कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

08 October 2018

अंगूर मधुर ही खाये जायें

अंगूर मधुर ही खाये जायें

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नहीं जरूरी सत्ता के अंगूर मधुर ही खाये जायें,
अविवेकी कहता है यह, खट्टे अरि पर वारे जायें।

आज़ादी कुछ हमको भी दो
दीवाने हैं आज़ादी के
मत हँसो हमारे हाथ बाँध
परवाने हैं आज़ादी के;
है भक्ति देश की, अनल आँच
सीने में हरदम जलती है
हर सैनिक इक परवाना है,
बारूदों से ही फलती है।

हम जलते हैं जग सोता है
महलों में खेला होता है
कुर्सी की टाँग तोड़ना तो
बायें हाथों में होता है;
पर, वीर भरत की संतानें,
हम छद्म बात ना करते हैं
दुश्मन को अनुज सरीख़ा ही
सीने में अपने रखते हैं।

सोच हमारी यही सदा, रिपु के पेट भी पाले जायें;
नहीं जरूरी सत्ता के अंगूर मधुर ही खाये जायें।

जब दर्द हृदय का बढ़ जाता
अति से भी ज्यादा दूर कहीं
हम काट कलेजे को फेंके
गुंफित पसली से दूर कहीं;
हृदयहीन बनकर जीने की
लत हमको तो सालों से है
है प्रेम स्वयं से तनिक नहीं
आह्लाद मुल्क वालों से है।

ना रही बात अब कहने की
अरि को भी शेष, कहाँ बल है
सामर्थ्य अल्प हो उसमें गर
कह दो सैनिक अब विह्वल है;
सौगंध आन की भारत के
यह वचन समर्पित करता हूँ
सौ-सहस शीश को काट तथ्य
कानों में अर्पित करता हूँ।

सम्मान अगर ना हों तुममें, घूँघट अब बनवाये जायें;
नहीं जरूरी सत्ता के अंगूर मधुर ही खाये जायें।
...“निश्छल”

4 comments:

  1. हम जलते हैं जग सोता है
    महलों में खेला होता है
    कुर्सी की टाँग तोड़ना तो
    बायें हाथों में होता है;
    पर, वीर भरत की संतानें,
    हम छद्म बात ना करते हैं
    बहुत ही सुंदर रचना 🙏

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    1. सादर धन्यवाद मैम🙏🙏🙏

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  2. Replies
    1. बहुत बहुत आभार आदरणीया

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