बोध
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रोटी का पहला निवाला अभी उसके मुँह तक पहुँचा भी नहीं था, कि अम्मा का फेंका झाड़ू हाथों से आ टकराया, निवाला तो तत्काल धराशायी हो गया, मगर आँखों में नमी जाग उठी। झाड़ू की चोट आहत न कर सकी, पर शब्दों के बाणों ने उसके अचेतन तक को बेध कर रख दिया। “अरे कलमुँही, अब केतना खाएगी? तूने तो कुल ही खा लिया। एक लड़का भी नहीं दे सकती। पता नहीं कब आँखों से ओझल होगी?...”, कहते-कहते अम्मा दूसरे कमरे में चली गईं।
व्यंग्य बाणों के इस आघात ने मात्र लक्ष्य को ही नहीं छला, अपितु बरामदे में बैठे बाबू जी की आँखें भी आपा खो बैठीं। वृद्ध, झुर्रीदार कपोल आँसुओं से लहूलुहान प्रतीत होने लगे। अंतर्मन चित्त को कहीं सुदूर ले उड़ा, उनके बचपन में... जब रधिया काकी को तीन के बाद चौथी भी बेटी ही पैदा हुई..., कितनी खुश थीं वो, और उनका पूरा परिवार, लगता था जैसे कोई लॉटरी हाथ लग गई हो। पूरे गाँव को भोज खिलाया था...। अब अस्सी सालों के बाद, जब सभी स्वयं को पहले से ज्यादा सुशिक्षित और श्रेष्ठ कहते हैं, क्या ऐसी सोच उचित है? या, यूँ कहें कि हमारी तथाकथित आजादी इतनी बूढ़ी हो गई है, कि अब सही-गलत का निर्णय करने की सामर्थ्य भी शेष न रही...?
कंधों पर नन्हें हाथों की आहट ने बाबूजी को वर्तमान की ओर प्रवृत्त किया,... पोती रजनी, उनको दवा खाने का आग्रह कर रही थी। पाँच वर्ष की उम्र... दादाजी के आँसुओं का अभिप्राय नहीं समझ सकी। पर, बहू के हृदय को अम्मा के शब्दाघात से ज्यादा पीड़ा तो बाबू जी को विचलित करते आँसुओं ने दिया, और उसके चेहरे पर सहानुभूति से परिपूर्ण हल्की मुस्कान फैल गई।
...“निश्छल”
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रोटी का पहला निवाला अभी उसके मुँह तक पहुँचा भी नहीं था, कि अम्मा का फेंका झाड़ू हाथों से आ टकराया, निवाला तो तत्काल धराशायी हो गया, मगर आँखों में नमी जाग उठी। झाड़ू की चोट आहत न कर सकी, पर शब्दों के बाणों ने उसके अचेतन तक को बेध कर रख दिया। “अरे कलमुँही, अब केतना खाएगी? तूने तो कुल ही खा लिया। एक लड़का भी नहीं दे सकती। पता नहीं कब आँखों से ओझल होगी?...”, कहते-कहते अम्मा दूसरे कमरे में चली गईं।
व्यंग्य बाणों के इस आघात ने मात्र लक्ष्य को ही नहीं छला, अपितु बरामदे में बैठे बाबू जी की आँखें भी आपा खो बैठीं। वृद्ध, झुर्रीदार कपोल आँसुओं से लहूलुहान प्रतीत होने लगे। अंतर्मन चित्त को कहीं सुदूर ले उड़ा, उनके बचपन में... जब रधिया काकी को तीन के बाद चौथी भी बेटी ही पैदा हुई..., कितनी खुश थीं वो, और उनका पूरा परिवार, लगता था जैसे कोई लॉटरी हाथ लग गई हो। पूरे गाँव को भोज खिलाया था...। अब अस्सी सालों के बाद, जब सभी स्वयं को पहले से ज्यादा सुशिक्षित और श्रेष्ठ कहते हैं, क्या ऐसी सोच उचित है? या, यूँ कहें कि हमारी तथाकथित आजादी इतनी बूढ़ी हो गई है, कि अब सही-गलत का निर्णय करने की सामर्थ्य भी शेष न रही...?
