शहीद की विधवा
✒️
वीर रस, जन गण सुहाने गा रहे हैं
पंक्तियों में गुनगुनाते जा रहे हैं,
तारकों की नींद को विघ्नित करे जो
गीत, वे कोरे नयन दो गा रहे हैं।
ज़िंदगी की राह में रौशन रही वो
माँग में सिंदूर, सर चूनर बनी थी,
रात के अंधेर में बेबस हुई अब
जिंदगी की नींव है उजड़ी हुई सी।
जोग, ना परितज्य वो भी जानती है,
पर निरा मंगल हृदय से साजती है
रिस भरा है जीव में उसके तभी तो,
साँस में हरदम कसक सुलगा रही है।
साँस रुकनी थी, मगर तन था पराया
लाश देखी नाथ की, तब भी रही थी,
चीख भी सकती नहीं कमजोर बनकर
हार उसके प्राण की, नाज़ुक घड़ी थी।
अंत्य साँसें भी अभी कोसों खड़ी हैं,
जागती, जगकर निहारे, देखती है
कर, निहोरे जोड़कर, वंदन सहज कर,
अंत में अंतस तिरोहित ढूँढ़ती है।
दीन सी आँखें अभी सूखी नहीं हैं,
औ' उधर बदमाश चंदा झाँकता है
हाथ की लाली अभी धूमिल नहीं है,
ताक कर तिरछे, ठठाकर, खाँसता है।
दुर्दिनों पर डालकर मुस्कान कलुषित,
हेय नज़रों से ज़रा उपहास करता
क्या पता उस रात के राकेश को भी,
यातना से त्रस्त भी कुछ माँग करता।
सर उठाकर आँख को मींचे कठिन सी,
माँगती अंगार, उल्का पिंड से जो
गिर रहे गोले धरा पर अग्नि दह सम,
अंब के अंबार से बुझ जा रहे वो।
वह बहुत सहमी खड़ी है ठोस बनकर,
धूल की परछाइयों सी पोच बनकर
दूर है अर्धांग उसका जो सदा को,
देश पर कुरबान है दस्तूर बनकर।
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वीर रस, जन गण सुहाने गा रहे हैं
पंक्तियों में गुनगुनाते जा रहे हैं,
तारकों की नींद को विघ्नित करे जो
गीत, वे कोरे नयन दो गा रहे हैं।
ज़िंदगी की राह में रौशन रही वो
माँग में सिंदूर, सर चूनर बनी थी,
रात के अंधेर में बेबस हुई अब
जिंदगी की नींव है उजड़ी हुई सी।
जोग, ना परितज्य वो भी जानती है,
पर निरा मंगल हृदय से साजती है
रिस भरा है जीव में उसके तभी तो,
साँस में हरदम कसक सुलगा रही है।
साँस रुकनी थी, मगर तन था पराया
लाश देखी नाथ की, तब भी रही थी,
चीख भी सकती नहीं कमजोर बनकर
हार उसके प्राण की, नाज़ुक घड़ी थी।
अंत्य साँसें भी अभी कोसों खड़ी हैं,
जागती, जगकर निहारे, देखती है
कर, निहोरे जोड़कर, वंदन सहज कर,
अंत में अंतस तिरोहित ढूँढ़ती है।
दीन सी आँखें अभी सूखी नहीं हैं,
औ' उधर बदमाश चंदा झाँकता है
हाथ की लाली अभी धूमिल नहीं है,
ताक कर तिरछे, ठठाकर, खाँसता है।
दुर्दिनों पर डालकर मुस्कान कलुषित,
हेय नज़रों से ज़रा उपहास करता
क्या पता उस रात के राकेश को भी,
यातना से त्रस्त भी कुछ माँग करता।
सर उठाकर आँख को मींचे कठिन सी,
माँगती अंगार, उल्का पिंड से जो
गिर रहे गोले धरा पर अग्नि दह सम,
अंब के अंबार से बुझ जा रहे वो।
वह बहुत सहमी खड़ी है ठोस बनकर,
धूल की परछाइयों सी पोच बनकर
दूर है अर्धांग उसका जो सदा को,
देश पर कुरबान है दस्तूर बनकर।
बेहद मर्मस्पर्शी रचना मार्मिक सत्य को उद्घाटित करती
ReplyDeleteहुई
सादर धन्यवाद मैम🙏🙏🙏
Deleteभाई अमित जी ....अप्रतिम शब्द निरर्थक सा है शब्द सभी बेमोल
ReplyDeleteविधवा शहीद की बन कर जीना सहज नहीं ये रोल ......मार्मिकता और कर्तव्य परायणता दोनों के मध्य संघर्ष को व्यक्त करती लेखनी को नमन 🙏
नत मस्तक है मेरी लेखनी ऐसी काल जई नारी पर
सहज भाव से स्वयं भेजती जाओ जी तुम रण पर
याद आ गई हाड़ी रानी जिसने पति को स्वयं पुगायाथा
युद्द क्षेत्र मैं विचलित ना हो सिर काट वही भिजवाया था !
