हाहाकार मचाओ
मेरी पलक पिंजरों में हे, कैद, सुनो शैतानी आँसू
उठो सँवर कर, रात हुई अब, उठकर हाहाकार मचाओ।
ज्योतिर्मय करतीं दुनिया को
स्वयं शाम की बोझिल किरणें,
दीन हुईं, अब मौन रूप में
चंदा नभ पथ पर निकला है;
चमकाता आँखों में मोती
धवल रश्मियों सा इतराता,
तारों की बारातों से सज
वलय बीच में वह पिघला है।
संध्या के आहातों में अब, ललचाते ओ काले बादल!
ज़रा लगाकर ऐनक देखो, तुम भी हाहाकार मचाओ।
सिलबट्टा घिस चुका समय का
चरखी युग की टूट गई है,
त्वरित भोर के दस्तक देते
नीम रात भी रूठ गयी है;
अगर सवेरा हुआ जन्म का
कुदरत ने यदि बाँग भरी है,
मृत्यु रूप शाश्वत नैया में
दूर भले, पर साँझ खड़ी है।
तृणवत लौकिक अभिलाषाओं, में फँसते ओ नैन दुलारे
उठो सँभलकर बीते यह ऋतु, खुलकर हाहाकार मचाओ।
जीवन के सरगम की तानें
सोच समझ कर छेड़ो साथी,
टूट गया गर तंतु, यंत्र का
पीड़ा की भरमार मचेगी;
धूमिल होने से पहले अब
बाँच खड़े हो कुछ जनश्रुतियाँ,
मीठी ध्वनियों से सरगम के
जीवन नौका पार पड़ेगी।
संलग्नित हो टिपटिप बूँदों, के संगीतों में झूमें जो
मेरे अधरों की मुस्कानों, खिलकर हाहाकार मचाओ।
...“निश्छल”
मेरी पलक पिंजरों में हे, कैद, सुनो शैतानी आँसू
उठो सँवर कर, रात हुई अब, उठकर हाहाकार मचाओ।
ज्योतिर्मय करतीं दुनिया को
स्वयं शाम की बोझिल किरणें,
दीन हुईं, अब मौन रूप में
चंदा नभ पथ पर निकला है;
चमकाता आँखों में मोती
धवल रश्मियों सा इतराता,
तारों की बारातों से सज
वलय बीच में वह पिघला है।
संध्या के आहातों में अब, ललचाते ओ काले बादल!
ज़रा लगाकर ऐनक देखो, तुम भी हाहाकार मचाओ।
सिलबट्टा घिस चुका समय का
चरखी युग की टूट गई है,
त्वरित भोर के दस्तक देते
नीम रात भी रूठ गयी है;
अगर सवेरा हुआ जन्म का
कुदरत ने यदि बाँग भरी है,
मृत्यु रूप शाश्वत नैया में
दूर भले, पर साँझ खड़ी है।
तृणवत लौकिक अभिलाषाओं, में फँसते ओ नैन दुलारे
उठो सँभलकर बीते यह ऋतु, खुलकर हाहाकार मचाओ।
जीवन के सरगम की तानें
सोच समझ कर छेड़ो साथी,
टूट गया गर तंतु, यंत्र का
पीड़ा की भरमार मचेगी;
धूमिल होने से पहले अब
बाँच खड़े हो कुछ जनश्रुतियाँ,
मीठी ध्वनियों से सरगम के
जीवन नौका पार पड़ेगी।
संलग्नित हो टिपटिप बूँदों, के संगीतों में झूमें जो
मेरे अधरों की मुस्कानों, खिलकर हाहाकार मचाओ।
...“निश्छल”
बेहतरीन रचना 👌
ReplyDeleteसादर धन्यवाद मैम🙏🙏🙏
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 16 दिसम्बर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय🙏🙏🙏
Deleteजीवन के सरगम की तानें
ReplyDeleteसोच समझ कर छेड़ो साथी,
टूट गया गर तंतु, यंत्र का
पीड़ा की भरमार मचेगी; वाह बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना
सादर आभार मैम🙏🙏🙏
Deleteप्रिय अमित -- आपके लेखन के लिए क्या लिखूं ? नवीनतम अछूता विषय और उस पर इतना सधा लेखन! छायावादी कवियों को स्मरण करवाता हुआ| आंसूओं को हाहाकार मचाने का उद्बोधन तो बादलों को ऐनक से देखने उद्बोधन साथ में मधुर मुस्कानों को हाहाकार मचाने की प्रार्थना कितनी अद्भुत है | भाषा और चित्रात्मकता बेजोड़ है !!!!
ReplyDeleteज्योतिर्मय करतीं दुनिया को
स्वयं शाम की बोझिल किरणें,
दीन हुईं, अब मौन रूप में
चंदा नभ पथ पर निकला है;
चमकाता आँखों में मोती
धवल रश्मियों सा इतराता,
तारों की बारातों से सज
वलय बीच में वह पिघला है।
बहुत खूब !!! हमेशा की तरह लाजवाब और अत्यंत सराहनीय रचना के लिए हार्दिक शुभ कामनाएं और स्नेह |
सादर, निःशब्द नमन दीदी🙏🙏🙏
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteशुक्रिया सर🙏🙏🙏
Deleteसुंदर
ReplyDeleteसादर आभार मान्यवर🙏🙏🙏
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ReplyDeleteसिलबट्टा घिस चुका समय का
चरखी युग की टूट गई है,
त्वरित भोर के दस्तक देते
नीम रात भी रूठ गयी है;
अगर सवेरा हुआ जन्म का
कुदरत ने यदि बाँग भरी है,
मृत्यु रूप शाश्वत नैया में
दूर भले, पर साँझ खड़ी है।
तृणवत लौकिक अभिलाषाओं, में फँसते ओ नैन दुलारे
उठो सँभलकर बीते यह ऋतु, खुलकर हाहाकार मचाओ।
वाहवाह...
कमाल की रचना... अद्भुत अविस्मरणीय... बहुत ही लाजवाब..
सादर नमन मैम🙏🙏🙏
Deleteनिशब्द हूं भाई अमित जी आज भी जब ऐसी रचनाएं पढने को मिलती है तो यूं ही लगता है जैसे कोई तारा पथ भूल कर आ गया है साहित्य व्योम पर, आलोकित करने काव्य की धूमिल होते प्रकाश को।
ReplyDeleteआल्हादित करती आलौकिक रचना।
हृदयतल से आभार दीदी🙏🙏🙏
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