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मेरे अनुभव का रेखांकन व्यर्थ न जाएगा ऐसे प्रिय
चाहो तो इस अपादान में अरमानों की भेंट चढ़ा दो।
संवेदी गीतों के मुखड़े
लिख जाएँ यदि स्वाभिमान से,
टूट जाय तारों की नलिका
गिरे सूर्य महि आसमान से।
मेरे गीतों का मधुरांकन व्यर्थ न जाएगा ऐसे प्रिय
चाहो तो तुम हवनकुंड में अनुरागों की भेंट चढ़ा दो।
जिस पल में उद्भासित होती
सकल कामना एक वीर की,
अवचेतन में मुखरित होती
तीक्ष्ण चेतना तीव्र तीर की।
मेरे स्वप्नों का रूपांकन व्यर्थ न जाएगा ऐसे प्रिय
चाहो तो अनुरक्त निशा में मृदुल पलों की भेंट चढ़ा दो।
जग सारा उच्छिन्न पड़ा है
अहंकार की कटु कृपाण से,
दूर खड़ी है सुमति सहमकर
मूढ़ मनुज के उद्विचार से।
मेरे नयनों का मूल्यांकन व्यर्थ न जाएगा ऐसे प्रिय
चाहो तो उद्विग्न प्रभा में तुम प्रश्नों की भेंट चढ़ा दो।
...“निश्छल”
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