चलो, कह दे रहा हूँ मैं
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चलो, कह दे रहा हूँ मैं, महकता है चमन, फिर भीमहज़ इक फूल को फिर से, ज़रा पुचकार कर देखो।
चलीं हैं आज जल-थल में
गरल बनकर हवाएँ भी,
कभी भी बात ना करतीं
अकेले में दिशायें भी।
मछलियाँ अब नहीं दिखतीं, भला यह कौन कहता है?
सजल सी आँख की जालें, ज़रा सी डालकर देखो।।
उगे हैं बादलों को पर
कुतरने को पड़ा सूरज,
विकल हो, आसमानों से
शिकायत क्या करे नीरज?
अगर शिकवे करे दिनभर, कुदरती माननीयों से
सुबह खिलना उसे पड़ता, बला यह जानकर देखो।।
मुखौटों को बदलकर ही
निकलता चाँद रातों में,
रसिक भी गीत गाते हैं
सुरों को बाँध गातों में।
किसी को फ़र्क क्या पड़ता, अगर बरसात में पूछो
निकलकर गाँव के बाहर, छतरियाँ तानकर देखो।।
बहुत ही सब्ज़ हैं साँसें
शजर के पत्तियों की अब,
महल की सेविकाएँ भी
किसी से बात करतीं कब?
कुलीनों की गली में हैं, विषैले नाग से गुंडे
कि नाज़ुक मन रखा किसने, किहुनियाँ मारकर देखो।।
...“निश्छल”
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ जून २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सधन्यवाद नमन मैम। आभार।
Deleteअप्रतिम। बहुत-बहुत सुन्दर। लाजवाब। शब्दों की कमी पड़ गयी है मेरे पास।
ReplyDeleteनयापन है आपकी इस रचना में। शुभकामना ऐसी और रचनाएँ लिखने के लिए।
धन्यवाद सर। हार्दिक स्वागत है आपका "मकरंद" पर।
Deleteबेहतरीन रचना अमित जी
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया।
Deleteसराहना से परे! अद्भुत!!!
ReplyDeleteसादर नमन सर।
Deleteअप्रतिम रचना। आपकी लेखन प्रतिभा मंत्रमुग्ध कर देती है।
ReplyDeleteसादर आभार मैम। स्नेह बना रहे।
Deleteदिल को छूती लाज़वाब रचना।
ReplyDeleteसर धन्यवाद। हृदयतल से अभिनंदन है आपका "मकरंद" पर।
Deleteबहुत ही सब्ज़ हैं साँसें
ReplyDeleteशजर के पत्तियों की अब,
महल की सेविकाएँ भी
किसी से बात करतीं कब?
बेहतरीन लेखन हेतु साधुवाद आदरणीय निश्छल जी।
हार्दिक अभिनंदन सर। सादर धन्यवाद।
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