कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

07 May 2018

ऊषा - २

ऊषा - २
✒️
थिर रखते जीव प्रबंधन, हरित उपकरण कुदरत के।
उन हरितों को सब्ज़ करे, तालों से पानी ला के।।२१।।
तालों में बैठ रसीली, कुछ मद्धम-मद्धम लाली।
खेलन लागत हैं जल में, इहाँ-उहाँ दरख़्त डाली।।२२।।
डाली की परछाईं पर, उद्भ्रांत मधुप विरागा।
गिरकर पोखर में देखो, अलसाया भौंरा जागा।।२३।।
तितली हँसकर के रूठी, सुवास जमीन से फूटी।
कण-कण में बसती आँखें, पल-पल में अविरत लूटीं।।२४।।
झोंका समीर का गुजरा, साँसों में ज्यों स्पंदन था।
जग में सारे प्राणों का, एकरंगी अब मौसम था।।२५।।
मुड़कर खेतों में दौड़ा, अनुपम, झुंड एक पवन का।
पीतवर्ण रंगत राँची, वह उपमा अनिल छुवन का।।२६।।
मुखमंडल पर जब छाई, ऊषा की स्वच्छ ललाई।
पीला रंग लगा ऊषा, कुछ और अधिक सकुचाई।।२७।।
गाँव घरों में कौंधी वह, चंपा टीके लगवाई।
प्रमुदित कर अंतर्मन मन, सुषमा बरसी अधिकाई।।२८।।
फिर गूँजा प्रातः वंदन, पंछी नीड़ों में जागे।
अलसाई आँखें लेकर, सोए, तलक रमे अभागे।।२९।।
कुछ और समझकर उसने, गूलर पानी में डाला।
समझा ना मदहोश मधुप, युक्ति करे क्या वह ढाला।।३०।।
भृंगी ने श्रृंगार किये, उड़ कर चली फलक जैसी।
आँसू लुढका ना लोचन, मधुप कहा सुन नार अरी।।३१।।
चली बयारों के सीने, पर दो धारा कुल्हाड़ी।
सागर से आती शीतल, तो रेतों से न अनाड़ी।।३२।।
परचम लहरा दूर सिंधु, पर स्याह मेघ तटस्थी।
गूँजी वाणी अंबर में, ज्यों ऋषि दधीचि की अस्थी।।३३।।
मेघों के घर में जैसे, बिजली पिनाक सी तड़की।
मेरे अंतर की कूँची, कुछ चित्रलिखित सी पनपी।।३४।।
सुविदित मराल कायल था, मेरे मकरंद सुरों का।
था सत्व सृजन का उस पर, प्यारे इन छंद सुखों का।।३५।।
नीलाभ गगन के श्रुति में, जब मेरी गीतें सरसी।
रिमझिम-रिमझिम बारिश की, दो चार फुहारें बरसीं।।३६।।
तन भींगा मन प्रमुदित सा, संपर्क बूँद का निखरा।
दिव्य क्षणों में पुलकित मन, था शीशे जैसा बिखरा।।३७।।
तन में उमंग भरते ही, मन लेन लगा हिचकोले।
लोचन रोचनवश होकर, दृग, निज कपाट तब खोले।।३८।।
मन बीच सरसरी कँपती, हो ठंडक वन में सारे।
मन विहग चीखकर उड़ता, वन दंडक में उजियारे।।३९।।
मेवे सेवा के गिनकर, जद खिन्न हृदय अकुलाया।
सज्जन-दुर्जन जीवों का, हित मेरे मन को भाया।।४०।।
...“निश्छल”

