शब्द किसानी
✒️
मैं शब्द किसानी करता हूँ, कहो किसी से भी क्या डरना?
भावों से सिंचित करता हूँ, जिसमें अपना सा इक झरना
ना साहित्यिक ज़मींदार हूँ, खेती कितनी? बस है रोड़ी
बोता हूँ उनमें शब्दों को, नियमित ही मैं थोड़ी-थोड़ी;
श्रम उसमें मिल जाने से फिर, मिट्टी उर्वर सी हो जाती
थोड़ी सी खेती से इसकी, उपज कोस-कोसों तक जाती
बंधु-सखा के हेतु उपज यह, तृप्तिमयी लक्ष्मी बन जाती
यह साधक गण मनोभाव में, बुद्धि रूप जगती कहलाती।
मैं शब्द किसानी करता हूँ, जो उगता वह उपजाता हूँ
कोई कुरीति, पाँव पसारे, साहित्यिक बाण चलाता हूँ
मेरे तरकश के सरकंडे, हुलसाते, शोर मचाते हैं
नरभक्षी बसे जो जंगल में, ग्राम्यों से दूर जाते हैं;
स्वच्छंद खड़ा हूँ काश्त की, इक पतली सी पगडंडी पर
लिए शास्त्र के डंडे कर में, हूँ फेंक रहा पाखंडी पर
पर डरता हूँ आस्तीन के, उन निर्मम निर्भय साँपों से
लुट जाऊँगा, गर मिला दिये विष, पानी में बरसातों के।
मैं शब्द किसानी करता हूँ, महसूस करूँ निष्पाप इसे
क्यों वैर किसी से हो साहिब? ना रहे इष्ट आभास जिसे
मैं अपने मन की खाता हूँ, मन अपने की ही बोता हूँ
दाने दो चार परिंदों में, फिर बाँट खुशी से सोता हूँ;
अन्न अगर कटु हों मेरे तो, कुछ और ज़ायका पकड़ो जी
छोड़ो मुझको हालातों पर, जा, नयी दुकानें जकड़ो जी
मैं नहीं मिलावट करता हूँ, सौगंध है शब्द-अनाज की
मैं शब्द किसानी करता हूँ, नहीं, ख़ौफ़ किसी धनराज की।
...“निश्छल”
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मैं शब्द किसानी करता हूँ, कहो किसी से भी क्या डरना?
भावों से सिंचित करता हूँ, जिसमें अपना सा इक झरना
ना साहित्यिक ज़मींदार हूँ, खेती कितनी? बस है रोड़ी
बोता हूँ उनमें शब्दों को, नियमित ही मैं थोड़ी-थोड़ी;
श्रम उसमें मिल जाने से फिर, मिट्टी उर्वर सी हो जाती
थोड़ी सी खेती से इसकी, उपज कोस-कोसों तक जाती
बंधु-सखा के हेतु उपज यह, तृप्तिमयी लक्ष्मी बन जाती
यह साधक गण मनोभाव में, बुद्धि रूप जगती कहलाती।
मैं शब्द किसानी करता हूँ, जो उगता वह उपजाता हूँ
कोई कुरीति, पाँव पसारे, साहित्यिक बाण चलाता हूँ
मेरे तरकश के सरकंडे, हुलसाते, शोर मचाते हैं
नरभक्षी बसे जो जंगल में, ग्राम्यों से दूर जाते हैं;
स्वच्छंद खड़ा हूँ काश्त की, इक पतली सी पगडंडी पर
लिए शास्त्र के डंडे कर में, हूँ फेंक रहा पाखंडी पर
पर डरता हूँ आस्तीन के, उन निर्मम निर्भय साँपों से
लुट जाऊँगा, गर मिला दिये विष, पानी में बरसातों के।
मैं शब्द किसानी करता हूँ, महसूस करूँ निष्पाप इसे
क्यों वैर किसी से हो साहिब? ना रहे इष्ट आभास जिसे
मैं अपने मन की खाता हूँ, मन अपने की ही बोता हूँ
दाने दो चार परिंदों में, फिर बाँट खुशी से सोता हूँ;
अन्न अगर कटु हों मेरे तो, कुछ और ज़ायका पकड़ो जी
छोड़ो मुझको हालातों पर, जा, नयी दुकानें जकड़ो जी
मैं नहीं मिलावट करता हूँ, सौगंध है शब्द-अनाज की
मैं शब्द किसानी करता हूँ, नहीं, ख़ौफ़ किसी धनराज की।
...“निश्छल”
मैं अपने मन की खाता हूँ, मन अपने की ही बोता हूँ
ReplyDeleteदाने दो चार परिंदों में, फिर बाँट खुशी से सोता हूँ;
सुंदर रचना है भाई जी
काश!किसानों का जीवन फिर से ऐसा ही हो जाएं
जी सर, सही कहा आपने। सादर अभिनंदन
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 07 अक्टूबर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteदेरी के लिए क्षमा चाहूँगा आदरणीय दिग्विजय जी। हार्दिक स्वागत है आपका "मकरंद" पर। रचना का मान बढ़ाने के लिए आपका आभारी हूँ।🙏🙏🙏
Deleteकिसानो के साथ ऐसा साहित्यक आत्मीकरण पहले कभी नहीं देखा.
ReplyDeleteशानदार रचना.
नाफ़ प्याला याद आता है क्यों? (गजल 5)
नमन सर। स्वागत है आपका "मकरंद पर। आपकी लिंक देखूँगा, अवश्य ही मनोहारी होगी।
Deleteसानद रचना
ReplyDeleteसादर नमन मैम, हार्दिक अभिनंदन है आपका "मकरंद" पर🙏🙏🙏
Deleteशब्दकिसानी साहित्यिक जमींदार...
ReplyDeleteवाह!!!!
बही लाजवाब...
करबद्ध नमन मैम, स्नेह बनाए रखें🙏🙏🙏
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