यथार्थ
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निज, निजता के अहसान तले
घुट जातीं रिश्तों की साँसें,
फाँसें बनकर हैं झूल रहीं
जग की आलीशान उसाँसें।
है रीति दिखावा बहुत मगर
झूठे विषबेल लुभावों के,
समरथ अब भी परिपाक खड़ा
उद्दंड सोच कुटिलाओं के।
कृतकृत्य वासना ही अब है
मनुजों के अहसासों की लौ,
करते रहते झूठे वादे
खाते हैं बड़े-बड़े विधि सौं।
आँखों में वसुधा के विष है
जग की आँखें धुँधलाती हैं,
मनुज जाति की तुच्छ निगाहें
अपनों को ही तड़पाती हैं।
कर में वंदन की थालें हैं
आँखों में कुटिल वासनायें,
ये मनुज पड़ा बदनाम स्वयं
ममता पर भी कुटिल कुराहें।
जोगी की गति कलुषित हरपल
अब राह दिखाता बागी है,
सुख भोग काटता अघी बड़ा
लांछित परमार्थवादी है।
ऐसे में तृषता तृषित हुई
कुंठित मनभाव जुझारों के,
समरथ को ही अब दोष लगे
गूँजें जयकार गँवारों के।
...“निश्छल”
प्रिय अमित -- आपकी ये रचना आपकी ही रचना ' निरीह कलम ''का विस्तार है | सच यही सब कुछ व्याप्त है देश और समाज में !!!!! सार्थक और यथार्थवादी लेखन | हार्दिक शुभकामनाये |
ReplyDeleteजी, सत्य वचन... सादर🙏🙏🙏
Deleteआज का सच, विसंगतियों से भरा ये युग बस एक कहानी कहता है निज स्वार्थ लोभ और आत्म प्रवंचना ।
ReplyDeleteयथार्थ सच यथार्थ बहुत उच्च कोटि की भाव रचना काव्य पक्ष सबल ।
जी, सादर अभिवादन🙏🙏🙏
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