बादल-९ (गौरैया की चेष्टा)
✒️
धूल उड़ाती ज्येष्ठ पवन खेल रही है यहाँ-वहाँ
ढोते हुए धूलि कणों को बिखेर रही है जहाँ-तहाँ,
लू से दोस्ती करके धूल धू-धू करके गरज रही है
आतंकित से जीव-जंतु सब उष्ण गरल वमन रही है,
सूखे पत्ते निर्भय होकर नील गगन को छूने को
बिन पंख उड़ चले रहा न उनको कुछ भी डरने को,
श्वास स्वयं की हो गयी है दुश्मन अपने जान की
कोई वर्णन कर न सके लू-लहूलुहान की,
पत्ते पेड़ से लगे हुये, यों पत्थर को पत्ती आयी
रत्ती भर भी हिलते नहीं, यों उन पर छायी तरुणाई
उमस भरा ज़लज़ला कुदरत का, कैसे ये जँच सकता है
व्याकुल सारा जगत, कहो कौन क्लेश यह हर सकता है
चक्कर खाते घूम रही है धरती अपनी मस्ती में
कितनों की नैया डूबी है कितने लटके कश्ती में,
चारों खाने चित्त पड़ा है झोंका हवा का गर्दिश में
वन-उपवन में समाँ अलग है मरघट बना है बस्ती में,
ऐसे उलझे अस्त समय में मधुरिम बीन बजाता हूँ
बीन-बीन कर गीतों को बादल के राग सुनाता हूँ।
१
खुले मैदान में छाया कोई, चलकर कहीं से आती है
मद्धिम होते देख धूप को, गौरैया हर्षाती है
कभी चोंच-नाखूनों से, ख़ुश्क धूल बिखराती है
उलट-पुलट कर देह अपने, डैनों को फैलाती है
थोड़े रज कण पूँछों में, मस्तक पर थोड़े लगाती है
बैठ धूल में चहक-चहक कर, ऐसे सुख दर्शाती है
तन उत्साहित गौरैया का मन में परम उछाह भरा,
खोद रही कण-कण गड्ढे को पल-पल भरे उमाह नया।
गड्ढे में उन्मादित से, उरग देखते बादल को
आओ मेरे अंकन आओ
बरसों से जमी प्यास बुझाओ,
पानी से भर गड्ढों को, जलद परम संताप मिटाओ।
२
स्नेह चिड़ा का छाया के प्रति अचरज को उकसाता है,
सीस नवाकर धूलिका में धूर-खेली वो बन जाता है।
योजन भर दूर खड़े बादल को,
देख कहीं तरुगात पर,
पथिक खड़ा विस्मय सा गौरैया को देख रहा है।
वार्तालाप छिड़े हैं खग में, या उनपर ये तरुणाई है,
या मेघ बन काली घटा, फिर आज बरसने आई है।
अपने गड्ढों में बैठे बोल रहे हैं पाहन को,
थोड़े बादल इधर भी भेजो चैन बढ़ायें आनन को,
बरस गये दो-चार बूँद, श्रम वृथा न अपने फिर होंगे,
बोलो भूधर, बादल को, उपकार जरा करने होंगे।
...“निश्छल”
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धूल उड़ाती ज्येष्ठ पवन खेल रही है यहाँ-वहाँ
ढोते हुए धूलि कणों को बिखेर रही है जहाँ-तहाँ,
लू से दोस्ती करके धूल धू-धू करके गरज रही है
आतंकित से जीव-जंतु सब उष्ण गरल वमन रही है,
सूखे पत्ते निर्भय होकर नील गगन को छूने को
बिन पंख उड़ चले रहा न उनको कुछ भी डरने को,
श्वास स्वयं की हो गयी है दुश्मन अपने जान की
कोई वर्णन कर न सके लू-लहूलुहान की,
पत्ते पेड़ से लगे हुये, यों पत्थर को पत्ती आयी
रत्ती भर भी हिलते नहीं, यों उन पर छायी तरुणाई
उमस भरा ज़लज़ला कुदरत का, कैसे ये जँच सकता है
व्याकुल सारा जगत, कहो कौन क्लेश यह हर सकता है
चक्कर खाते घूम रही है धरती अपनी मस्ती में
कितनों की नैया डूबी है कितने लटके कश्ती में,
चारों खाने चित्त पड़ा है झोंका हवा का गर्दिश में
वन-उपवन में समाँ अलग है मरघट बना है बस्ती में,
ऐसे उलझे अस्त समय में मधुरिम बीन बजाता हूँ
बीन-बीन कर गीतों को बादल के राग सुनाता हूँ।
१
खुले मैदान में छाया कोई, चलकर कहीं से आती है
मद्धिम होते देख धूप को, गौरैया हर्षाती है
कभी चोंच-नाखूनों से, ख़ुश्क धूल बिखराती है
उलट-पुलट कर देह अपने, डैनों को फैलाती है
थोड़े रज कण पूँछों में, मस्तक पर थोड़े लगाती है
बैठ धूल में चहक-चहक कर, ऐसे सुख दर्शाती है
तन उत्साहित गौरैया का मन में परम उछाह भरा,
खोद रही कण-कण गड्ढे को पल-पल भरे उमाह नया।
गड्ढे में उन्मादित से, उरग देखते बादल को
आओ मेरे अंकन आओ
बरसों से जमी प्यास बुझाओ,
पानी से भर गड्ढों को, जलद परम संताप मिटाओ।
२
स्नेह चिड़ा का छाया के प्रति अचरज को उकसाता है,
सीस नवाकर धूलिका में धूर-खेली वो बन जाता है।
योजन भर दूर खड़े बादल को,
देख कहीं तरुगात पर,
पथिक खड़ा विस्मय सा गौरैया को देख रहा है।
वार्तालाप छिड़े हैं खग में, या उनपर ये तरुणाई है,
या मेघ बन काली घटा, फिर आज बरसने आई है।
अपने गड्ढों में बैठे बोल रहे हैं पाहन को,
थोड़े बादल इधर भी भेजो चैन बढ़ायें आनन को,
बरस गये दो-चार बूँद, श्रम वृथा न अपने फिर होंगे,
बोलो भूधर, बादल को, उपकार जरा करने होंगे।
...“निश्छल”
जी इस सुंदर रचना के लिये आभार
ReplyDeleteआदरणीय, अति आभार आपका🙏🙏🙏
Deleteवाह बेहतरीन भाव ...गरम हवा मैं पुरवा के झोंके सी रचना
ReplyDeleteबरस गये दो चार बूँद
श्रम वृथा ना अपने फिर होगें
बोलो भूधर बादल को
उपकार जरा करने होंगे ......
सुन्दर गहरे अर्थ लिये पंक्तियाँ ...
gm
😊सादर धन्यवाद दीदी🙏🙏🙏
Deleteअद्वितीय अद्भुत प्रशंसा से परे बहुत सुंदर काव्य।
ReplyDelete😊साभार नमन आदरणीया🙏🙏🙏
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