कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

06 May 2018

ऊषा - १

ऊषा - १
✒️
एक दिन ऊषा होते ही, ले लिया तिमिर अँगड़ाई।
ये देखा बादल जागा, सूरज को नाद लगायी ।।१।।
तिमिराभ मेघ के पीछे, छुप कर धीरे से झाँका।
सूरज की रश्मिलताओं, ने खींचा सर पर खाका।।२।।
पलभर को तो तुम ठहरो, बन मुकुट शीश पर मेरे।
उल्लासित हो चलूँ संग, बनकर तुरंग मैं तेरे।।३।।
सर, जलज, जलद की वाणी, किरणों ने एक ना मानी।
गृह अपने वापस जाने, की उन्होंने अब ठानी।।४।।
कुछ विस्मृत होकर लौटीं, तब उड़कर चलीं गगन में।
बनाकर हवा में ताने, फिर चलीं इना को छूने।।५।।
इतने में बादल लेखा, एक बार उधर को देखा।
विस्मृति होते अंतस में, बन गयी रेशमी रेखा।।६।।
चंदा की आँखें रक्तिम, था दिखता उजला मुखड़ा।
मन की आहट थी शांत, वह सम्मोहित सा जकड़ा।।७।।
सौम्य चंद्र आकाश में, विचरण करते जो देखा।
बिच-बीच घनाली सोहे, लावण्यमयी विधुलेखा।।८।।
मिले चंद्रिका आतप जो, मेघों पर खींची रेखा।
उत्कीर्ण से सात वर्ण, विस्तृत भूमंडल देखा।।९।।
मदमस्त भुवन रेखांकित, सतरंग पताका फहरी।
सब लगा नया लगने जब, वन झूम उठी रँग लहरी।।१०।।
आभास हुआ घन चमका, तो चमक उठा किरनारा।
अरुणित दिनकर की किरणें, सँवारें तड़ाग किनारा।।११।।
जो मिली जलधि सरिता से, प्रातः रवि की अरुणाई।
तत्वज्ञ उल्लिखित, जगत में, जड़-चेतन ने सुधि पाई।।१२।।
बन गया समाँ रंगीला, कलियों ने घूँघट खोले।
दमकी हरीतिमा लाली, दल पुष्प अधर से बोले।।१३।।
तितली बागों में निकली, फूलों ने मस्तक डाला।
जपन लगी अधखिली कली, त्राहि-त्राहि की माला।।१४।।
इक क्षण को भौंरा सहमा, थे राजहंस के जोड़े।
सरवर में छेड़े उनको, तो पड़ सकते थे कोड़े।।१५।।
फिर भाग कुसुम में छिपता, वह निलय समझ कर अपना।
तितली मुस्काती सी है, वह देख रहा था सपना।।१६।।
काहिल मधुप छिछोरेपन, में शयन किये जाता है।
अधखुली उनींदी आँखें, मकरंद पिये जाता है।।१७।।
कलियों की हास निराली, तितली भावों की प्याली।
कहीं वनस्पति पर गूँजी, जो शाखामृग की ताली।।१८।।
शाखों की अलग कहानी, कर सिंचित फल-फूलों को।
जीव-जंतु गौरवशाली, छाँह बाँटता मूलों को।।१९।।
मूल समूल है अनजान, अगोचर सदा ही रहता।
लोपित होकर भला सदा, यह कर्म कौन से करता?।२०।।
...“निश्छल”

10 comments:

  1. बहुत सुंदर काव्य रचना।

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    1. जी सादर आभार आपका🙏🙏🙏

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  2. वाह्ह.....अद्भुत, अद्वितीय,अप्रतिम रचना....👌👌👌

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    1. जी बहुत बहुत आभार एवं धन्यवाद🙏🙏🙏

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  3. बहुत खूबसूरत रचना।

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  4. प्रिय अमित -- सुबह को कवी की अप्रितम दृष्टि ने निहारा है तो वह कुछ नया तो देखेगी ही | अत्यंत कौतुहल से उषा को निहारती इस प्रखर कवी द्रष्टि के क्या कहने !!!!!!!!! भौंरे , गुल तितली हर वक के क्रिया - कलाप को सूक्ष्मता से अवलोकन कर बहुत ही अनुपम शब्द विन्यास से रचना लिखी आपने | एकदम प्रकृतिवादी कवियों की तरह | बहुत सराहनीय रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई प्रिय अमित |

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    1. सादर आभार मैम... आपके ये दो शब्द, नवीन कृतियों के निर्माण की तरफ प्रवृत्त करते हैं। सादर🙏🙏🙏

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  5. सुंदर काव्य रचना।

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    1. साभार नमन आदरणीय🙏🙏🙏

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