कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

20 April 2019

ख़ुशामदी की घुट्टी

ख़ुशामदी की घुट्टी-1⃣&2⃣
ख़ुशामदी की घुट्टी-१
✒️
जो गीत बन चुके हों
ख़ुशामदी की घुट्टी,
ऐ गीतकार कर दो
उनकी ज़रा सी छुट्टी।
मयकश ग़ज़ल ही गा दो, रच प्रेमपूर्ण प्याली
प्रीति के हों दोहे, आकर्षणों की थाली;
ईश को नमन कर हो जाय मस्तमौला
श्याम वर्ण हो मन, बन जाय या कि धौला;
जब नम्र, शिष्ट स्वर हों, या क्रुद्ध रीछ वाणी
कर्म हों जतन से, ख़ुश हों समस्त प्राणी;
संतृप्त हो स्वयं ही, औरों को तृप्त करना
ज्ञान यह निरंतर, उर में सदा ही धरना।
जो गीत बन चुके हों
ख़ुशामदी की घुट्टी,
ऐ गीतकार कर दो
उनकी ज़रा सी छुट्टी।
गुणगान सृष्टि का हो, हो पुण्य की प्रशंसा
या, पाप पर प्रहारें, स्पष्ट हो आशंसा;
मतभेद की घड़ी में, थोड़े वहम के गट्ठर
अति चुस्त शब्द शैली, या व्याकरण हों मट्ठर;
थोड़े सुधी बनो या, हों काव्य की दुकानें
मत ढील दो सृजन में, अक्षम्य हैं बहाने;
अक्षर, अक्षत सदा ही, हो भाव प्रेम गंगा
निर्मल मनन रखो जब, तब ही सृजन हो चंगा।
जो गीत बन चुके हों
ख़ुशामदी की घुट्टी,
ऐ गीतकार कर दो
उनकी ज़रा सी छुट्टी।
...“निश्छल”

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ख़ुशामदी की घुट्टी-२
✒️
जो गीत बन चुके हों
ख़ुशामदी की घुट्टी,
ऐ गीतकार कर दो
उनकी ज़रा सी छुट्टी।
कुछ नज़्म गा सको तो, आँचल भरो सजल से
दो टूक रोटियों की, कर माँगते विमल से;
कुछ बूँद काव्य सर से, उत्सर्ग कर उन्हें भी
है वात्सल्य जिनकी, परंपरा अटल सी;
कर रंज दूर उनके, उजड़े हुवे निलय से
जो फँस गये हैं दुख में, या हो गये विलय से;
कुछ पुंज रश्मियों की, उन बालकों को वारो
हो शांत जीवनी भी, अघ से उन्हें उबारो;
जो गीत बन चुके हों
ख़ुशामदी की घुट्टी,
ऐ गीतकार कर दो
उनकी ज़रा सी छुट्टी।
मष्ट हैं जनम से, जो, मूढ़ शब्द संज्ञा
अस्तित्व है अधर में, फिर भी करें अवज्ञा;
इक शब्द की छड़ी से, उनको ज़रा सँवारो
अभिनंदनीय ज्ञानी! अति शीघ्र ही उबारो;
मध्याह्न है उमर की, तरु पल्लवों की छाया
इस हेतु कर्म अनुचित, उनको बड़ा ही भाया;
पथभ्रष्ट उच्च कर्मों, से तुम कभी न होना
सशक्त हो डगर जब, रखती बगल में ओना।
जो गीत बन चुके हों
ख़ुशामदी की घुट्टी,
ऐ गीतकार कर दो
उनकी ज़रा सी छुट्टी।
...“निश्छल”

18 April 2019

अर्थ नहीं है

अर्थ नहीं है
✒️
बहुत दूर जा चुकीं, सुनो मेरी कविताओं,
आडंबर की बात नहीं, अब वापस आओ;
सूख चुके हैं, मन-आँगन के सारे कोने,
अमिय बूँद की वृष्टि करो, अब मत सकुचाओ।
मेघों के घर में, बिजली सी, चमक रही हो,
और घटा रुक-रुक कर धरती को सिहराती;
मृण्मय ताकत हुई, मयूखों की, रजनी में,
वीरानों में, नदी बेख़बर, नाज़ दिखाती।
मद्यपान कर लुढ़क चुका है इक कोने में,
सूरोदय की आँखों में मद झलक रहा है;
वासंती की चाल सुरमयी निरख-निरख कर
चंद्र भटककर, राह खड़ा अब तरस रहा है।
परिधानों में कुदरत के, रव अलि की गूँजे,
गिरि के स्निग्ध कपोलों पर, तुहिनों की वेला;
सप्त वर्ण मिल एक हो गये हैं ऊषा में,
मादकता परिपूर्ण सदा प्रकृति का मेला।
सूने मन में, अमित अँधेरा पाल रखे हो,
आकर्षण यद्यपि किरणों से है जन्मों का;
अधरों के कोरों पर साजे सहज कुटिलता,
भेद खोल दो अपने ही मुख से मर्मों का।
यौवन के शिखरों सी चंचल, ओ कविताओं!
ज़रा ठहर कर गौर करो, जग व्यर्थ नहीं है;
बहुत दूर जा चुकीं, सुनो मेरी कविताओं,
इतनी दूरी, का भी कोई अर्थ नहीं है।

11 April 2019

सुनो तितलियों, गाना गाओ

सुनो तितलियों, गाना गाओ
✒️
मधुकर रूठ गया है मुझसे, कैसे पास बुलाऊँ?
सुनो तितलियों, गाना गाओ, मन को कुछ बहलाऊँ।

सुकुमार सुमन इस उपवन का, पंखुड़ियाँँ रंगीली।
उद्विग्न भाव से उबल रहीं, चूल्हे रखी पतीली।
स्नेहिल दृग मुझ पर भी डालो, विह्वल मैं हो जाऊँ।

चंचरीक की बात निराली, पास रहे तो रूखा।
दूर गया तो मलिन हुआ मन, दर्शन को ही भूखा।
प्यास, हिया की बहुत कुटिल है, कैसे इसे बुझाऊँ?