06 May 2018

ऊषा - १

ऊषा - १
✒️
एक दिन ऊषा होते ही, ले लिया तिमिर अँगड़ाई।
ये देखा बादल जागा, सूरज को नाद लगायी ।।१।।
तिमिराभ मेघ के पीछे, छुप कर धीरे से झाँका।
सूरज की रश्मिलताओं, ने खींचा सर पर खाका।।२।।
पलभर को तो तुम ठहरो, बन मुकुट शीश पर मेरे।
उल्लासित हो चलूँ संग, बनकर तुरंग मैं तेरे।।३।।
सर, जलज, जलद की वाणी, किरणों ने एक ना मानी।
गृह अपने वापस जाने, की उन्होंने अब ठानी।।४।।
कुछ विस्मृत होकर लौटीं, तब उड़कर चलीं गगन में।
बनाकर हवा में ताने, फिर चलीं इना को छूने।।५।।
इतने में बादल लेखा, एक बार उधर को देखा।
विस्मृति होते अंतस में, बन गयी रेशमी रेखा।।६।।
चंदा की आँखें रक्तिम, था दिखता उजला मुखड़ा।
मन की आहट थी शांत, वह सम्मोहित सा जकड़ा।।७।।
सौम्य चंद्र आकाश में, विचरण करते जो देखा।
बिच-बीच घनाली सोहे, लावण्यमयी विधुलेखा।।८।।
मिले चंद्रिका आतप जो, मेघों पर खींची रेखा।
उत्कीर्ण से सात वर्ण, विस्तृत भूमंडल देखा।।९।।
मदमस्त भुवन रेखांकित, सतरंग पताका फहरी।
सब लगा नया लगने जब, वन झूम उठी रँग लहरी।।१०।।
आभास हुआ घन चमका, तो चमक उठा किरनारा।
अरुणित दिनकर की किरणें, सँवारें तड़ाग किनारा।।११।।
जो मिली जलधि सरिता से, प्रातः रवि की अरुणाई।
तत्वज्ञ उल्लिखित, जगत में, जड़-चेतन ने सुधि पाई।।१२।।
बन गया समाँ रंगीला, कलियों ने घूँघट खोले।
दमकी हरीतिमा लाली, दल पुष्प अधर से बोले।।१३।।
तितली बागों में निकली, फूलों ने मस्तक डाला।
जपन लगी अधखिली कली, त्राहि-त्राहि की माला।।१४।।
इक क्षण को भौंरा सहमा, थे राजहंस के जोड़े।
सरवर में छेड़े उनको, तो पड़ सकते थे कोड़े।।१५।।
फिर भाग कुसुम में छिपता, वह निलय समझ कर अपना।
तितली मुस्काती सी है, वह देख रहा था सपना।।१६।।
काहिल मधुप छिछोरेपन, में शयन किये जाता है।
अधखुली उनींदी आँखें, मकरंद पिये जाता है।।१७।।
कलियों की हास निराली, तितली भावों की प्याली।
कहीं वनस्पति पर गूँजी, जो शाखामृग की ताली।।१८।।
शाखों की अलग कहानी, कर सिंचित फल-फूलों को।
जीव-जंतु गौरवशाली, छाँह बाँटता मूलों को।।१९।।
मूल समूल है अनजान, अगोचर सदा ही रहता।
लोपित होकर भला सदा, यह कर्म कौन से करता?।२०।।
...“निश्छल”

02 May 2018

बोध

बोध
✒️
रोटी का पहला निवाला अभी उसके मुँह तक पहुँचा भी नहीं था, कि अम्मा का फेंका झाड़ू हाथों से आ टकराया, निवाला तो तत्काल धराशायी हो गया, मगर आँखों में नमी जाग उठी। झाड़ू की चोट आहत न कर सकी, पर शब्दों के बाणों ने उसके अचेतन तक को बेध कर रख दिया। “अरे कलमुँही, अब केतना खाएगी? तूने तो कुल ही खा लिया। एक लड़का भी नहीं दे सकती। पता नहीं कब आँखों से ओझल होगी?...”, कहते-कहते अम्मा दूसरे कमरे में चली गईं।
व्यंग्य बाणों के इस आघात ने मात्र लक्ष्य को ही नहीं छला, अपितु बरामदे में बैठे बाबू जी की आँखें भी आपा खो बैठीं। वृद्ध, झुर्रीदार कपोल आँसुओं से लहूलुहान प्रतीत होने लगे। अंतर्मन चित्त को कहीं सुदूर ले उड़ा, उनके बचपन में... जब रधिया काकी को तीन के बाद चौथी भी बेटी ही पैदा हुई..., कितनी खुश थीं वो, और उनका पूरा परिवार, लगता था जैसे कोई लॉटरी हाथ लग गई हो। पूरे गाँव को भोज खिलाया था...। अब अस्सी सालों के बाद, जब सभी स्वयं को पहले से ज्यादा सुशिक्षित और श्रेष्ठ कहते हैं, क्या ऐसी सोच उचित है? या, यूँ कहें कि हमारी तथाकथित आजादी इतनी बूढ़ी हो गई है, कि अब सही-गलत का निर्णय करने की सामर्थ्य भी शेष न रही...?
कंधों पर नन्हें हाथों की आहट ने बाबूजी को वर्तमान की ओर प्रवृत्त किया,... पोती रजनी, उनको दवा खाने का आग्रह कर रही थी। पाँच वर्ष की उम्र... दादाजी के आँसुओं का अभिप्राय नहीं समझ सकी। पर, बहू के हृदय को अम्मा के शब्दाघात से ज्यादा पीड़ा तो बाबू जी को विचलित करते आँसुओं ने दिया, और उसके चेहरे पर सहानुभूति से परिपूर्ण हल्की मुस्कान फैल गई।
...“निश्छल”

राति का विहंग

राति का विहंग
✒️
निहाल है चमन, अमन छाया वन में,
श्रवणों को गुँजित, गीत ही पसंद हैं;
बिहँस पड़े हैं सब, सुधि मेरे मन की,
जीव अँगन में, अनंद ही अनंद हैं।

चारि कोस दूरि बसँ, चंद्र गगन बीच,
पातियों में तंत्र,एक तारा-तंत्र है;
गीत ना पसंद, पसंद ना गीतकार,
ओजस निशीकांत, निशि अपरंत है।

हिय में निषंग, बादलों का सरताज,
छेड़ि रहा बीन, नृत्य पवन तुरंग है;
छोड़ि-जागि उठि-भागि, मसि-उमंगि मेरि,
गीति अधराए न धराए मनुजंग हैं।

सीध-सीध बात, तोल मनः रंध्र भी,
श्रवण करिश्मों की, महिमा अनंग है;
उठि के मेट, ज्यों, जीव से जिय भागा,
उड़ि रहा बीती, राति का विहंग है।
...“निश्छल”