धन्यवाद दीदी, बहुत ही अच्छी टिप्पणी किया आपने, परमसत्य है "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" माँ और मातृभूमि की अतुलनीय हैं। इनके सम्मान और रक्षा में कोई भी रिश्ता कुर्बाऩ कर देना ही श्रेयस्कर है। नमन है हाड़ी रानी को🙏🙏🙏
Deleteबेहद हृदयस्पर्शी रचना अमित जी।
ReplyDeleteशहीद की विधवा भी तो आम नारी ही होती है न।
माना कि है गर्व उनको अपने माँग के इस राख पर
लोटती थी सारी खुशियाँ अब नभ से बिखरी खाक पर
बहुत ही प्रभावशाली अभिव्यक्ति वाह्ह्ह👌👌👌
😄बेहतरीन टिप्पणी के लिए सादर करबद्ध नमन आदरणीया🙏🙏🙏
Deleteबेहद मार्मिक रचना
ReplyDeleteसहृदय धन्यवाद अनुराधा जी🙏🙏🙏
Deleteआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ०९ जुलाई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति मेरा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
विशेष : हम चाहते हैं आदरणीय रोली अभिलाषा जी को उनके प्रथम पुस्तक प्रकाशन हेतु आपसभी लोकतंत्र संवाद मंच पर अपने आगमन के साथ उन्हें प्रोत्साहन व स्नेह प्रदान करें। 'एकलव्य'
आदरणीय ध्रुव जी अभिवादन, इस रचना को सम्मान देने के लिए तहेदिल से आपका आभार। दुख है कि व्यस्तता के कारण 'लोकतंत्र' के दर्शन नहीं कर सका। शीघ्र ही आऊँगा इस मंच पर। साभार🙏🙏🙏
Deleteअंतर तक हिलाती रचना एक एक शब्द वेदना बन कागज पर उतर गया अंतिम शब्द तक यथार्थ का उल्का पिंड अप्रतिम अद्वितीय रचना ,नमन अमित जी आपकी लेखनी को ।
ReplyDeleteअतीव प्रसन्नता हुई आपकी बहुमूल्य टिप्पणी पढ़कर आदरणीया कुसुम जी, और बहुत ही अच्छा लगा कि आपने इस कविता को बख़ूबी पढ़ा। सहृदयता से सादर नमन🙏🙏🙏
Deleteप्रिय अमित देश सेवा के लिए मर मिटने वाले सैनिक का भी परिवार एक आम आदमी की तरह ही होता है और पत्नी भी एक नारी ही होती है | उसे भी आम नारी वाली हर पीड़ा व्याप्ती है | लोग सैनिक का गौरवगान थोड़े दिन करते हैं शायद गर्व की उस बेला में पत्नी के मन को भी खूब गर्व होता हो पर उसकी आजीवन पीड़ा और एकाकीपन का साथी कौन ? लुटे सपनों की कसक कहाँ जीवन भर चैन से सोने और जीने देती होगी ? फर्श पर सर्वोच्च बलिदान के दस्तूर में बंधे सैनिक के जीवन का ये कटु सत्य बखूबी लिखा आपने | शहीद की विधवा के सुने जीवन और अंतस की पीड़ा को अतंत संवेदशीलता के साथ लिखा आपने | जिसके लिए हार्दिक स्नेह और बधाई \
ReplyDeleteकाव्य की आत्मा तक पहुँचने के लिए आपका सादर आभार मैम। किसी भी कविता को सिर्फ़ पढ़कर इतनी गूढ़ टिप्पणी करना संभव नहीं। कविता के विषय वस्तु को बख़ूबी मान देने एवं कृतार्थ करने के लिए पुनः धन्यवाद😊🙏🙏🙏
Deleteआपकी ये कविता
ReplyDeleteकल मेरा धरोहर में
http://4yashoda.blogspot.com/2018/08/blog-post_8.html
आदरणीया यशोदा जी सादर आभार 🙏🙏🙏😊
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