दिग्दर्शन, आज करा जा
✒️
धवल अंबु सा भला रूप
मानो है खान सुख़न की,
जँचती हैं तेरी यादें
जैसे हों वायु चमन की;
तुम जब मुझमें खो जाती
सो जाती साँझ नवेली,
अँगड़ाई लेती ऊषा
निर्जन में नित्य अकेली;
तुम इक प्रतिमा हो श्रम की
मैं कर्कश, काला पानी,
छींटे गर उड़ जायें तो
यह है मेरी नादानी;
मृगनयनी! नयन हमारे
इस कारण बल खाते हैं,
दृश्यांकित स्वप्न तुम्हारे
पथ मेरे बिसराते हैं;
इक बार नयन तो फेरो
उड़ती अलकों से खेलो,
नादाँ मैं, तृण बन जाऊँ
तुम रजनीगंधा हो लो।
मेरे साँसों की गति को
अपने हाथों से तारो,
ना, नाहक मुरझा जाऊँ
स्पंदन को और उभारो;
तन-मन की इस बस्ती में
ना जाने कितने खोते,
सद्भावों के कुछ चंचल
बैठे रहते हैं रोते;
तेरी आँखों के तारे
मुख मेरे और सँवारे,
मधु टपक रही कर तल से
मैं जी लूँ इसी सहारे;
मृगतृष्णा एक तुम्हीं हो
कौस्तुभ तुम्हीं हो पावन,
मृण्मय तन को मंदिर सा
भू, रचती हो मनभावन।
निशि-वासर खेल समय का
रब, ख़ुद भी भुला न पाया,
मैं कौन खेत की मूली
रख सकूँ इसे बिसराया;
बंद करो संवादों की
अब निर्मम सी यह ध्वनियाँ,
रुधिर, हृदय में कमतर है
जलतीं निष्पाप धमनियाँ;
मेरी पलकों की छाया
अब स्याह हुई जाती है,
कठपुतली से जीवन की
यह डोर खिंची जाती है;
इन दर्द भरी धमनी की
ख़ातिर बलखाती आ जा,
प्राण कंठ तक पहुँच चुके
दिग्दर्शन, आज करा जा।
...“निश्छल”
✒️
धवल अंबु सा भला रूप
मानो है खान सुख़न की,
जँचती हैं तेरी यादें
जैसे हों वायु चमन की;
तुम जब मुझमें खो जाती
सो जाती साँझ नवेली,
अँगड़ाई लेती ऊषा
निर्जन में नित्य अकेली;
तुम इक प्रतिमा हो श्रम की
मैं कर्कश, काला पानी,
छींटे गर उड़ जायें तो
यह है मेरी नादानी;
मृगनयनी! नयन हमारे
इस कारण बल खाते हैं,
दृश्यांकित स्वप्न तुम्हारे
पथ मेरे बिसराते हैं;
इक बार नयन तो फेरो
उड़ती अलकों से खेलो,
नादाँ मैं, तृण बन जाऊँ
तुम रजनीगंधा हो लो।
मेरे साँसों की गति को
अपने हाथों से तारो,
ना, नाहक मुरझा जाऊँ
स्पंदन को और उभारो;
तन-मन की इस बस्ती में
ना जाने कितने खोते,
सद्भावों के कुछ चंचल
बैठे रहते हैं रोते;
तेरी आँखों के तारे
मुख मेरे और सँवारे,
मधु टपक रही कर तल से
मैं जी लूँ इसी सहारे;
मृगतृष्णा एक तुम्हीं हो
कौस्तुभ तुम्हीं हो पावन,
मृण्मय तन को मंदिर सा
भू, रचती हो मनभावन।
निशि-वासर खेल समय का
रब, ख़ुद भी भुला न पाया,
मैं कौन खेत की मूली
रख सकूँ इसे बिसराया;
बंद करो संवादों की
अब निर्मम सी यह ध्वनियाँ,
रुधिर, हृदय में कमतर है
जलतीं निष्पाप धमनियाँ;
मेरी पलकों की छाया
अब स्याह हुई जाती है,
कठपुतली से जीवन की
यह डोर खिंची जाती है;
इन दर्द भरी धमनी की
ख़ातिर बलखाती आ जा,
प्राण कंठ तक पहुँच चुके
दिग्दर्शन, आज करा जा।
...“निश्छल”
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 10 फरवरी 2019 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर धन्यवाद मैम🙏🙏🙏
Deleteआदरणीय अमित निश्छल जी, आप ही की रचना से उद्धृत अंश...
ReplyDeleteदृश्यांकित स्वप्न तुम्हारे, पथ मेरे बिसराते हैं;
इक बार नयन तो फेरो, उड़ती अलकों से खेलो,
नादाँ मैं, तृण बन जाऊँ, तुम रजनीगंधा हो लो।
बेहतरीन काव्याभिव्यक्ति का दर्शन दे गई । बहुत-बहुत शुभकामनाएँ ।
आदर सहित नमन आदरणीय। स्नेह बना रहे🙏🙏🙏
Deleteइन दर्द भरी धमनी की
ReplyDeleteख़ातिर बलखाती आ जा,
प्राण कंठ तक पहुँच चुके
दिग्दर्शन, आज करा जा।
वाह !!! बहुत खूब ,सादर नमन
हार्दिक आभार मैम। रचना तक पहुँचने के लिए अभिनंदन🙏🙏🙏
Deleteमृगतृष्णा एक तुम्हीं हो
ReplyDeleteकौस्तुभ तुम्हीं हो पावन,
मृण्मय तन को मंदिर सा
भू, रचती हो मनभावन।
अप्रतिम अद्भुत काव्य प्रतिभा।
सादर अभिवादन दीदी। "मन की वीणा", सदा मधुर स्वर से झंकृत रहे। धन्यवाद🙏🙏🙏
Deleteतुम जब मुझमें खो जाती
ReplyDeleteसो जाती साँझ नवेली,
अँगड़ाई लेती ऊषा
निर्जन में नित्य अकेली;
तुम इक प्रतिमा हो श्रम की
वाह!!!!
बहुत सुन्दर .....लाजवाब...
सादर धन्यवाद मैम
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