कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

22 June 2018

वस्तुतः

वस्तुतः
✒️
चंद साँसें ही अभी,
बाकी रहीं इस जिंदगी में…
क्या तुझे इतनी ख़बर भी
ना रही ऐ भ्रमित राही।
गिनती बढ़ी बहुत लेकिन्
शेष कम ही हो रहा है।
और तू यूँ ही खड़ा, मद में भरा,
बढ़ते गुरुर का सिलसिला,
वस्तुतः,
धनी केवल आँकड़ों का हो रहा है।
जुड़ा एक और सावन उमर में, तो ये
ग़ुमां किस लिये भला?
जला दीपक लौ,
और ये दह्म
कम ही हो रहा है।
या कहे,
इस अंतहीन क्रीड़ागगन में रम गया, तो
पारी प्रवर्तन से क्यों विचलित हो रहा है?
या तुझे कुछ और पाने…
की सनक ना गयी अब भी,
या कहीं मोह के,
विषबेल में उलझा हुआ है।
परित्याग कर उलझन…
इन सारी अड़चनों का,
परदा गिरा नज़रों से अब
अपने सँभलकर,
स्वीकार कर ले ओ मुसाफिर
ये अमर्त्य सच,
परिवर्तन प्रकृति का नियम है…।
...“निश्छल”

8 comments:

  1. वाह वाह नश्वरता का रोचकता से अद्भुत गुँथन ...भाई अमित जी बेहतरीन शब्दों का चयन ...
    एक पुराना दोहा याद आ गया ....
    माय कहे पूत हुओं रे बडेरो
    काल कहे दिन आयो मेरो !
    माँ पुत्र के जन्म दिन पर खुश होकर कहती है मेरा पुत्र बड़ा हो रहा है और मृत्य कहती है एक साल गया मृत्य का दिवस और नजदीक आ जगया !
    पल पल घटता जा रहा
    मनवा कर तू भान
    दिवस एक जुड़ता नहीं
    घटे दिवस ये जान !

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    1. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति दीदी, पल पल घटता जा रहा... अति उत्तम 🙏🙏🙏

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  2. बहुत सुंंदर रचना..।

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    1. 😊😊जी सादर धन्यवाद🙏🙏🙏

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  3. सांसो का क्या भरोसा, किस पर करे गुमान
    काल चक्र मे फंसा है न जाने कब आ जाये बारी
    जीवन के क्षण भंगुरता और उम्र का घटता स्वरूप। शाश्वत दर्शन करवाती उत्तम रचना।

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    1. साँसों का क्या भरोसा... बेहतरीन संप्रेषण आदरणीया😊🙏🙏🙏

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  4. बहुत सुंदर रचना

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  5. बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया🙏🙏🙏

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