अर्थ नहीं है
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बहुत दूर जा चुकीं, सुनो मेरी कविताओं,आडंबर की बात नहीं, अब वापस आओ;
सूख चुके हैं, मन-आँगन के सारे कोने,
अमिय बूँद की वृष्टि करो, अब मत सकुचाओ।
मेघों के घर में, बिजली सी, चमक रही हो,
और घटा रुक-रुक कर धरती को सिहराती;
मृण्मय ताकत हुई, मयूखों की, रजनी में,
वीरानों में, नदी बेख़बर, नाज़ दिखाती।
मद्यपान कर लुढ़क चुका है इक कोने में,
सूरोदय की आँखों में मद झलक रहा है;
वासंती की चाल सुरमयी निरख-निरख कर
चंद्र भटककर, राह खड़ा अब तरस रहा है।
परिधानों में कुदरत के, रव अलि की गूँजे,
गिरि के स्निग्ध कपोलों पर, तुहिनों की वेला;
सप्त वर्ण मिल एक हो गये हैं ऊषा में,
मादकता परिपूर्ण सदा प्रकृति का मेला।
सूने मन में, अमित अँधेरा पाल रखे हो,
आकर्षण यद्यपि किरणों से है जन्मों का;
अधरों के कोरों पर साजे सहज कुटिलता,
भेद खोल दो अपने ही मुख से मर्मों का।
यौवन के शिखरों सी चंचल, ओ कविताओं!
ज़रा ठहर कर गौर करो, जग व्यर्थ नहीं है;
बहुत दूर जा चुकीं, सुनो मेरी कविताओं,
इतनी दूरी, का भी कोई अर्थ नहीं है।
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 18/04/2019 की बुलेटिन, " विश्व धरोहर दिवस 2019 - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआदरणीय शिवम जी आभार।
Deleteलाज़वाब अहसास... उत्कृष्ट प्रस्तुति..
ReplyDeleteसाभार नमन आदरणीय।
Deleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति,अमित जी।
ReplyDeleteसाभार नमन मैम
Deleteबहुत सुंदर रचना..... ,सादर नमन
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीया।
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