दौर चुनावी युद्धों का
✒️जड़वत, सारे प्रश्न खड़े थे
उत्तर भाँति-भाँति चिल्लाते,
वहशीपन देखा अपनों का
प्रत्युत्तर में शोर मचाते।
सिर पर चढ़कर बोल रहा था
वह दौर चुनावी युद्धों का,
आखेटक बनकर घूम रहे
जो प्रणतपाल थे, गिद्धों का।
बड़े खिलाड़ी थे प्रत्याशी
सबकी अपनी ही थाती थी,
बातें दूजे की, एक पक्ष को
अंतर्मन तक दहलाती थीं।
मुद्दे थे विजयी होने के
और विजय ही ध्येय रहा था,
साहिब, हथकंडे अपनाते
ऐसा जो अविधेय रहा था।
कितनों की नीयत डोली थी
लोभी, उन मधुर बयारों में,
बीत गया जब दौर चुनावी
डूबे थे सब व्यभिचारों में।
सिंहासन पर बैठा शासक
भूल चुका था वादे अपने,
कोस रही जनता ख़ुद को ही
व्यर्थ दिखाया उसने सपने।
भला बहुत था राज पुराना
जो शासक को ही भाता था,
वृथा स्वप्न वह दिखा जनों को
नहीं हृदय को अकुलाता था।
...“निश्छल”
वाहह्हह अमित जी समसामयिक सार्थक सृजन...👌👌👌👌👍👍
ReplyDeleteनृप जनता को छल जायेगा
सत्ता मद से पगलायेगा
मत देख दिवा स्वप्न मानुष
यह राजनीति कलयुग की है
न राज्य राम का आयेगा।
सादर आभार, आपकी भावप्रवणता नमनीय है🙏😊🙏
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteसधन्यवाद नमन🙏🙏🙏
Deleteशानदार अति उत्तम रचना
ReplyDeleteनमन मैम
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteजी सादर आभार
Deleteजी धन्यवाद
ReplyDeleteसिर पर चढ़कर बोल रहा था
ReplyDeleteवह दौर चुनावी युद्धों का,
आखेटक बनकर घूम रहे
जो प्रणतपाल थे, गिद्धों का।!
सम सामयिक अत्यंत प्रभावी सृजन प्रिय अमित | हार्दिक स्नेह
☺️सादर शुक्रिया🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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