चाँदी से नगमे
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लिखता रहा चंद, चाँदी से नगमे,
उन्हें चाँदनी गुनगुनाती रही थी;
प्रखर रूप धर चाँद, पल-पल निहारे,
धरा मंद गति मुस्कुराती रही थी।
अकिंचन बना नाम रति का ज़मीं पर,
सितारों की थाली सजाती रही थी;
मोती से जगमग करें दंत उसके,
रजनी नज़र बस चुराती रही थी।
...“निश्छल”
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteक्या बात है। चंद पंक्तियों में आपने संसार का अलौकिक दर्शन करवा दिया। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय अमित निश्छल जी।
ReplyDeleteनमन सर।
Deleteवाह! क्या कहने..
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर रचना.....
जी सादर नमन। हार्दिक स्वागत है आपका “मकरंद” पर।
Deleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण ... जगत का सार इन पंक्तियों में ...
ReplyDeleteसादर अभिनंदन सर
Deleteक्या बात है प्रिय अमित आपकी सुंदर चांदनी सी झरती पंक्तियों में वो रस है जिसके लिए सराहना नहीं बस एक दुआ -- तुम्हारी कलम को माँ शारदे बुरी नजर से बचाए | सस्नेह शुभकामनायें |
ReplyDeleteआपके शुभाशीष ही हैं जो अलग-अलग रूपों में फल-फूल रहे हैं। सादर अभिवादन दीदी🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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