से मिली आभा
सुभाषित जाल उसके बुन;

निविड़ में पाखियों के है, मधुप की गुंजना कैसी?
कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?

तमस, हर्षित बड़ा, जग में
निशा की गोद में बैठा
दमक उठती सहज बिजली
जलद सूखा, दिखे उकठा,
प्रभा अठखेलियाँ करती
विटप, उपमान लिखते हैं
निहारे अर्क प्रांतर से
सचेतन प्राण धरते हैं;

जलज जब नीर में अविरत, भ्रमर की भेदना कैसी?
कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?

स्वयं ही डूबने को रत
सकल मनुजत्व मानव का
विलासी, दंभ में जीवन
मिटा, सत्कर्म आँगन का,
तिमिर का नेह किरणों से
स्वतः निरुपाय होता है
मलिन मन ही सखे नित ही
सदा असहाय होता है;

हृदय में, शूल से प्रतिबिंब की, संवेदना कैसी?
कलम, अब छोड़ चिंता, व्यर्थ की यह वेदना कैसी?
...“निश्छल”

22 comments:

  1. श्वेता जी सादर अभिवादन एवं धन्यवाद🙏🙏🙏

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर अमित निश्छल जी ! आपका शब्द-चयन बहुत सुन्दर है, काव्य-प्रवाह भी है और आपका आशावादी सन्देश प्रभावशाली है.

    ReplyDelete
  3. अद्भुत काव्य प्रतिभा भाई अमित जी आपकी। रचना में जो तिलिस्म है वो अवर्चणिय है कभी सूरदास जी की पंक्तियां तिलिस्मी संसार रचती थी "चारू कपोल लोल लोचन गोरोचन" और अब आपकी ऐसी रचनाएँ एक अबूझ ब्रहमाण्ड जैसी।
    सुन्दर भावों का प्रवाह करती आलौकिक रचना।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार दीदी🙏🙏🙏

      Delete
  4. Replies
    1. जी बहुत बहुत धन्यवाद आपका। 'मकरंद' पर आपका हार्दिक अभिनंदन है🙏🙏🙏

      Delete
  5. जलज जब नीर में अविरत, भ्रमर की भेदना कैसी?
    बहुत खूब......... लाजबाब ............

    ReplyDelete
    Replies
    1. 'मकरंद' पर आपका सादर स्वागत है आदरणीया🙏🙏🙏

      Delete
  6. Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद सर🙏🙏🙏

      Delete
  7. बहुत लाजवाब !!!!
    वाह!!!
    अद्भुत एवं उत्कृष्ट लेखन आपका ....अनन्त शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर धन्यवाद एवं नमन मैम🙏🙏🙏

      Delete
  8. अद्भुत छंद-सृजन, कमाल का शब्द विन्यास, आपकी रचना से आपके इस अनुज को काफी अपनापन महसूस हुआ-

    आज मन आशक्त है, अभिरुचि हमारी वेदनामय।

    एक ये ही बात मेरी आत्मा को खल रही है,
    आवरण मुख पर चढ़ाए आज दुनिया चल रही है,
    बस स्वहित की कामना, भगवान क्या दुर्दिन फिरा है,
    आज जनता लोभ वस इक दूसरे को छल रही है,

    क्या करूँ मैं हाय! कैसे बोध हो कुछ प्रेरणामय,
    आज मन आशक्त है, अभिरुचि हमारी वेदनामय।

    प्रेम का स्तर निरंतर हृदय में अब घट रहा है,
    अनगिनत समुदाय में मानव धरा पर बँट रहा है,
    धर्मगत या जातिगत खाई निरंतर बढ़ रही है,
    फिर मैं कैसे मान लूँ जग से अँधेरा छँट रहा है?

    हे विधाता! शुद्ध कर दो, बुद्धि हो कुछ चेतनामय,
    आज मन आशक्त है, अभिरुचि हमारी वेदनामय।

    विमल-बुद्धि, विवेक के दाता, विवश विद्यार्थी हूँ,
    पथ दिखा दो प्रेम का इस विश्व को, शरणार्थी हूँ,
    फिर जला दो वह अलख जो अब धरा पर बुझ चुका है,
    सत्य की, सत्पथ की जय हो, शांति का मैं प्रार्थी हूँ,

    विश्व की अवहेलना से कवि हृदय संवेदनामय,
    आज मन आशक्त है, अभिरुचि हमारी वेदनामय।

    https://wp.me/p5vseB-hE

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी आभार
      .
      बहुत ख़ूब, बहुत ही उम्दा लेखन सर, वैचारिक दृष्टिकोण से उम्दा रचना👌👌👌👏👏👏

      Delete
  9. वाह ... बेहतरीन रचना

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, बहुत बहुत शुक्रिया🙏🙏🙏

      Delete
  10. स्वयं ही डूबने को रत
    सकल मनुजत्व मानव का
    विलासी, दंभ में जीवन
    मिटा, सत्कर्म आँगन का,
    तिमिर का नेह किरणों से
    स्वतः निरुपाय होता है
    मलिन मन ही सखे नित ही
    सदा असहाय होता है;....बेहतरीन रचना आदरणीय

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर नमन एवं आभार मैम🙏🙏🙏

      Delete
  11. नि:शब्द हूँ क्या लिखूं । बेहतरीन लेखन शैली।

    ReplyDelete