ऊषा - २
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थिर रखते जीव प्रबंधन, हरित उपकरण कुदरत के।
उन हरितों को सब्ज़ करे, तालों से पानी ला के।।२१।।
तालों में बैठ रसीली, कुछ मद्धम-मद्धम लाली।
खेलन लागत हैं जल में, इहाँ-उहाँ दरख़्त डाली।।२२।।
डाली की परछाईं पर, उद्भ्रांत मधुप विरागा।
गिरकर पोखर में देखो, अलसाया भौंरा जागा।।२३।।
तितली हँसकर के रूठी, सुवास जमीन से फूटी।
कण-कण में बसती आँखें, पल-पल में अविरत लूटीं।।२४।।
झोंका समीर का गुजरा, साँसों में ज्यों स्पंदन था।
जग में सारे प्राणों का, एकरंगी अब मौसम था।।२५।।
मुड़कर खेतों में दौड़ा, अनुपम, झुंड एक पवन का।
पीतवर्ण रंगत राँची, वह उपमा अनिल छुवन का।।२६।।
मुखमंडल पर जब छाई, ऊषा की स्वच्छ ललाई।
पीला रंग लगा ऊषा, कुछ और अधिक सकुचाई।।२७।।
गाँव घरों में कौंधी वह, चंपा टीके लगवाई।
प्रमुदित कर अंतर्मन मन, सुषमा बरसी अधिकाई।।२८।।
फिर गूँजा प्रातः वंदन, पंछी नीड़ों में जागे।
अलसाई आँखें लेकर, सोए, तलक रमे अभागे।।२९।।
कुछ और समझकर उसने, गूलर पानी में डाला।
समझा ना मदहोश मधुप, युक्ति करे क्या वह ढाला।।३०।।
भृंगी ने श्रृंगार किये, उड़ कर चली फलक जैसी।
आँसू लुढका ना लोचन, मधुप कहा सुन नार अरी।।३१।।
चली बयारों के सीने, पर दो धारा कुल्हाड़ी।
सागर से आती शीतल, तो रेतों से न अनाड़ी।।३२।।
परचम लहरा दूर सिंधु, पर स्याह मेघ तटस्थी।
गूँजी वाणी अंबर में, ज्यों ऋषि दधीचि की अस्थी।।३३।।
मेघों के घर में जैसे, बिजली पिनाक सी तड़की।
मेरे अंतर की कूँची, कुछ चित्रलिखित सी पनपी।।३४।।
सुविदित मराल कायल था, मेरे मकरंद सुरों का।
था सत्व सृजन का उस पर, प्यारे इन छंद सुखों का।।३५।।
नीलाभ गगन के श्रुति में, जब मेरी गीतें सरसी।
रिमझिम-रिमझिम बारिश की, दो चार फुहारें बरसीं।।३६।।
तन भींगा मन प्रमुदित सा, संपर्क बूँद का निखरा।
दिव्य क्षणों में पुलकित मन, था शीशे जैसा बिखरा।।३७।।
तन में उमंग भरते ही, मन लेन लगा हिचकोले।
लोचन रोचनवश होकर, दृग, निज कपाट तब खोले।।३८।।
मन बीच सरसरी कँपती, हो ठंडक वन में सारे।
मन विहग चीखकर उड़ता, वन दंडक में उजियारे।।३९।।
मेवे सेवा के गिनकर, जद खिन्न हृदय अकुलाया।
सज्जन-दुर्जन जीवों का, हित मेरे मन को भाया।।४०।।
...“निश्छल”