ऊपर चढ़ता जाता सूरज, आसमान की सीढ़ी।
जलन बढ़ाये चैत्रमास यह, याद दिलाये पीढ़ी।
मैं मतिमंद, हृदय के सारे, शीतल भाव लुटाऊँ।

गायन करना गीत न आता, मैंने सुना बहारों।
सूरत अपनी ज़रा दिखाओ, जुगनूँ के उजियारों।
गुंजन इक, अविराम मुझे दो, निरति समाधि लगाऊँ।

आ जायेगा मधुकर मेरा, चित्त चमन को भाता।
सुरभित दस दिक और पवन भी, घूमे फिर मदमाता।
साँसों में झंकार मुझे दो, विलसित उसे बनाऊँ।
सुनो तितलियों, गाना गाओ, मन को कुछ बहलाऊँ।
...“निश्छल”

04 April 2019

चाँदी से नगमे

चाँदी से नगमे
✒️
लिखता रहा चंद, चाँदी से नगमे,
उन्हें चाँदनी गुनगुनाती रही थी;
प्रखर रूप धर चाँद, पल-पल निहारे,
धरा मंद गति मुस्कुराती रही थी।
अकिंचन बना नाम रति का ज़मीं पर,
सितारों की थाली सजाती रही थी;
मोती से जगमग करें दंत उसके,
रजनी नज़र बस चुराती रही थी।
...“निश्छल”

लोलुप चाँद

लोलुप चाँद
✒️
अंधकार के गौरव के, गुणगान सूर्य को करने होंगे।

निस्तेज, चाँद का मुखड़ा
और मलिन था अंतर्मन,
इसी बात का शिकवा था
जलता रहता उसका तन;
बादल की राजसभा में
चंदा गृहभेदी बनकर,
कुंठित मन में उसके थी
तृष्णा कहीं व्यथित होकर।
जैसे बादल बिजली धरता, ओज चंद्र को धरने होंगे;
अंधकार के गौरव के, गुणगान सूर्य को करने होंगे।

रवि किरणें, धारण करता
चंद्र मगर आकांक्षी था,
यही चाँद की गलती थी
चंदा ओपाकांक्षी था;
हेम फुहारे, रजनी भर
धरती हर्षित हो जाती,
किंतु मेघ को यह सहमति
फूटी आँख नहीं भाती।
कीमत सारी, संबंधों की, कमजोरी को भरने होंगे;
अंधकार के गौरव के, गुणगान सूर्य को करने होंगे।

मेघराज ने कान भरे
आख़िर इसी बिमारी पर,
खीज उठा, चाँद युगों से
अपनी ही लाचारी पर;
कुपित चाँद था, बरस पड़ा
अपने दुर्व्यवहारों से,
आस लगी, तथा भानु को
टिमटिम करते तारों से।
अपने ही, घर फूँक चले, आरोप चंद्र को हरने होंगे;
अंधकार के गौरव के, गुणगान सूर्य को करने होंगे।

शिलाखंड पर सबने मिल
आरोपों को छपवाया,
दुखी हुआ मन पत्थर का
दुर्गुण ऐसा लिखवाया;
सारे वैरी एक हो गए
उद्विग्न और, बेकार से,
गिरा सिंधु में, धक्के खा
सूरज, शून्यविहार से।
चंदा सम्मुख तारों को भी, शीश नतन अब करने होंगे;
अंधकार के गौरव के, गुणगान सूर्य को करने होंगे।
...“निश्छल”

02 April 2019

दौर चुनावी युद्धों का

दौर चुनावी युद्धों का
✒️
जड़वत, सारे प्रश्न खड़े थे
उत्तर भाँति-भाँति चिल्लाते,
वहशीपन देखा अपनों का
प्रत्युत्तर में शोर मचाते।
सिर पर चढ़कर बोल रहा था
वह दौर चुनावी युद्धों का,
आखेटक बनकर घूम रहे
जो प्रणतपाल थे, गिद्धों का।
बड़े खिलाड़ी थे प्रत्याशी
सबकी अपनी ही थाती थी,
बातें दूजे की, एक पक्ष को
अंतर्मन तक दहलाती थीं।
मुद्दे थे विजयी होने के
और विजय ही ध्येय रहा था,
साहिब, हथकंडे अपनाते
ऐसा जो अविधेय रहा था।
कितनों की नीयत डोली थी
लोभी, उन मधुर बयारों में,
बीत गया जब दौर चुनावी
डूबे थे सब व्यभिचारों में।
सिंहासन पर बैठा शासक
भूल चुका था वादे अपने,
कोस रही जनता ख़ुद को ही
व्यर्थ दिखाया उसने सपने।
भला बहुत था राज पुराना
जो शासक को ही भाता था,
वृथा स्वप्न वह दिखा जनों को
नहीं हृदय को अकुलाता था।
...“निश्छल”