कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

09 October 2018

हम मिले तुम चल दिये थे

हम मिले तुम चल दिये थे
✒️
वह गज़ब की रीति थी जब, हम मिले तुम चल दिये थे।

सात जन्मों के वो वादे
अभिसारिके, चिह्नित इरादे
ख़्वाब, तख़्तों के जो ठहरे
ले जली थी चाँदनी भी,
या किये मिल कर उजाले?
ज़िंदगी को दी जिन्होंने
रीति की आवारगी,
और बंधन बाँध कंठों, में पराये चल दिये थे;
वह गज़ब की रीति थी जब, हम मिले तुम चल दिये थे।

तात्क्षणिक उद्घोषणाओं से
मिली शह जो हमें थी,
प्रीति की कल्पित अदाओं
से मिली वह, रूठ बैठी;
नासमझ तस्वीर जीवन
की लिए कातर नयन में,
हम रहे बैठे भुवन में
धड़कनें उठ चल पड़ी थीं;
आस की बेचारगी ने
काट डाला आत्मगत ही,
हम रहे धूनी रमाये, आँसुओं में बह गये थे;
वह गज़ब की रीति थी जब, हम मिले, तुम चल दिये थे।

ना कर सके कुछ, आँख रूपी
यान जल में डूबकर भी,
आत्मश्लाघा चक्षु की
यातना से मिल गये थे;
उपनिहित थीं जो भावनाएँ
शेष चंदा में ज़रा सी,
पुष्प, तारों के खड़े थे
अंजुरी में टेर देते;
मन यशस्वी के अनादर
की कथा गाथा कहूँ क्या?
घड़कनों ने ताक कनखी, से सहज ही छल किये थे;
वह गज़ब की रीति थी जब, हम मिले, तुम चल दिये थे।
...“निश्छल”

4 comments:

  1. हम रहे धूनी रमाये, आँसुओं में बह गये थे;
    वह गज़ब की रीति थी जब, हम मिले, तुम चल दिये थे
    बेहतरीन रचना

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    1. सादर धन्यवाद मैम🙏😊🙏

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  2. This comment has been removed by the author.

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