कंधों पर नन्हें हाथों की आहट ने बाबूजी को वर्तमान की ओर प्रवृत्त किया,... पोती रजनी, उनको दवा खाने का आग्रह कर रही थी। पाँच वर्ष की उम्र... दादाजी के आँसुओं का अभिप्राय नहीं समझ सकी। पर, बहू के हृदय को अम्मा के शब्दाघात से ज्यादा पीड़ा तो बाबू जी को विचलित करते आँसुओं ने दिया, और उसके चेहरे पर सहानुभूति से परिपूर्ण हल्की मुस्कान फैल गई।
...“निश्छल”
अद्भुत मार्मिक हृदय को भेदन करती लेखनी ...एक गाली सी दे गई नारी नारी की दुश्मन ......विदीर्ण हृदय नम है आँखें
ReplyDeleteस्वाद कसेला हो आया हाय विधाता पुत्र चाहिये ये भ्रम भाव जगत क्यों फैलाया !
अप्रतिम लेखन भाई अमित जी बहुत खूब ....👌👌👌👌👌👌👌👌
जी दीदी सुप्रभात, बिल्कुल सही कहा आपने पुत्र चाहिए वाला भ्रम भाव बहुत ही निर्दय है।🙏🙏🙏
Deleteदारुण।
ReplyDeleteसत्य के कई मुखौटे है
जी, सत्य वचन... सत्य के कई मुखौटे...
Deleteहृदय विदारक.
ReplyDeleteआज भी अधिकतर लोगों की सोच नहीं बदली है.
जी मैम, सच कहा आपने... आख़िर सोच तो सबकी व्यक्तिगत होती है और अपनी सोच को बदलने का निर्णय तथा प्रयास उस व्यक्ति पर ही निर्भर करता है। काफ़ी जगह परंपराओं के कुचक्र में मानवता की नृशंस हत्या होती है... दयनीय है।
Deleteसत्य जो सबके हृदय को चीर कर अश्रु निकाल दे,अद्भुत लेखन प्रशंसा के शब्द कम पड़ जाएंगे,हमारे समाज का कड़वा सच नारी ही नारी की दुश्मन बनी बैठी है इस संदर्भ में
ReplyDeleteजी आदरणीया, परंपरा और मान्यताओं ने सदियों से लेकर आज तक जीवन को बहुत यातना दी है
Deleteहृदय को तार तार कर देनेवाला सत्य,जो स्त्री के एक अलग ही रूप को प्रदर्शित करता है,जो वास्तव में असहनीय है,समाज के लिए,स्त्री होकर स्त्री के लिए यह भाव स्त्री के समस्त वात्सल्य को धूमिल कर देता है,आपकी लेखनी ने अद्भुत तरीके से शब्दों का तीर बना दिया है जो समाज के हर कोने से इस भावना को भेद दे,प्रशंसा के शब्द कम पड़ जाएंगे...
ReplyDeleteवस्तुतः, यह एक सोच है, मनोधारणा है जो पीढ़ियों से मानव को बंधक बना रखा है। जी, यहाँ पर स्त्री को जरूर दर्शाया गया है ऐसी सोच को वहन करते हुए, पर सत्य तो यह है कि ऐसी सोच इंसान, उसकी अवस्था, उम्र इत्यादि नहीं देखती। बहुत ही दुखद है, पर बदलाव किसी एक के हाथों संभव नहीं। इसके लिए तो सभी को जागरूक होना होगा। सादर🙏🙏🙏
Deleteसुंदर 👌👌👌 बधाई💐💐💐
ReplyDeleteसादर धन्यवाद मैम🙏🙏🙏
Deleteप्रिय अमित -- आपका पद्य से अलग रंग का गद्य पहली बार पढ़ा | एक अति संवेदनशील चित्र उभरता है आपकी रचना में | ये कोई नयी बात नहीं | प्राय बेटी होने के पीछे माँ को जिम्मेवार ठहराने वाली भी एक नारी ही होती है | उसके पीछे सदियों से व्याप्त कुंठाए या कई तरह के आंतरिक अनुभव हो सकते हैं पर है ये दशा बहुत मर्मान्तक और असहनीय | मर्मभेदी प्रस्तुतिकरण से मन में एक करुणा और पीड़ा का बोध हुआ | बहुत ही सराहनीय शैली में लिखी रचना के लिए आपको हार्दिक शुभकामनायें | सस्नेह ---
ReplyDeleteनिःशब्द नमन आदरणीया🙏🙏🙏
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