कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

25 July 2018

सरसब्ज़ ज़िंदगानी

सरसब्ज़ जिंदगानी

✒️
कलम की सियाही है, या स्याह उमंग है,
रुका है तो तरल,
चल दिया तो कभी अमृत, कभी गरल।
कभी मैं समझ नहीं पाता हूँ,
कभी लोगों को बतलाता हूँ।
कभी सोचता हूँ,
ये मेरी ख़ासियत है जो कागज पर बिखर गयी है,
या लेखनी की स्याह भावनाएँ,
जो श्वेत पत्र पर तरंगित हो उठी हैं?

काले अक्षर तो आधुनिक उपकरणों में भी रच दूँ,
मगर, सिर को नत किये,
घुली हुई रोशनाई की सलोनी ख़ुशबू को,
कहाँ से पाऊँगा।
यही सोचकर हर सुबह कलम उठाता हूँ।

स्याह महक की आदी 
मेरी साँसें ही प्रफुल्लित नहीं होतीं,
प्रसन्न होता है वह दिन, वे लोग, वे चीजें,
जिन्हें मैं देखता हूँ, जिन्हें छूता हूँ,
जिन्हें अपनी नज़्में सुनाता हूँ।

मैं कलम को घुमाता हूँ तो,
कुछ निशान कागज पर उभरते हैं।
लोगों के ज़हन में कभी जादू सा उतरते हैं,
तो कभी लकीरें, बोरियत की मिसाल बनती हैं।

सफेद कागज़ से मिलकर, काली रेखाएँ,
कुछ ऐसी फुहार बनती हैं,
जिन्हें देखकर मैं शाम-ओ-सुबह,
मुस्कुराता रहता हूँ।
और फुहारें, मेरे सपनों में आकर,
दिनभर की मुरझाई मेरी ज़िंदगानी को,
फिर से सरसब्ज़ कर जाती हैं।
...“निश्छल”

3 comments:

  1. अमित जी, कृपया रचना पेज पर टाईप करिये। तस्वीर पर अक्षर स्पष्ट नहीं हैंं। कुछ समझ नहीं आ रहा।

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  2. वाह प्रिय अमित -- घुली हुई रोशनाई में डूबी कलम और उसमे से प्रवाहित होती सलोनी खुशबू सब याद दिया दी आपने | सचमुच मशीनीकरण ने लेखन को बहुत सरल बना दिया है पर उस लेखन के क्या कहने जो आज भी सलोनी रोशनाई में डूबी कलम से अस्तित्व में आता है | मुझे तो रोशनाई के दर्शन किये भी सालों गुजर गये | निहायत मन से लिखी गयी अत्यंत हृदयस्पर्शी रचना प्रिय अमित | आपको ढेरों शुभकामनायें |

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    1. जी सत्य वचन मैम, घुली हुई रोशनाई और उसमें डूबी कलम, वाकई साहित्यिक अवधारणा के विशिष्ट उपकरण हैं। समाज और साहित्य ऊँचाई के चाहे जिस परचम पर पहुँच जाएँ, पर आधारशिला में घुली हुई स्याही और उसमें डूबी कलम की महत्ता सदा सर्वदा विराजमान रहेगी।
      प्रोत्साहन के लिए तहेदिल से आपका शुक्रिया🙏🙏🙏

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