कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

23 June 2018

कुछ इधर-उधर की-३

कुछ इधर-उधर की-३
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“हम, खा लेंगे शीतल समीर को औ' पी लेंगे लू,
हरी-भरी सदैव रखेंगे सारे वन की भू।
शाकाहार ही धर्म हमारा जँचते मुझको फूल,
भरता नहीं पेट जब, फिर फाँक राह के धूल...”
ऐसे ही मनगढ़ंत बातें खुद से बतियाते,
एक भेड़िया, जंगल के बीच चला जा रहा था...
कहा रोककर कालू भालू, “कहाँ जा रहे हो मिमियाते
पूरा जंगल निगल लिए, क्या फिर भी लाज रही है आते?”
दक्ष, कला में निपुण खिलाड़ी, चाल सोचकर चलता है
लेकिन भींगी बिल्ली जैसे राहों में क्यों मचलता है?
आश्चर्य की बात हुई ये, भालू थोड़ा चकराया
‘लगा काट खाने उँगली को’, गीदड़ चाल ने असर दिखाया,
ये कैसी अनहोनी हो गयी, या आनी है वन में विपद बड़ी
खीझ उठा झुँझलाया पर, युक्ति कहीं से एक न सूझी,
चला जा रहा उलझन में जब, देखा चित्र बड़ा भेड़िये का
और अकुलाया पढ़कर, जो नीचे, मोटे अक्षर में लिखा था,
‘भेड़िया आपकी जात-बिरादर अपना वोट इसी को दें,
भारी बहुमत से अपने भेड़िये भाई को विजयी बनावें’।
बात गले से उतरी तब, यह समझ भालू को आया
भेड़िया इतना हठधर्मी, क्यों परहित में था रमा समाया...
...“निश्छल”

8 comments:

  1. जबरदस्त व्यंग सौ चूहे खा बिल्ली का हज का टिकिट।
    वाह रचना

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    1. धन्यवाद आदरणीय😊🙏🙏🙏

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  3. वाह वाह तीखा व्यंग ....👌👌👌👌👌

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  4. आर्टिकल व्यंग से ओत प्रोत !धन्यवाद

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    1. साभार नमन आदरणीय... स्वागत है आपका ‘मकरंद’ पर🙏🙏🙏

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